आपातकाल : लोकतंत्र पर लगी थी बेड़ियां
आपातकाल के 50 वर्ष पूरे हो चुके हैं। 25 जून, 1975 की अर्धरात्रि को स्वतंत्रता आंदोलन के महान सपनों, स्वतंत्रता सेनानियों के महान बलिदानों और संविधान निर्माताओं की भारत के लोकतांत्रिक गणराज्य की कल्पनाओं को रौंदते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सरकार ने राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद से आपातकाल लागू करने के अध्यादेश पर हस्ताक्षर करवाए।
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प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सरकार ने इसे ‘संविधान हत्या दिवस’ के रूप में मनाने का निर्णय किया और यह सरकारी गजट में शामिल भी हो गया। कांग्रेस और कुछ पार्टयिां आज इसे भाजपा की भाजपा और संघ की राजनीति तथा सत्ता का दुरुपयोग घोषित कर रहीं हैं किंतु वर्तमान राजनीतिक माहौल से परे होकर आपातकाल लागू होने की परिस्थितियों, आपातकाल के दौरान विरोधी कार्यकर्ताओं नेताओं के दमन, उत्पीरण, प्रेस की स्वतंत्रताओं के दमन तथा संविधान के साथ मनमाना छेड़छाड़ आदि को साथ मिलाकर देखें तो यह नामकरण उपयुक्त नजर आएगा।
हालांकि यह सामान्य ट्रेजडी नहीं है कि आज की राजनीति के अनेक चेहरे आपातकाल में जेल जाने वालों या उनके परिजनों के हैं और जिनकी राजनीति में हैसियत इसी कारण है वे कांग्रेस के साथ राजनीति के दबाव में अपनी अंतरात्मा की आवाज के विरु द्ध आपातकाल की आलोचना तक करने को तैयार नहीं है। तब इंदिरा गांधी और कांग्रेस के नेता और आज उनके समर्थक भी यही कहते हैं कि आपातकाल संविधान की धाराओं के तहत ही लगाया गया था।
निस्संदेह, देश संविधान की धारा 352 में आंतरिक आपातकाल की व्यवस्था थी। किंतु संविधान सभा में हुई बहस और उस धारा को ठीक से देखें तो स्पष्ट हो जाएगा कि इंदिरा जी की सत्ता को कायम रखने, उनकी चाहत के आधार पर देश चलाने तथा किसी भी विरोधी आवाज के सामने न आने की तानाशाही और हिटलरवादी सोच के तहत ही आपातकाल लागू किया गया। आखिर आपातकाल के पीछे कारण क्या थे? इसका तात्कालिक और मूल कारण 12 जून, 1975 का इलाहाबाद हाई कोर्ट के न्यायाधीश जगमोहन लाल सिंह का इंदिरा गांधी के रायबरेली से निर्वाचन को अवैध करार देने का आदेश था। 1971 के आम चुनाव में रायबरेली क्षेत्र से पराजित विपक्ष के नेता राजनारायण ने चुनाव में धांधली तथा सरकारी मशीनरी के व्यापक दुरु पयोग का मामला दर्ज कराते हुए चुनाव परिणाम रद्द करने की अपील की थी।
न्यायालय ने इंदिरा जी को इसका दोषी पाते हुए न केवल अयोग्य घोषित कर दिया बल्कि 6 साल के लिए उनके चुनाव लड़ने पर भी रोक लगा दी। न्यायालय के फैसले के विरुद्ध 20 जून को शक्ति प्रदशर्न के लिए कांग्रेस ने इंदिरा गांधी के समर्थन में दिल्ली में एक बड़ी रैली की। इसमें पहली बार इंदिरा गांधी के साथ पूरा परिवार उपस्थित था और उन्होंने देश की सेवा में अपने साथ परिवार का नाम लिया। प्रकारांतर से वे समर्थकों को यही कह रही थीं कि देश और हमारा परिवार एक दूसरे के पर्याय हैं और हमें ही सत्ता के हमारे अधिकार से वंचित किया जा रहा है। तब देश की पूरी तस्वीर को देखें तो भ्रष्टाचार, भाई भतीजावाद और सत्ता की लंपटयी एवं शिक्षा व्यवस्था में व्याप्त दोषों के विरु द्ध आंदोलन और हड़ताल चल रहे थे।
