डेथ टेक्नोलॉजी उद्योग : उगता भविष्य या भावनात्मक व्यापार

Last Updated 02 Jun 2025 08:45:55 AM IST

इन दिनों दक्षिण भारत का एक वीडियो खूब देखा जा रहा है। वीडियो एक विवाह समारोह का है, जिसमें दूल्हे के दिवंगत पिता को स्वर्ग से उतरते हुए दिखाया गया है। वह अपनी पत्नी और बेटों से मिलते और समारोह में शामिल होकर भोजन करते हुए भी नजर आते हैं।


डेथ टेक्नोलॉजी उद्योग : उगता भविष्य या भावनात्मक व्यापार

इसके बाद उन्हें फिर ‘स्वर्ग’ प्रस्थान करते दिखाया गया है। वीडियो को देख अनेक लोग हैरान हैं। कई लोग इसे देख भावुक भी हो उठते हैं पर इस वीडियो ने कई सवाल भी खड़े कर दिए गए हैं। दरअसल, यह वीडियो एआई तकनीक से बनाया गया है जिसने डिजिटल क्रांति की तेज लहरों में बहते हुए अब जीवन की अंतिम सीमा यानी मृत्यु को भी तकनीकी प्रयोगों का हिस्सा बना दिया है। ये प्रयोग पश्चिमी देशों में खूब फल-फूल रहे हैं, और इसकी बदौलत वहां बाकायदा एक बड़ा उद्योग खड़ा हो गया है, जिसे ‘डेथ टेक्नोलॉजी इंडस्ट्रीज’ नाम दिया गया है। दक्षिण भारत के वीडियो से पता चलता है कि अब भारत में भी इसके अंकुर फूटने लगे हैं।

बड़ा सवाल यह है कि यह हमारे समाज में उगता हुआ भविष्य है, या भावनात्मक व्यापार? भारत में इसके लिए कारोबारी संभावनाएं तलाशने के लिए  काम हो रहा है। जिस घर में भी मृत्यु होती है, वहां के लोगों को सांत्वना की जरूरत होती है। अपने परिजनों को खो देने वाले लोगों के घर तक जा कर सांत्वना देना हमारे समाज का स्थापित लोकाचार है, जिसमें तकनीक शामिल हो गई है। कई डिजिटल श्रद्धांजलि वेबसाइट्स, ऑनलाइन श्राद्ध और पूजा सेवाएं वगैरह पहले से हैं। इसमें नया अवतार है होलोग्राफिक प्रोजेक्शन, जिसमें मृत व्यक्ति ‘जीवित’ दिखाई देता है। 

बड़ा सवाल यह है कि इस उद्योग के फैलने का समाज पर असर क्या होगा? क्या यह वास्तव में भावनात्मक सुकून का जरिया है, या माननीय संवेदनाओं से खेल कर पैसा बनाने का धंधा? बहरहाल, भले ही इस तकनीक का उद्देश्य श्रद्धा और स्मृति को बनाए रखना है, परंतु इसके दुष्परिणामों को अनदेखा नहीं किया जा सकता। हमारे जीवन दर्शन में मूत्यु स्वाभाविक चरण और शात सत्य है, जिसका घटना लाजिमी है। हमें मृत्यु को स्वीकार कर आगे बढ़ना सिखाया जाता है, फिर भी यदि हम अपने परिजनों को पुनजीर्वित होते देखते हैं, तो सवाल उठता है कि क्या हम मृत्यु को स्वीकार कर पा रहे हैं? 

श्रद्धांजलि अर्पित करना अलग बात है पर जब हम तकनीक से मृतकों को ‘पुनर्जीवित’ करते हैं, तो क्या हम सच में श्रद्धांजलि दे रहे हैं, या अपने मोह और मृत्यु को अस्वीकार करने को तकनीकी जामा पहना रहे हैं? परिजन की मृत्यु को स्मृतियों में सहेजना और उससे प्रेरणा लेना तो समझ में आता है पर उस मृत्यु को ‘न होने’ जैसा दिखाना घट चुके सच को भावनात्मक रूप से अस्वीकार करना ही तो कहा जाएगा। लिहाजा, हमें देखना पड़ेगा कि यह उद्योग कहीं मृत्युरूपी सत्य को ‘अनदेखा’ करने का माध्यम तो नहीं बन रहा?

हम दिवंगत की आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना करते हैं, इसके लिए पारंपरिक धार्मिंक विश्वासों के आधार पर क्रिया-कलाप भी करते हैं। आत्मा को मोक्ष मिले, इसके लिए प्रार्थनाएं की जाती हैं। किसी की मृत्यु के उपरांत हम उसकी आत्मिक शांति के पक्ष में हैं, तो उसे बार-बार वर्चुअली बुलाना, एआई के जरिए उससे ‘संवाद’ करना, क्या आत्मा को बांधने के क्रियाकलाप में नहीं गिना जाएगा? क्या यह सब उस आत्मा की शांति में हस्तक्षेप नहीं होगा? जिस व्यक्ति के मोक्ष की हम कामना कर चुके, उसे इस प्रकार रूबरू कर लेना क्या पुन: आह्वान नहीं कहलाएगा? 

दिवंगतों के होलोग्राम को बार-बार देखना क्या वियोग के दु:ख को बढ़ाएगा नहीं? हमारे देश, जहां मानसिक बीमारियों को बीमारी ही नहीं माना जाता है, में यह तकनीक परेशानी को बढ़ाने का सबब बन सकती है। इससे अनेक वृद्धों, भावुक व्यक्तियों, मानसिक रूप से संवदेनशील और दिमागी तौर पर अस्वस्थ लोगों की समस्याएं बढ़ सकती हैं। होलोग्राम पर मृतकों को बार-बार देखना और चैटबॉट्स के जरिए उनसे ‘बातें करना’ ऐसे लोगों को भ्रमित कर सकता है। डेथ टेक्नोलॉजी इंडस्ट्रीज भारत में अपने आरंभिक चरण में है लेकिन इसके बीज  बोए जा चुके हैं।

मृत्यु शात सत्य है और हमारे यहां इसे स्वीकार कर आगे बढ़ने पर जोर दिया जाता है पर बड़ा सवाल है कि क्या यह उद्योग इस विचार के विरु द्ध नहीं है? निश्चित रूप से यह उद्योग मृत्यु का बाजारीकरण है। बाजारवाद के कंधों पर सवार तकनीक के जरिए श्रद्धा का अर्थ ही बदल जाएगा। जब कोई व्यक्ति नहीं रहेगा एवं एआई के जरिए उसकी उपस्थिति दर्ज की जाएगी और उसके लिए पैसा लिया जाए तो यह श्रद्धा नहीं, एक उत्पाद ही तो कहलाएगा। यह उद्योग उस विचार के विपरीत है जो कहता है कि मिट्टी में मिल जाना ही जीवन की पूर्णता है। क्या यह आत्मा की मुक्ति के विरुद्ध नहीं है? तो क्या इस उद्योग को नकार देना चाहिए? जरूरी नहीं कि हम इसे नकारें। नकारने की बजाय हमें श्रद्धा और तकनीक के बीच संतुलन बनाना चाहिए। 

अमरपाल सिंह वर्मा


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