मीडिया कारोबार : आजादी है या जकड़न
मीडिया के करोबार का विश्लेषण करने वाले एक बेहद उलझे हुए प्रश्न से जूझ रहे हैं। एक तरफ तो यह दावा किया जाता है कि पढ़ने और खासतौर से समाचार पत्र और पत्रिका की संस्कृति खत्म हो रही है, लेकिन दूसरी तरफ भारत सरकार ने 2024-2025 में पत्र-पत्रिकाओं की संख्या और उनकी प्रसार संख्या में बढ़ोतरी का दावा किया है।
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एक प्रश्न तो यहां एक दूसरे के विरोध में खड़े दावों का है। दूसरा; सरकार के समाचार पत्र-पत्रिकाओं, टीवी और दूसरे माध्यमों के विस्तार होने का दावा क्या इस दावे की पुष्टि करता है कि देश में लोकतंत्र की जड़े मजबूत हुई है? क्योंकि मीडिया की आजादी की स्थिति पर नजर रखने वाले वैश्विक संगठनों का दावा है कि भारत में मीडिया के आजाद होने की स्थिति में लगातार गिरावट आई है। तब क्या इसका मतलब यह लगाया जा सकता है कि लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार के विकास और विस्तार का मापक संचार माध्यमों की संख्या का बढ़ना तो हो सकता है, लेकिन उसका अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार के उपयोग की स्वतंत्रता का विस्तार के दावे से कोई संबंध नहीं है। तब इसका अर्थ यह भी निकाला जा सकता है कि लोकतंत्र में नागरिकों के अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार का संविधान में उल्लेख तो हो सकता है, लेकिन उस अधिकार का इस्तेमाल मीडिया कंपनियां अपने हितों में करती है।
पूरी दुनिया की तरह भारत में भी प्रिंट की तकनीक पर आधारित संचार माध्यमों ने जन जीवन को गहरे स्तर पर प्रभावित किया है। इतिहास में यह विश्लेषण मिलता है कि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से राजनीतिक सत्ताएं इसे नये तरह के हथियार के रूप में इस्तेमाल करने लगी। भारत में भी संचार माध्यमों के राजनीतिक इस्तेमाल की प्रवृत्ति के बढ़ने को लेकर स्वतंत्रता के बाद से ही चिंता जाहिर की जा रही है। संचार माध्यमों खासतौर से समाचार माध्यमों की राजनीतिक सत्ता के पक्षधर होने की आलोचना होती है।
आपातकाल के बाद से यह आलोचना ज्यादा मुखर हुई है। आंकड़े संख्या की भाषा में प्रस्तुत होते हैं, लेकिन उनका विश्लेषण आंकड़ों के भीतर राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक हालात के कड़वे विवरणों को सतह पर ला देता है। आंकड़ों के रूप में संचार माध्यमों के विस्तार पर नजर डालें तो यह तथ्य काबिले गौर है कि 1857 में तब के भारत में 475 अखबार निकलते थे और उनमें से अधिकांश प्रांतीय भाषाओं में निकलते थे। इन समाचार पत्रों की प्रसार संख्या भी आबादी की तुलना में बेहद कम होती थी। 2025 की तुलना में इस समय छपी सामग्री को पढ़ने की क्षमता अपेक्षाकृत बेहद कम थी, लेकिन स्वतंत्रता के आंदोलन से नागरिकों में अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार के प्रति चेतना इतनी गहरी थी कि अपने अधिकार के इस्तेमाल के लिए संचार माध्यमों पर निर्भरता ज्यादा नहीं बढ़ी। यही वजह हो सकती है 1957 तक रोजाना छपने वाले समाचार पत्रों की तादाद महज 446 थी। भारत सरकार के आंकड़े बताते हैं कि चुनावी वर्षो के आसपास रोजाना के समाचारपत्रों की संख्या तुलनात्मक रूप से ज्यादा हो जाती है। चुनाव के बाद के वर्षो में संख्या में विस्तार की गति कमजोर हो जाती है।
