पूरी तरह धरातल पर उतरी, तो करेगा देश नये युग से साक्षात्कार

Last Updated 07 Aug 2021 06:57:29 AM IST

करीब साढ़े तीन दशक के बाद भारत को पिछले साल एक नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति मिली। इसका खाका प्रस्तुत करते समय सरकार ने इसके माध्यम से गांधी और अंबेडकर के सपने को सच करने की बात कही थी। नई नीति में इस ओर प्रयास काफी हद तक दिखाई भी पड़ता है। खास कर ये नया नीति दस्तावेज महात्मा गांधी के उस दर्शन से मेल खाता दिखा है, जिसमें शिक्षा को ‘सा विद्या ये विमुक्त’ कहा गया है यानी शिक्षा वह है जो बंधन से मुक्त या प्रेरित करती है।


पूरी तरह धरातल पर उतरी, तो करेगा देश नये युग से साक्षात्कार

नई शिक्षा नीति के एक साल पूरे होने पर अपने संबोधन में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने गांधी जी के इस दर्शन में आधुनिक और आत्मनिर्भर भारत का मंत्र भी जोड़ दिया। प्रधानमंत्री ने इसे राष्ट्र निर्माण के महायज्ञ का एक अहम स्तंभ बताया और कहा कि भविष्य में हम कितना आगे जाएंगे, ये इस बात पर निर्भर करेगा कि हम वर्तमान पीढ़ी को कैसी शिक्षा दे पा रहे हैं। इस संबोधन का सार निकालें तो उम्मीद यही है कि नई शिक्षा नीति जब पूरी तरह धरातल पर उतरेगी, तो देश एक नए युग से साक्षात्कार करेगा।     

तो पिछला एक साल इस सपने को सच करने में कितना योगदान दे पाया है? देश के हालात सामान्य होते तो शायद इस पड़ताल का लहजा भी सामान्य तौर पर ऐसा ही होता। लेकिन नई नीति जारी होने के बाद से अब तक देश जिन परिस्थितियों से गुजरा है, उसमें तार्किकता ‘कितना’ के बजाय ‘क्या’ और ‘कोई’ जैसे प्रश्नवाचक सर्वनामों पर केंद्रित हो गई है। क्या पिछला साल इस सपने को सच करने में कोई योगदान दे पाया है? पिछले साल हम जहां खड़े थे, वहां से थोड़ा आगे जरूर बढ़े हैं, लेकिन मोटे तौर पर खुद सरकार इस तरक्की से संतुष्ट नहीं है। शिक्षा मंत्रालय में उच्च स्तर पर बदलाव इसका एक संकेत भी है। दरअसल, कोरोना महामारी के कारण शिक्षा की अवधारणा पूरी तरह बदल गई है। पिछले करीब डेढ़ साल से शिक्षण संस्थान बंद हैं और अध्ययन-अध्यापन की पूरी प्रक्रिया ऑनलाइन हो गई है। पढ़ाई का समय स्क्रीन टाइम में बढ़ोतरी कर रहा है और ज्ञान अर्जित करने के जिस सिलसिले को नई नीति प्रेरणादायी अनुभव में बदलना चाहती है, वो उबाऊ होने लगा है। बावजूद इसके कि इस दौरान परिस्थितियों से तालमेल बनाने के लिए शिक्षा मंत्रालय की ओर से कई प्रयास हुए हैं।

नवाचार की साबित हुई उपयोगिता
‘दीक्षा’ प्लेटफॉर्म और ‘स्वयं’ पोर्टल इसी दिशा में हुए नवाचार हैं। दीक्षा पर पिछले एक साल में 2300 करोड़ हिट्स इसकी उपयोगिता का ही तो सूचक हैं। नई शिक्षा नीति में उच्च शिक्षा में गांव और शहरों को समान रूप से डिजिटल लर्निग से जोड़ने की सिफारिश है, जिसे सफल बनाने के लिए मूक और स्वयंप्रभा जैसी मुफ्त ऑनलाइन कोर्स योजना मौजूद हैं। लेकिन सिक्के का दूसरा पहलू भी है, जो इन तमाम प्रयासों की व्यापकता के बावजूद उपयोगिता के पैमाने पर वैश्विक जगत से इनके तालमेल पर सवालिया निशान लगाने का काम कर रहा है। कोरोना ने हमें ऑनलाइन शिक्षा के दूसरे पहलुओं पर भी गौर करने के लिए मजबूर किया है। शिक्षा से जुड़ी एक रिपोर्ट बताती है कि संचार क्रांति के तीन दशक बाद भी कंप्यूटर सिर्फ  39 फीसद स्कूलों तक पहुंच पाया है। इंटरनेट पहुंच का आंकड़ा तो अभी केवल 22 फीसद तक पहुंचा है।

