त्रासद स्मृति : आपातकाल का काला अध्याय
25 जून, 1975 का दिन भारत के लोकतांत्रिक इतिहास का सबसे दुर्भाग्यपूर्ण दिन था जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की तानाशाह सरकार ने आंतरिक अशांति का बहाना बना कर देश में आपातकाल की घोषणा की।
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इसके बाद आपातकाल के 21 महीनों ने भारतवासियों की संवैधानिक विरासत की समझ को झकझोर कर रख दिया गया। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने श्रीमती गांधी को 1971 के लोक सभा चुनाव में गड़बड़ी करने का दोषी ठहराते हुए उनका लोक सभा के लिए निर्वाचन अमान्य घोषित कर दिया था। इसके बाद श्रीमती गांधी के इस्तीफे की मांग बढ़ती गई और इसी बीच इंदिरा गांधी ने 25 जून, 1975 की रात तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद को सादे कागज पर (बिना कैबिनेट की सहमति और आधिकारिक लेटरहेड के) अनुच्छेद 352 के तहत ‘आंतरिक अशांति’ के आधार पर देश में आपातकाल लागू करने की सिफारिश कर दी। यह देश की संवैधानिक शासन व्यवस्था पर सीधा प्रहार था। अगले दिन 26 जून, 1975 को सुबह 6 बजे कैबिनेट की बैठक में यह विषय औपचारिक रूप से प्रस्तुत किया गया।
इस कदम से जनता को संविधानप्रदत्त आजादी रातों-रात समाप्त कर दी गई। अनुच्छेद 19 के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, संगठन बनाने और देश के भीतर आने-जाने की स्वतंत्रता झटके में खत्म कर दी गई। जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की गारंटी देने वाला अनुच्छेद 21 निर्थक हो गया। सबसे दुखद यह था कि बाबा साहब डॉ. भीमराव अंबेडकर ने संविधान के जिस अनुच्छेद 32-जो नागरिकों को न्यायालय जाने का अधिकार देता है-को संविधान की ‘आत्मा’ कहा था, उसे भी निरस्त कर दिया गया। आपातकाल के दमनचक्र के पहले शिकार वे विपक्षी नेता बने जिन्होंने सरकार की नीतियों का विरोध किया था। हजारों लोगों को कठोर मीसा (मेंटिनेंस ऑफ इंटरनल सेक्युरिटी एक्ट) और भारत रक्षा अधिनियम (डिफेंस ऑफ इंडिया एक्ट) के तहत जेल में डाला गया।
मेरे 90 वर्षीय दादा जी को उसी दौर में अपने रोजमर्रा के काम के दौरान गायों की देखभाल करते हुए ऊंगली में गहरी चोट लग गई थी जिसके इलाज के लिए उन्हें बीकानेर के पीबीएम अस्पताल में भर्ती कराया गया लेकिन अस्पताल में उन्हें पता चला कि नसबंदी लक्ष्यों को पूरा करने के सरकारी दबाव के चलते डॉक्टर उन्हें जबरदस्ती नसबंदी के लिए तैयार कर रहे हैं। इस अमानवीय स्थिति को भांपते हुए मेरे दादा जी अस्पताल से भाग निकले। हालांकि वे बच गए लेकिन उस भयावह अनुभव ने पूरे समुदाय को गहरे डर और सदमे से भर दिया था। दुर्भाग्यवश 1975-1977 के बीच एक करोड़ से अधिक लोगों की जबरन नसबंदी करा दी गई।
उस काले दौर में प्रशासनिक तंत्र का दुरु पयोग केवल एक परिवार के हित में किस हद तक किया गया इसका सबसे बड़ा उदाहरण 24 मार्च, 1976 को संजय गांधी की बीकानेर यात्रा थी। न तो उनके पास कोई संवैधानिक पद था, न ही वे राजकीय अतिथि थे, फिर भी उनके स्वागत में सरकारी संसाधनों की खुल कर बर्बादी की गई। उस समय मैं डाक एवं तार विभाग में टेलीफोन ऑपरेटर था। मुझे जानकर आश्चर्य हुआ कि रैली में विशिष्ट लोगों के लिए बनाए गए मंच के नीचे अस्थायी टेलीफोन कनेक्शन लगाने के आदेश दिए गए। जबकि ऐसी व्यवस्था केवल प्रधानमंत्री के लिए की जाती है।
