रेयर अर्थ मैटेरियल : महाशक्ति बनने को निर्भरता जरूरी
पूरी दुनिया का ध्यान इस समय जब ईरान- इजरायल और गाजा संघर्ष में उलझा है, इसी दौर में भारत, अमेरिका सहित अनेक देश एक अन्य महत्त्वपूर्ण मुद्दे पर उलझे हैं।
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यह मुद्दा है धरती के गर्भ में पाए जाने वाले उन 17 दुर्लभ खनिजों का जिनके बगैर ऑटोमोबाइल और सैन्य-रक्षा सहित विभिन्न इलेक्ट्रॉनिक्स उपकरणों का निर्माण संभव नहीं है। पिछले कुछ महीनों में हालात ज्यादा विकट होने चले हैं। ‘रेअर अर्थ’ की श्रेणी में आने वाले दुर्लभ खनिज वाणिज्यिक, औद्योगिक संसाधन भर नहीं हैं, ये तकनीकी संप्रभुता, रक्षा तैयारियों और औद्योगिक, आर्थिक और सैन्य महाशक्ति बनने की संभावनाओं की नींव हैं।
रेअर अर्थ मेटल 17 धातु तत्वों का एक समूह है, जिसमें 15 लैंथेनाइड्स धातुओं के अलावा स्कैंडियम भी और नियोडिमियम शामिल हैं। इनमें चुंबकीय, ल्यूमिनसेंट और इलेक्ट्रोकेमिकल के विशेष गुण होते हैं, जिनका उपयोग आधुनिक उच्च तकनीक उद्योग में किया जाता है। स्मार्टफोन, लैपटॉप और इलेक्ट्रिक वाहन बनाने के साथ मिसाइल, राडार और अत्याधुनिक हथियार बनाने के लिए ये ‘अनिवार्य तत्व’ हैं। रेअर अर्थ मैग्नेट सामान्य आयरन मैग्नेट से 20 गुना अधिक ताकतवर होता है, और कारों तथा कई अन्य उपकरणों में लगने वाली इलेक्ट्रिक मोटरों को बनाने के लिए जरूरी है।
यूएस भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण डेटा पर आधारित एक नये ग्लोबल मैप के मुताबिक यों तो कई देशों में इन दुर्लभ तत्वों के भंडार हैं, लेकिन सर्वाधिक चीन में 44 मिलियन मीट्रिक टन भंडार हैं। चीन के बाद अफ्रीका, मोरक्को और दक्षिण अफ्रीका, चिली, ब्राजील, यू्क्रेन और ग्रीनलैंड में दुर्लभ अर्थ मेटल्स के विशाल भंडार हैं। दिक्कत यह है कि इन देशों में इनकी खुदाई और प्रोसेसिंग महंगी है। इससे भारी मात्रा में प्रदूषण भी निकलता है। इन सब में चीन के पास ही इनकी प्रोसेसिंग की क्षमता है। वर्तमान में दुर्लभ पृथ्वी धातुओं का 61 प्रतिशत भंडार चीन में है, और पूरी दुनिया में 90 फीसद का वही निर्यात करता है।
इन तत्वों को एक-दूसरे से अलग करना जटिल है। इसीलिए इन्हें ‘रेअर’ माना जाता है। रेअर अर्थ की वैश्विक सप्लाई चेन में चीन का दबदबा है। आधुनिक इंडस्ट्री में इनका महत्त्व यों समझा जा सकता है कि चीन ने जब अप्रैल में रेअर अर्थ मैग्नेट समेत छह तरह की बहुमूल्य धातुओं के निर्यात पर रोक का फैसला किया तो वैश्विक कंपनियों में खलबली मच गई और ऑटोमोबाइल उद्योग को विशेष रूप से झटका लगा क्योंकि इलेक्ट्रिक वाहनों में इस्तेमाल होने वाले शक्तिशाली इंजन मैग्नेट नियोडिमियम से बनते हैं। भारत में भी टाटा मोटर्स, महिंद्रा एंड महिंद्रा, बजाज मोटर्स दबाव में आ गए। सुजूकी कंपनी को अपनी स्विफ्ट कार का निर्माण कुछ समय के लिए स्थगित करना पड़ा।
ऐसा नहीं है कि भारत में ये दुर्लभ तत्व नहीं मिलते; भारत के पास तो विश्व में पांचवा सबसे बड़ा दुर्लभ खनिज भंडार है-करीब 6.9 मिलियन मीट्रिक टन। दुनिया में भारत की हिस्सेदारी छह फीसद है। इनमें केरल में थोरियम सैंड के अलावा आंध्र प्रदेश, ओडिशा, राजस्थान में भी इनके भंडार हैं; लेकिन दुनिया भर की आपूर्ति का भारत में एक प्रतिशत हिस्सा ही उत्पादित होता है। इन खनिजों की तलाश, खदान का काम मोटे तौर पर सरकार के जिम्मे रहा है। ब्यूरो ऑफ माइंस और परमाणु ऊर्जा विभाग ये काम करते हैं। खनन और शोधन का काम ‘इंडियन रेयर अर्थ्स लिमिटेड’ के पास रहा है, लेकिन यह विडंबना है कि भारत अभी ऐसी तकनीक, मैकेनिज्म नहीं खड़ा कर पाया है, जो इन खनिजों से मैग्नेट बना कर खुद की जरूरतें पूरी कर सके।
भारत में जितने भी दुर्लभ अर्थ मैग्नेट उपयोग में आते हैं, वे अधिकतर चीन से आयात किए जाते हैं। 2023-24 में भारत ने 2270 टन और पिछले वित्तीय वर्ष में 53,748 मीट्रिक टन मैग्नेट आयात किए थे। इनका करीब अस्सी फीसद चीन से आयात हुआ। इस हालात को देखते हुए भारत ने अपने दुर्लभ खनिजों को रणनीतिक संपत्ति की तरह देखना शुरू कर दिया है।
इसी रणनीति के चलते भारत ने पिछले 13 वर्षो से जापान के साथ चल रहे समझौते को निलंबित करने की प्रक्रिया शुरू कर दी है, जिसके तहत ‘इंडियन रेयर अर्थ्स लिमिटेड’ द्वारा खनन किए गए खनिज विशेषकर नियोडिमियम जापान भेजे जाते थे, लेकिन भारत ने तय किया है कि अपने घरेलू उद्योगों की जरूरतों को प्राथमिकता देगा और चीन पर निर्भरता कम करेगा। भारत के लिए वैश्विक आर्थिक महाशक्ति बनने के लिए यह अब अनिवार्य हो गया है कि दुर्लभ तत्वों की तकनीक में अपने धुर प्रतिद्वंद्वी देश पर निर्भरता को घटाते हुए वह आत्मनिर्भरता के प्रयासों में तेजी लाए।
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