लोगों में आक्रोश था। आर्थिक स्थिति अत्यंत खराब थी। भ्रष्टाचार के विरु द्ध गुजरात के छात्रों ने ‘नवनिर्माण आंदोलन’ प्रारंभ किया था। उनकी मांग थी, ‘भ्रष्ट चिमन पटेल की सरकार को बर्खास्त किया जाए।’ बिहार में भी इसी तरह आंदोलन चल रहा था। छात्रों के आग्रह पर जयप्रकाश जी ने इसका नेतृत्व संभाला। इसी पृष्ठभूमि में 12 जून को इलाहाबाद उच्च न्यायालय का फैसला आया था। 25 जून को रामलीला मैदान में विपक्ष की पहली ऐसी रैली हुई जिसमें देश भर से बड़ी संख्या में जन समूह उमड़ा। एक स्वर से इंदिरा गांधी के त्यागपत्र की मांग की गई। इस तरह का दृश्य इसके पूर्व कभी देखा नहीं गया था। 29 जून से आंदोलन करने की घोषणा की गई तथा जयप्रकाश जी ने पुलिस सहित सुरक्षा बलों से सरकार की बात न मानने की अपील की क्योंकि उनके अनुसार न्यायालय के फैसले के बाद इंदिरा गांधी का सत्ता से संवैधानिक और नैतिक अधिकार समाप्त हो चुका था। इंदिरा गांधी सिद्धार्थ शंकर रे के साथ राष्ट्रपति भवन पहुंची और राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद को समझाया तथा उन्होंने एक कांग्रेसी के रूप में रात 11.45 बजे आपातकाल के आदेश पर हस्ताक्षर कर दिया।
आपातकाल लागू होते ही संविधान के अनुच्छेद 14 और 19 के अंतर्गत सभी भारतीयों को प्राप्त मौलिक अधिकार समाप्त हो गए। जयप्रकाश जी सहित सारे विरोधी नेता जहां जिस शहर में थे वही गिरफ्तार कर जेल में डाल दिए गए। दूसरे संगठनों के नेताओं के साथ भी ऐसा ही होने लगा। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ सहित 26 संगठन हालांकि 4 जुलाई को प्रतिबंधित हुए, लेकिन उनके कार्यकर्ताओं नेताओं की गिरफ्तारी पहले ही शुरू हो गई थी। 26 जून को संघ के सरसंघचालक बालासाहब देवरस को नागपुर से गिरफ्तार किया गया। आज अपने वैचारिक विरोध में अनेक लोग आपातकाल में संघ द्वारा इंदिरा का साथ देने का शर्मनाक आरोप लगाते हैं जबकि खुफिया रिपोर्ट थी कि संघ के प्रचारक और कार्यकर्ता इंदिरा विरोधी आंदोलन को हवा दे रहे हैं। शुरू के दिनों में ही लगभग 50 हजार संघ के प्रचारक और स्वयंसेवक गिरफ्तार हुए।
आपातकाल में इंदिरा सरकार ने 48 अध्यादेश जारी किए। मीसा संशोधन अध्यादेश को चार बार और जारी किया गया एवं सांसद द्वारा इसकी स्वीकृति दी गई। रक्षा संशोधन अध्यादेश जारी किया गया जिसके द्वारा सरकार को सार्वजनिक व्यवस्था बनाए रखने के लिए व्यापक अधिकार मिले। 3 फरवरी 1977 को एक अध्यादेश प्रधानमंत्री तथा लोक सभा अध्यक्ष के चुनाव से संबंधित था। हाई कोर्ट में चुनावी याचिका की जगह निपटने के लिए अथॉरिटी बनाई गई थी। सबसे विवादास्पद 42वां संशोधन था जिसने न्यायपालिका की शक्ति को कम कर दिया। इस संशोधन ने संविधान की मूल संरचना को बदल दिया था। दिन रात संविधान बचाओ की रट लगाने वाले लोग जरा दिल पर हाथ रखकर सोचें उसके पहले या उसके बाद ऐसा कोई अवसर आया जब निर्दोष, नेताओं-कार्यकर्ताओं, आम लोगों को जेल में या भूमिगत होकर पुलिस प्रशासन के उत्पीड़न के भय में जीना पड़ा हो?
(लेख में विचार निजी है)
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