बाल श्रम : जब बचपन बोझ उठाता है
बाल श्रम वैश्विक समस्या है, जो आर्थिक या शैक्षिक ही नहीं, बल्कि गहरा नैतिक, सामाजिक और मानवीय संकट है। जब हम ‘बचपन’ की कल्पना करते हैं, तो हमारे मन में खिलखिलाते चेहरे, स्कूल की घंटी, झूले, किताबें और रंग-बिरंगे सपनों की दुनिया उभरती है।
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लेकिन दुखद है कि 21वीं सदी में भी जब मानवता विज्ञान और तकनीक में चंद्रमा से आगे सोच रही है, तब भी दुनिया के एक बड़े हिस्से में बच्चे अपने जीवन की शुरु आत ही श्रम से करते हैं, शिक्षा से नहीं।
हर साल 12 जून को ‘बाल श्रम के खिलाफ विश्व दिवस’ मनाया जाता है। इसकी शुरुआत 2002 में अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) ने की थी। इसका उद्देश्य वैश्विक स्तर पर बाल श्रम को समाप्त करने के लिए जागरूकता पैदा करना और सरकारों, संगठनों तथा नागरिकों को प्रेरित करना है कि इस अमानवीय प्रथा के खिलाफ संगठित प्रयास करें। वर्ष 2021 की आईएलओ-यूनिसेफ की रिपोर्ट बताती है कि विश्व भर में लगभग 16 करोड़ बच्चे बाल श्रम में संलिप्त हैं, जिनमें ऐसे बच्चे भी हैं, जो खतरनाक कार्य में लगे हैं-जैसे खदानों में खुदाई, जहरीले रसायनों के साथ काम, भारी मशीनरी का संचालन, खेतों में कीटनाशक के बीच काम करना, या घंटों की जबरन घरेलू सेवा। इस संख्या में चिंताजनक वृद्धि कोविड-19 महामारी के बाद देखी गई जब लाखों परिवार आजीविका गंवा बैठे और बच्चों को श्रम में धकेलना उनकी मजबूरी बन गई।
भारत, जो विश्व का सबसे युवा देश है, में भी बाल श्रम की समस्या गहरी जड़ें जमाए हुए है। भारत सरकार के आंकड़ों के अनुसार, देश में 5-14 वर्ष आयु वर्ग के लगभग एक करोड़ बच्चे बाल श्रम में लिप्त हैं। वास्तविक संख्या इससे कहीं अधिक हो सकती है क्योंकि अनेक बच्चे ‘छिपे हुए क्षेत्रों’ जैसे घरेलू कामकाज, असंगठित निर्माण कार्य, होटल-ढाबों, और छोटे पैमाने की औद्योगिक इकाइयों में काम करते हैं, जहां निगरानी और सर्वेक्षण की पहुंच नहीं है।
बाल श्रम का सबसे बड़ा कारण गरीबी, अशिक्षा, सामाजिक असमानता और बाल अधिकारों के प्रति जागरूकता की कमी है। फिर, कई क्षेत्रों में आज भी यह सोच है कि ‘बच्चा कमाएगा तो घर चलेगा’, जो इस समस्या को स्थायी रूप से बनाए रखती है। वैश्विक स्तर पर इस समस्या के समाधान के लिए संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास लक्ष्य (एसडीजी’ज) के तहत लक्ष्य 8.7 को शामिल किया गया है, जिसमें 2025 तक बाल श्रम को पूरी तरह समाप्त करने का संकल्प है। इसी दिशा में अलायंस 8.7 नामक वैश्विक पहल की गई है, जिसमें भारत भी सक्रिय भागीदार है। इस पहल के अंतर्गत सरकारों, संगठनों और निजी क्षेत्रों को एक साथ लाकर बाल श्रम की रोकथाम के लिए ठोस रणनीति विकसित की जाती है। आईएलओ जैसे संगठन बाल श्रम के खिलाफ नीति निर्माण, आंकड़ों का संग्रहण और कार्यान्वयन में सक्रिय हैं।