यूनिसेफ की रिपोर्ट और भी विषम परिस्थितियों की संकेतक है। इसके अनुसार प्रति हजार स्कूली बच्चों में से केवल 85 के पास इंटरनेट सुविधा है। ये सब शिक्षा में व्यवधान के सूचक हैं और इसीलिए इंटरनेट से सुलभ शिक्षा के पैमाने पर भारत दक्षिण एशिया में नीचे से दूसरे पायदान पर है। उम्मीद की जानी चाहिए कि ग्रामीण क्षेत्रों में ब्रॉडबैंड कनेक्टिविटी को विस्तार दे रही भारतनेट परियोजना इस प्रश्न का हल साबित होगी। एक दूसरा सवाल बढ़ती आबादी के बीच सबके लिए गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का है। नब्बे के दशक में आई पिछली नीति का सूत्र वाक्य था-‘सबके लिए शिक्षा’। हम जानते हैं कि इसका हश्र ‘गरीबी हटाओ’ के नारे जैसा रहा है। शिक्षा के व्यवसायीकरण ने गरीब जनता को ही गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की दौड़ से बाहर कर दिया। भारत जैसे विशाल आबादी वाले देश में सबको सस्ती और गुणवत्तापूर्ण तथा रोजगारमूलक शिक्षा देना आसान लक्ष्य नहीं है। गांव-शहर, गरीब-अमीर जैसे समाज में मौजूद कई विभाजनकारी तत्व इसे और मुश्किल बना देते हैं। इस दृष्टि से भी राष्ट्रीय शिक्षा नीति के एक साल होने पर मेडिकल कॉलेजों के दाखिले में अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए 27 फीसद और आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के छात्रों के लिए 10 फीसद आरक्षण का फैसला प्रशंसनीय पहल है। इस नई व्यवस्था से हर साल ऑल इंडिया कोटा स्कीम के तहत एमबीबीएस, एमएस, बीडीएस, एमडीएस, डेंटल, मेडिकल और डिप्लोमा में चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों के बावजूद शिक्षा ग्रहण कर रहे 5,550 विद्यार्थी लाभान्वित होंगे।  

असमानता और स्पष्ट हुई
वैसे भी कोरोना के दौर में शिक्षा के अधिकार को लेकर असमानता और स्पष्ट हुई है। एनसीईआरटी की एक रिपोर्ट बताती है कि देश के 27 फीसद स्कूली विद्यार्थियों की ऑनलाइन पढ़ाई के लिए जरूरी स्मार्टफोन, लैपटॉप या कंप्यूटर तक पहुंच नहीं है। ऐसे बच्चों के लिए सरकार इसरो के सहयोग से सैटेलाइट टीवी क्लासरूम शुरू कर रही है, ताकि स्कूल बंद रहने की स्थिति में भी उन्हें मुफ्त ऑनलाइन क्लास की सुविधा मिलती रहे। अपनी व्यापकता के कारण ऐसी जमीनी चुनौतियों का निदान खर्चीला भी होता है, जो एकजाई होने पर बजट के प्रावधानों को भी प्रभावित करते हैं। वर्ष 2020-21 के मूल बजट में शिक्षा मंत्रालय को 99 हजार करोड़ रुपये से कुछ ज्यादा धन आवंटित हुआ, लेकिन कोविड-19 के संकट के बीच ये संशोधित होकर 85 हजार करोड़ के आसपास रह गया। इससे स्कूली शिक्षा, उच्च शिक्षा, समग्र शिक्षा अभियान, लड़िकयों की माध्यमिक शाला की राष्ट्रीय प्रोत्साहन जैसी अहम योजनाओं को आवंटन में कटौती का सामना करना पड़ा है। हालांकि मोदी सरकार ने अपने दूसरे कार्यकाल में आत्मनिर्भर भारत को लक्ष्य बनाते हुए शिक्षा में शोध और उसे रोजगारपरक बनाने को बढ़ावा दिया है। ये एक तरह का भविष्य में निवेश है, जिसके अच्छे परिणाम अपेक्षित हैं।

सामूहिकता का भाव जरूरी
ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि शिक्षा पर खर्च किया गया एक रुपया अर्थव्यवस्था में 10 से 15 रुपए का योगदान दे सकता है। लेकिन इसके लिए शिक्षा की प्रक्रिया में समूची व्यवस्था की हिस्सेदारी आवश्यक है। कोरोना महामारी के दौर में कठिन हुई शिक्षा की राह को आसान बनाने के लिए सामूहिकता का ये भाव वैसे भी जरूरी है। इसकी शुरुआत शिक्षा मंत्रालय से हुई है, जहां बदलाव के बाद अब नई नीति पर अमल की रफ्तार भी बदली दिख रही है। इस पर नजर रखने के लिए एक पोर्टल तैयार किया जा रहा है। उच्च शिक्षा में यूजीसी भी हर नई पहल को प्रोत्साहित करने के लिए कमर कसती दिख रही है। पुरानी शिक्षा नीति की पृष्ठभूमि भी यही सबक सिखाती है कि समय से तालमेल बैठाकर ही सफलता का लक्ष्य हासिल किया जा सकता है।
 

उपेन्द्र राय


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