आपातकाल के दौरान संविधान में 38वां संशोधन करके आपातकाल की घोषणा की समीक्षा करने में न्यायालय की भूमिका समाप्त कर दी गई। अध्यादेश जारी करने के मामले में राष्ट्रपति व राज्यपाल के अधिकार बढ़ा दिए गए। इसके तुरंत बाद 10 अगस्त, 1975 को लागू किए गए 39वें संविधान संशोधन द्वारा से न्यायालयों को प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति एवं लोक सभा अध्यक्ष जैसे उच्च पदों से जुड़े चुनावी मामलों की न्यायिक समीक्षा करने से रोक दिया गया। इस संविधान संशोधन के बाद ‘एडीएम जबलपुर बनाम शिवकांत शुक्ला’ के मामले की काफी चर्चा हुई थी जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने आपातकाल के दौरान मौलिक अधिकारों को निलंबित करने के निर्णय को सही ठहराया था। उस मामले में न्यायमूर्ति एचआर खन्ना ही अकेले न्यायाधीश थे जिन्होंने उस निर्णय से अपनी असहमति जताई थी और नागरिक स्वतंत्रता का समर्थन किया था।बाद में श्री खन्ना को वरिष्ठतम होने के बावजूद भारत का मुख्य न्यायाधीश नहीं बनाया गया।
आपातकाल के दौरान श्रीमती गांधी की सत्तालोलुपता का एक दूसरा उदाहरण 42वें संविधान संशोधन करना था जिसके माध्यम से लोक सभा का कार्यकाल पांच वर्ष से बढ़ाकर छह वर्ष कर दिया गया। ऐसा करके लोकतंत्र में जनादेश की गरिमा को और अधिक कम किया गया और आम चुनाव कराए बिना सरकार के कार्यकाल को बढ़ा दिया गया। इस संशोधन के द्वारा संविधान की उद्देशिका में तीन नये शब्द सामाजिक, पंथनिरपेक्ष और अखंडता जोड़े गए और ऐसा करके मूल संविधान से छेड़छाड़ की गई। आपातकाल के दौरान सरकार द्वारा 48 अध्यादेश जारी किए गए और इन्हें पारित करने में संसद में चर्चा और संशोधन करने की प्रक्रिया की अनदेखी की गई।
हमारे प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी उस समय मात्र 25 वर्ष के थे, लेकिन उन्होंने साहसपूर्वक तानाशाही शासन का विरोध किया। अपनी पहचान छिपाकर अलग-अलग नामों से भूमिगत रहकर गुप्त बैठकों का आयोजन किया और आपातकाल विरोधी साहित्य व पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन एवं वितरण में यत्न से जुटे रहे। जब आरएसएस को प्रतिबंधित कर दिए जाने के कारण इसे भूमिगत होना पड़ा तब मोदी जी ने गुजरात लोक संघर्ष समिति के महासचिव के रूप में लोकतंत्र की रक्षा हेतु अहम भूमिका निभाई। मोदी सरकार ने 11 जुलाई, 2024 को गजट अधिसूचना के माध्यम से 25 जून का दिन ‘संविधान हत्या दिवस’ के रूप में मनाने की घोषणा की। यह दिन उस विश्वासघात की याद दिलाता है जो आपातकाल के दौरान संविधान के मूल सिद्धांतों के साथ किया गया था। देश में आपातकाल का काला अध्याय 50 वर्ष पहले समाप्त हो गया है लेकिन वह भयावह दौर हमें याद दिलाता है कि लोकतंत्र की रक्षा के लिए हमें सजग प्रहरी बने रहने की आवश्यकता है।
(अर्जुन राम मेघवाल केंद्रीय विधि एवं न्याय राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) एवं संसदीय कार्य राज्य मंत्री हैं)
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