भारत सरकार ने भी बाल श्रम के उन्मूलन के लिए कई कानूनी और नीतिस्तरीय कदम उठाए हैं। बाल श्रम (प्रतिषेध एवं विनियमन) अधिनियम, 1986 को संशोधित कर 2016 में सख्त बनाया गया, जिसके अनुसार 14 वर्ष से कम आयु के किसी भी बच्चे को किसी भी कार्य में नियोजित करना पूर्णत: अवैध है। 14-18 वर्ष तक के किशोरों के लिए खतरनाक कार्य में नियोजन निषिद्ध किया गया है। इसके अतिरिक्त, सरकार ने राष्ट्रीय बाल श्रम परियोजना के अंतर्गत विशेष प्रशिक्षण केंद्रों की स्थापना की है, जहां बच्चों को शिक्षा के साथ-साथ भोजन, वस्त्र, स्वास्थ्य जांच और परामर्श सेवा उपलब्ध कराई जाती हैं। पेंसिल पोर्टल एक और महत्त्वपूर्ण डिजिटल पहल है, जो शिकायत पंजीकरण और निगरानी में मदद करती है। फिर भी, इन नीतियों के बावजूद जमीनी सच्चाई यह है कि बाल श्रम की पकड़ ढीली नहीं पड़ी है। मुख्यत: इसलिए कि ये योजनाएं अक्सर शहरी केंद्रों तक सीमित रह जाती हैं, जबकि ग्रामीण और पिछड़े इलाकों में स्थानीय स्तर पर निगरानी और संसाधन की कमी है। योजनाओं के क्रियान्वयन में भ्रष्टाचार, सुस्ती और जागरूकता की कमी इनके प्रभाव को सीमित करती हैं।
हालांकि चुनौतियों के बीच कुछ प्रेरणादायक सफलताएं भी सामने आई हैं। उदाहरण के तौर पर, उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर और भदोही जैसे जिलों, जहां कालीन उद्योग में बाल श्रम वर्षो से व्याप्त था, में आईएलओ और स्थानीय गैर-सरकारी संगठनों ने सामूहिक प्रयास से हजारों बच्चों को बाल श्रम से मुक्त कर शिक्षा से जोड़ा। इन बच्चों के माता-पिता को वैकल्पिक रोजगार, सिलाई प्रशिक्षण, सूक्ष्म वित्त ऋण आदि के माध्यम से पुनर्वासित किया गया। झारखंड के गुमला जिले में पंचायत स्तर पर ‘बाल मित्र ग्राम’ जैसी अवधारणाओं ने बाल अधिकारों के प्रति जागरूकता पैदा की और स्कूलों में नामांकन दर को बढ़ाया।
अत्यंत आवश्यक है कि हम बाल श्रम को समाप्त करने के लिए केवल कानूनों पर निर्भर न रहें, बल्कि समाज के हर स्तर पर व्यवहारिक परिवर्तन भी लाएं। हमें ऐसे समावेशी मॉडल की आवश्यकता है जो शिक्षा, पोषण, सुरक्षा और रोजगार को एक साथ जोड़े। यदि माता-पिता को सम्मानजनक रोजगार, सामाजिक सुरक्षा, और बीमा उपलब्ध हो, तो वे अपने बच्चों को काम पर भेजने की बजाय स्कूल भेजने में समर्थ हो सकेंगे। निजी क्षेत्र की कंपनियों को भी अपनी आपूर्ति श्रृंखला में बाल श्रम की जांच कर उसे निष्कासित करने की नैतिक जिम्मेदारी लेनी चाहिए। (कॉरपोरेट सोशल रिस्पॉन्सबिलिटी) के माध्यम से बाल अधिकारों की रक्षा को प्रमुखता मिलनी चाहिए।
आखिरकार, यह केवल सरकार या एनजीओ की जिम्मेदारी नहीं है; यह हम सबका सामाजिक दायित्व है कि बाल श्रम को अस्वीकार्य बनाएं। जब भी हम किसी होटल में बच्चे को काम करते देखें, जब भी किसी निर्माण स्थल पर नन्हे हाथों को ईट उठाते देखें-हमें चुप नहीं रहना चाहिए। शिकायत करनी चाहिए, सवाल उठाना चाहिए, और समाधान का हिस्सा बनना चाहिए। 12 जून, केवल एक तारीख नहीं, बल्कि अवसर है जब हमें रुक कर सोचना चाहिए कि क्या हम सचमुच अपने देश और समाज को उस दिशा में ले जा रहे हैं, जहां हर बच्चा स्कूल जा सके, सपने देख सके, और सम्मानपूर्वक बचपन जी सके। जब तक एक भी बच्चा मजदूरी में लगा है, तब तक हमारा विकास अधूरा है, और हमारा भविष्य अधर में है।
(लेख में विचार निजी हैं)
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