पाकिस्तान : सैन्य समर्थित सरकार की चुनौती
पाकिस्तान के सैन्य नियंत्रित लोकतंत्र के तौर-तरीकों और संचालन में इतनी जटिलताएं हैं कि इस इस्लामिक देश के निष्पक्ष लोकतंत्रीकरण की कोई गुंजाइश नजर नहीं आती।
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राजनीतिक नेताओं की हत्या, सरकारों की अस्थिरता, पूर्व प्रधानमंत्री समेत प्रभावी शख्सियतों को देश निकाला और कानूनी दांव-पेंचों में उलझाने के षड्यंत्रों में सेना को न्यायपालिका का अभूतपूर्व समर्थन मिलता रहा है। व्यवस्थागत खामियों से जुड़े इस देश के कई इलाकों में कबीलाई और सामंती नेताओं की अपनी समानांतर सरकारें हैं। सेना, जीयो और जीने दो की नीति पर चल कर सामंतवाद को जीवित रखे हुए है। गरीबी और बेरोजगारी से परेशान तथा महंगाई से बेहाल जनता को एक सूत्र में बांधे रखने के लिए भारत विरोध सेना और राजनीतिक दलों की मजबूरी बन गया है।
एक बार फिर यह अभिशप्त लोकतंत्र आम चुनाव के वैश्विक प्रदर्शन को तैयार है। कोई शासन लोकतांत्रिक है या नहीं, इसके मूल्यांकन के लिए स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव पर जोर दिया जाता है। पाकिस्तान के चुनाव लोकतंत्र के मूल अर्थ और उद्देश्यों को झूठलाते नजर आते हैं। धार्मिंक राजनीति, आईएसआई की साजिशों और न्यायपालिका के सैन्य पसंद फैसलों का असर इस चुनाव की दिशा तय कर रहा है। देश के सबसे चर्चित नेता और पूर्व पीएम इमरान खान जेल में हैं, तो दूसरे पूर्व पीएम नवाज शरीफ प्रतिबंधों से अचानक आजाद होकर प्रधानमंत्री पद के खास दावेदार बन गए हैं। यह भी दिलचस्प है कि इसके पहले सैन्य पहरे में हुए आम चुनाव में इमरान की पार्टी तहरीक ए इंसाफ को ऐतिहासिक जीत मिली थी। 2018 के आम चुनाव में इमरान को पाकिस्तान की फौज का बड़ा समर्थन हासिल था। फौज ने समूची चुनावी व्यवस्था का मनमाना संचालन किया। न्यायपालिका पर दबाव बनाकर नवाज शरीफ के चुनाव लड़ने पर ही प्रतिबंध लगा दिया गया था। इमरान सत्ता में आए तो उन्हें विपक्षी दलों ने इलेक्टेड नहीं, बल्कि सेलेक्टेड तक कहा। इमरान सेना के दबाव में इस प्रकार काम करते रहे कि आंतरिक के साथ विदेशी मामलों में भी नाकाम साबित हुए।
दरअसल, पाकिस्तान के आर्थिक हितों और विभिन्न व्यवसायों में सैन्य अधिकारियों की बड़ी भागीदारी और निजी हित रहे हैं। पाकिस्तान की जनता महंगाई से भले त्रस्त हो लेकिन सैनिकों की सुविधाओं से समझौता नहीं किया जा सकता। सरकारें सेना के दबाव में देश का आर्थिक बजट तय करती हैं। देश में सेना और आईएसआई की आलोचना को अपराध माना जाता है। सेना के समर्थन के बिना न तो राजनीतिक दल कार्य कर सकते हैं, और न ही न्यायपालिका का स्वतंत्र संचालन संभव है। इस समय पाकिस्तान के हालात बेहद गंभीर हैं। रोजमर्रा की चीजों की बेतहाशा बढ़ती कीमतों से जनता बेहाल है। विदेशी मुद्रा खत्म होने की कगार पर है, पाकिस्तान के पास आयात के लिए कुछ दिनों और काम चल जाए, बस इतने ही डॉलर बचे हैं। कई फैक्टरियों का सामान पाकिस्तान के बंदरगाहों पर पड़ा है, लेकिन उसे छुड़ाने के लिए व्यापारियों को बैंकों से डॉलर नहीं पा मिल रहे।
