सामयिक : हम इतने जंगली क्यों हैं
शेर बहुत हिंसक प्राणी है यह हम सब जानते हैं। पिछले हफ्ते हम केन्या के विश्व प्रसिद्ध मसाई मारा वन्य अभ्यारण्य में खुली जीप में घूमते रहे। सबसे रोमांचक क्षण वो थे जब हमारी जीप के तीन तरफ चार-पांच बब्बर शेर और शेरनी बैठे थे।
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उनसे हमारी दूरी मात्र 10 फीट थी। वो हमें निहार रहे थे और हम उन्हें। वो तो बेफिक्र होकर अपने जिस्म चाट रहे थे और हमारी रूह कांप रही थी कि कहीं हमला न कर दें। हालांकि फारेस्ट गार्ड ने आस्त किया कि ऐसा कुछ नहीं होगा।
हम न सिर्फ उन्हें आधे घंटे तक एकटक निहारते रहे, बल्कि जब वो उठ कर चल दिए तो हम भी धीमी गति से उनका पीछा करते हुए चलते रहे। उन्होंने फिर भी कोई उत्तेजना नहीं दिखाई। कमाल है कि जंगल का सबसे हिंसक पशु भी अपने अनुशासन की सीमा में रहना जानता है, और अपने को सभ्य समाज मानने वाले हम कितने हिंसक हैं कि वाणी से, क्रिया से और विचारों से हमेशा अपने समाज और पर्यावरण के प्रति हिंसा करते रहते हैं।
चाहे हमारे ये क्रियाएं आत्मघाती ही क्यों न हों। केन्या के उस सुनसान जंगल में बैठे-बैठे सोशल मीडिया पर समाचार मिला कि डोनाल्ड ट्रंप भी अब इजरायल और ईरान के युद्ध में कूदने का मन बना रहे हैं। उधर, यूक्रेन और रूस का युद्ध बरसों से लगातार तबाही मचा ही रहा है, और इधर अब यह नया मोर्चा तैयार हो रहा है। क्या ये विश्व युद्ध की ओर बढ़ते कदम नहीं हैं? वैसे तो मानव समाज जब से संगठित हुआ होगा तब से युद्ध उसके जीवन का अंग बने होंगे। इतिहास आज तक हुए लाखों युद्धों की गाथाओं से भरा पड़ा है।
फिर भी मेरे मन में ये दार्शनिक प्रश्न आ रहा है कि इन युद्धों की शुरु आत करने वाले इतने जंगली क्यों होते हैं? क्या उन्हें नहीं दिखता कि युद्ध की विभीषिका में कितने बच्चे अनाथ हो जाते हैं, महिलाएं विधवा हो जाती हैं, बने-बनाए घर-मकान, विशाल भवन आदि सब ध्वस्त हो जाते हैं, युद्ध के गोले-बारूद से पर्यावरण जहरीला हो जाता है, अर्थव्यवस्थाएं लड़खड़ा जाती हैं, विकास अवरुद्ध हो जाता है, और आम जनता तबाह हो जाती है। फिर हर युद्ध के बाद युद्ध विराम होता है, और शांति वार्ताएं होती हैं।
अगर हर युद्ध की परिणति शांति वार्ता ही होनी थी तो फिर ये सब विध्वंस क्यों किया गया? हुक्मरानों से यह सवाल पूछने वाला कोई नहीं होता। सवाल पूछना तो दूर प्राय: आम जनता तो अपनी तबाही के लिए जिम्मेदार नेता की ही मुरीद हो जाती है। युद्ध के उन्माद में उसे मसीहा मान लेती है। जैसा जर्मनी की जनता ने किया। जो हिटलर की आत्महत्या के आखिर क्षण तक यही मानती रही कि वो उन्हें हर बला से बचा लेगा। एक अहमक के फितूर ने जर्मनी को तबाह कर दिया।
प्राय: हर देश में ऐसी मानसिकता वाले लोगों की कमी नहीं है, जो शस्त्र निर्माता लॉबी और भ्रष्ट, अहंकारी और आत्ममुग्ध, अति महत्त्वाकांक्षी अपने नेताओं के प्रोपोगैंडा के प्रभाव में आकर अपना अच्छा-बुरा देखने की क्षमता ही खो बैठती है। ट्रंप के समर्थक मतदाताओं का भी अमेरिका के चुनाव से पहले यही हाल था। मैं कभी सैन्य विज्ञान का विद्यार्थी नहीं रहा। इसलिए युद्धों के कारण की सैद्धांतिक व्याख्या करने का दुस्साहस नहीं करूंगा पर एक संवेदनशील आम नागरिक होने के नाते यह सोचने और पूछने का हक तो रखता ही हूं कि आखिर ये युद्ध किसके हित में होते हैं?