मसलन 1984, 1985 और 1986 में प्रकाशित समाचार पत्रों की संख्या का विश्लेषण किया जा सकता है। इसी तरह 1989 और 1999 में भी समाचार पत्रों की संख्या की गति तेज होने का उदाहरण मिलता है। बाद के चुनाव के इर्द-गिर्द के वर्षो पर नजर डालने के बाद 2014 से पूर्व समाचार पत्रों की संख्या पर नजर डालें तो इसके स्पष्ट संकेत मिलते हैं कि चुनाव के मद्देनजर समाचार पत्रों की उपयोगिता की गति पहले के मुकाबले ज्यादा बढ़ी। 2012-13 में 12109 रोजाना के समाचार पत्र थे और उसके के बाद 2013-2014 में समाचार पत्रों की संख्या 13350 यानी एक हजार से ज्यादा नये पत्र निकले। 2012-2013 में समाचार पत्रों की संख्या का विकास दर 8.43 प्रतिशत है। यह प्रवृत्ति 2024 तक देखी जा सकती है। 2019-2020 के आंकड़े बताते हैं कि अकेले इस वर्ष समाचार पत्रों की संख्या का विकास दर 19.52 प्रतिशत है। देश में राजनीतिक सत्ता आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक सतहों पर आकार लेती है। जाति और घर्म तो राजनीतिक सत्ता के आधार में होते ही हैं, लेकिन जाति और धर्म का भी एक भाषाई आधार देखने को मिलता है। हिन्दी में सबसे ज्यादा 60107 प्रकाशन होने की जानकारी मिलती है। इसके बाद अंग्रेजी में 20175 प्रकाशन हुए मगर इनकी तुलना में कश्मीरी और डोगरी में सबसे कम संख्या देखने को मिलती है।
उर्दू में प्रकाशन की संख्या 7027 है। भाषा के आधार पर समाचार पत्रों पत्रिकाओं के विस्तार का विश्लेषण करें तो इनकी छवि राजनीतिक प्रचारक के रूप में दिखती है। संचार माध्यमों के विस्तार का आधार क्या शैक्षणिक, नागरिकों की आर्थिक स्थितियां, आबादी आदि होती है। आंकड़े इस तरह के तकरे व कसौटी को स्वीकार नहीं करते हैं। उत्तर प्रदेश आबादी में सबसे बड़ा है और वहां सर्वाधिक 22741 प्रकाशन है और दूसरे नंबर वाले महाराष्ट्र में 21522 प्रकाशन है, लेकिन आबादी में बड़ा तीसरा राज्य बिहार में महज 2219 है। मध्य प्रदेश आबादी में पांचवे नंबर पर है, लेकिन सर्वाधिक प्रकाशन वाले राज्यों में तीसरे नंबर पर है। पश्चिम बंगाल आबादी में चौथे नंबर पर है लेकिन वहां आबादी में छठवें नंबर वाले तमिलनाडु के कुल 7596 की तुलना में 9209 प्रकाशन हैं। आबादी में 19वें नंबर वाली दिल्ली देश की एकलौती राजधानी है इसीलिए वह तुलना के गणित से बाहर है।
भाषा की तरह से राज्यों में प्रकाशनों की संख्या की गति आर्थिक नीतियों और उससे जुड़ी राजनीति पर निर्भर करती है। यहां आर्थिक नीतियों को लोगों के आर्थिक हालात के रूप में नहीं पढ़े। प्रकाशनों की प्रसार संख्या के आंकड़े एक अलग कहानी का बयां करते हैं। 2010-11 में 32 करोड़ से ज्यादा प्रसार संख्या है। इनमें रोजाना के पत्रों की प्रसार संख्या साढ़े 17 करोड़ से ज्यादा है। रोजाना छपने वाले समाचार पत्रों की प्रसार संख्या 2023-24 में 21 करोड़ से ज्यादा पहुंच गई जबकि दूसरे संचार माध्यमों का भी तेज गति से विस्तार हुआ है। दूसरा की प्रसार संख्या को चुनावी वर्षो के आसपास भी देखा जा सकता है। क्या प्रसार संख्या सामान्य गति से बढ़ती व घटती है।
(लेख में विचार निजी है)
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