पाकिस्तान आसमान छूते विदेशी कर्ज पर ब्याज देने तक के लिए संघर्ष कर रहा है। पाकिस्तान का सैन्य खर्च बहुत अधिक है। बुनियादी ढांचे पर खर्च भी कर्ज में लिए गए धन से ही किया जाता है। इसकी सब्सिडी भी समस्या है। कट्टरपंथ के खतरों और बदतर आंतरिक स्थिति के साथ ही सीमा पर भी पाकिस्तान के हालात बेहद खराब हैं। भारत को लेकर उसकी विद्वेषपूर्ण नीति में कोई बदलाव नहीं आया है, और कश्मीर पर पाकिस्तानी नेताओं का विषवमन बदस्तूर जारी है। अफगानिस्तान में तालिबान के सत्ता में आने के बाद पाकिस्तान में आंतरिक सुरक्षा को लेकर संकट गहरा गया है। अफगानिस्तान के लोग और तालिबान अंग्रेजों द्वारा खींची गई डूरंड रेखा को नहीं मानते। पाकिस्तान से अफगानिस्तान में डॉलर की तस्करी हो रही है। इससे पाकिस्तानी रुपया और कमजोर हो रहा है। हालिया दिनों में पाक-अफगान सीमा पर दोनों देशों के बीच हिंसक संघर्ष बढ़े हैं। तालिबान से दोस्ताना संबंध रखने वाले चरमपंथी संगठन तहरीक ए तालिबान ने पाकिस्तान के कई इलाकों में आतंकी हमले किए हैं। पाकिस्तान की ईरान से लंबी सीमा रेखा है, और अब दोनों देशों में भी आतंकियों को प्रश्रय देने को लेकर तनाव गहराया हुआ है।
पाकिस्तान में चुनावी परिदृश्य को देखते हुए लगता है कि नवाज शरीफ की पार्टी चुनाव जीत सकती है, और वे प्रधानमंत्री बन सकते हैं। नवाज शरीफ भारत से दोस्ताना रिश्तों की कोशिशों के लिए जाने जाते हैं, और उन्होंने समय-समय पर इसका इजहार भी किया है। लेकिन सेना के समर्थन से यदि वे सत्ता में आते हैं तो भारत से उनके संबंध बेहतर करने की कोशिशें कितनी सफल हो पाएंगी, कहा नहीं जा सकता। पाकिस्तान यदि भारत से संबंध बेहतर करे तो उसे गहरा आर्थिक फायदा हो सकता है। सीमा पर शांति भी हो सकती है। ऐसे में किसी भी सरकार पर अवाम का भरोसा बढ़ता है, लेकिन पाकिस्तान की सेना और सामंती वर्ग के शासन पर एकाधिकार के लिए जरूरी है कि जनता सुख-सुविधाओं और आर्थिक प्रगति से दूर रहे। पाकिस्तान में संचालित कई परियोजनाओं और आधारभूत ढांचे के निर्माण के बड़े ठेकों में सैन्य अधिकारी या इनके परिवार संलग्न रहते हैं। अन्य देशों से सामान आयात कर पाकिस्तान में बेचने से यह बड़ा वर्ग लाभान्वित होता है।
पाकिस्तान में राजनीतिक पार्टियों को व्यवस्था में पूरी तरह से हावी न होने देने को लेकर सेना सतर्क रही है। यही कारण है कि कोई भी सरकार मुश्किल से ही अपना कार्यकाल पूरा कर पाती है। चुनी हुई सरकार को सत्ता से हटाने के लिए सेना विपक्षी दलों का सहारा भी ले लेती है, देश में व्यापक विरोध प्रदशर्न होते हैं, और सेना देश की आंतरिक शांति भंग होने का खतरा बताकर सत्तारूढ़ पार्टी की सरकार को अपदस्थ कर देती है। पाकिस्तान का कोई भी प्रधानमंत्री सेना के प्रभाव को दरकिनार कर भारत से मजबूत संबंधों का दांव नहीं खेल सकता। बहरहाल, सैन्य समर्थित सरकार एक बार फिर पाकिस्तान में आने जा रही है, ऐसे में भारत से संबंधों के सामान्यीकरण या बेहतर होने की आशा करना कोरी मूर्खता ही हो सकती है।
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