उस जनता के हित में तो बिल्कुल नहीं होते जिसके खून-पसीने की कमाई पर वसूले गए टैक्स के अरबों रु पये ऐसे युद्धों में फूंक दिए जाते हैं। सफेद हाथी की तरह बैठा सयुंक्त राष्ट्र (संघ) आज तक एक भी युद्ध नहीं रोक पाया। क्या कोई पुतिन, ट्रंप या तालिबानी नेता उसकी सुनने को तैयार है? फिर भी सयुंक्त राष्ट्र के नाम पर दुनिया में दशकों से नौटंकी चल रही है। आज इस लेख में समाधान प्रस्तुत करने वाला कोई विचार मेरे पास नहीं हैं।
पर एक फिक्र जरूर खाए जा रही है कि आज दुनिया एक अजीब दौर से गुजर रही है जहां अशांति तथा असुरक्षा और पर्यावरण का विनाश तेजी से बढ़ रहा है और मानवीय संवेदनशीलता उतनी ही तेजी से घट रही है। डोनाल्ड ट्रंप को ही लें जिनके स्वागत में हमने पलक-पांवड़े बिछाए थे, वो अपने देश में घुसे अवैध भारतीयों को हथकड़ी और बेड़ियों में बांध कर वापस भेज रहे हैं जबकि दूसरे देशों के ऐसे लोगों को ससम्मान भेज जा रहा है। ट्रंप वहां रह रहे भारतीयों के वीजा खत्म करने की धमकी दे रहे हैं। इससे डर कर कितने सफल युवा अमेरिका के अपने सपने को चूर-चूर होते देख घर लौट रहे हैं। दरअसल, ये हुक्मरान आम जनता को चैन से जीने नहीं देना चाहते। उसे हमेशा डरा-दबा कर रखना चाहते हैं।
इन सबसे तो जंगल का राजा शेर कहीं ज्यादा अमन पसंद है, जो अपना पेट भरने के बाद अकारण किसी पर हमला नहीं करता। हम तो उससे कहीं ज्यादा हिंसक हो चुके हैं। फिर भी ठहर कर सही और गलत पर सोचने का समय नहीं है आज हमारे पास। आज जब सूचना क्रांति ने पूरी दुनिया के लोगों को इस तरह जोड़ दिया है कि सैकंडों में सूचनाएं दुनिया के एक कोने से दूसरे कोने तक पहुंच जाती हैं, तब क्या युद्ध और पर्यावरण के विनाश को रोकने के लिए हर देश की जागरूक जनता सोशल मीडिया पर संगठित होकर ऐसे हुक्मरानों पर दबाव नहीं बना सकती जो इस विनाश के कारण बन रहे हैं? दुर्भाग्य से पिछले कुछ वर्षो में कई देशों में विरोध के स्वरों को दबाने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है।
पहले ऐसा केवल तानाशाह या सैन्य सरकारों में होता था पर अब कुछ देशों की लोकतांत्रिक सरकारें भी विरोध के स्वरों को दबाने में हिचकती नहीं हैं। इसके दुष्परिणाम न केवल उस देश की जनता को भोगने पड़ते हैं, बल्कि वो हुक्मरान भी जमीनी सच्चाई से कट जाते हैं, और चाटुकारों से घिर कर आत्मघाती कदम उठा लेते हैं, जैसा श्रीमती इंदिरा गांधी ने 1975 में आपातकाल लगा कर किया था। बाद में उन्हें चुनावों में जनता का कोप भाजन बनना पड़ा था। इसलिए हर लोकतांत्रिक सरकार को विरोध के स्वरों को मुक्त रूप से सामने आने देना चाहिए। इससे उसे अपनी हकीकत जानने का मौका मिलता है।
(लेख में विचार निजी हैं)
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