सामयिकी : युद्ध पार युद्ध के खतरे
अभी रूस-यूक्रेन युद्व की ज्वाला भभक ही रही थी कि मध्य-पूर्व जैसे अति संवेदनशील क्षेत्र में युद्ध भड़क उठा है। बेहद विनाशकारी शस्त्रों की उपलब्धि के साथ ही युद्ध से विनाशलीला का खतरा निरंतर बढ़ता ही गया है।
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प्रथम विश्व युद्ध, द्वितीय विश्व युद्ध और वियतनाम युद्ध में जितनी कुल विस्फोटक सामग्री का उपयोग हुआ था, उससे 700 गुणा विस्फोटक शक्ति आज के नाभिकीय हथियारों के भंडार के पास है। विश्व में प्रति वर्ष 2000 अरब डॉलर का सैन्य खर्च हो रहा है, जबकि गरीब देश बुनियादी जरूरतें उपलब्ध कराने के लिए जरूरी 200 अरब डॉलर के लिए तरस रहे हैं।
युद्ध से विनाश की आशंका को रोकने के लिए विश्व में कई रूपों में और कई स्तरों पर एक शांति आंदोलन उभर रहा है। यह विश्व स्तर पर कोई संगठित आंदोलन नहीं है अपितु विभिन्न स्थानों पर अपने-अपने क्षेत्र की परिस्थितियों के अनुसार लोग तनाव और युद्ध को रोकने के लिए संगठित हो रहे हैं। तानाशाहियों का विरोध कर रहे हैं, लोकतंत्र को सशक्त करने का प्रयास कर रहे हैं। तानाशाहियों में युद्ध और गृह युद्ध का खतरा अधिक रहता है। अत: लोकतंत्र के लिए प्रयास से युद्ध रोकने में भी सहायता मिलेगी। शांति आंदोलन सार्थक तो बहुत है पर अभी काफी कमजोर है। इसके रास्ते में अनेक कठिनाइयां हैं। अपने प्रभाव क्षेत्र को बढ़ाने के लिए इसे अन्य सार्थक आंदोलनों से संबंध बनाने चाहिए और आपसी सहयोग की संभावनाएं तलाशनी चाहिए।
इतना तो स्पष्ट है कि विश्व में युद्ध का खतरा और सैन्य खर्च कम होने से लोगों की जरूरतें पूरी करने के लिए अधिक धन उपलब्ध होगा किन्तु इसके अतिरिक्त युद्ध की संभावना कम होने के और भी अनेक लाभ होंगे जिनके आधार पर अन्य सार्थक आंदोलनों और शांति आंदोलन में परस्पर गहरा सहयोग स्थापित किया जा सकता है। शांति आंदोलन का महिला आंदोलन से नजदीकी सहयोग हो सकता है क्योंकि महिलाओं पर अत्याचार बड़े पैमाने पर युद्ध और आंतरिक कलह के दौरान ही होते हैं। द्वितीय विश्व युद्ध में आतंक फैलाने के लिए और जीत का जश्न मनाने के लिए रेप के असंख्य उदाहरण हैं। दोनों ओर की सेनाओं ने यह जुल्म किया पर सबसे अधिक जर्मनी और जापान की सेनाओं ने किया। कड़वी सच्चाई यह है कि अधिकांश युद्धों में कम या अधिक हद तक महिलाओं पर यौन अत्याचार हुए हैं।
हाल में युद्ध के रूप में कुछ ऐसे बदलाव आए हैं जिससे महिलाओं के पीड़ित होने की संभावना पहले से बढ़ गई है। संयुक्त राष्ट्र संघ के आंकड़ों के अनुसार युद्ध में सैनिकों की अपेक्षा जनसाधारण के अधिक संख्या में मरने की प्रवृत्ति निरंतर बढ़ रही है, और स्थिति यह है कि युद्ध में होने वाली 90 प्रतिशत मौतें आम नागरिकों की होती हैं। युद्ध के इस बदलते रूप में महिलाओं के उत्पीड़न की संभावना कहीं अधिक हो गई है। सामाजिक बिखराव, परिवार की टूटन और अपराधों को रोकने के प्रयास भी इन समस्याओं के बढ़ने के साथ अभियान या आंदोलन का रूप अनेक देशों में ले रहे हैं। इस अभियान की भी शांति आंदोलन से सामंजस्य करने की बहुत संभावनाएं हैं। युद्ध अपने आप में सामाजिक बिखराव का बड़ा कारण है। ऐसी परिस्थितियां पैदा करता है जिनसे कितने ही परिवारों को अलग होना पड़ता है।
सामान्य परिस्थितियों में भी सेना के सदस्यों को प्राय: परिवार से काफी समय के लिए दूर रहना पड़ता है। विशेषकर जिन देशों की सेनाओं ने दमनकारी कार्यवाहियों में अधिक हिस्सा लिया है, उनके सदस्यों के घरेलू जीवन में भी हिंसक प्रवृत्तियां या अन्य विकृतियां आने की संभावना रहती है। आंकड़ों के अनुसार अमेरिका में पत्नी के प्रति हिंसा की जो दर अन्य परिवारों में है, उससे दुगुनी दर अमेरिकी सैनिकों के परिवारों में है। युद्ध, आंतरिक कलह और दंगों से जो अराजकता फैलती है, उसमें अपराधी तत्वों को आगे आने और नेतृत्व की भूमिका संभालने का मौका मिलता है, जैसा भारत में सांप्रदायिक हिंसा के फैलाव के समय बार-बार देखा गया है। युद्ध के समय जिन हिंसक प्रवृत्तियों को उकसाया जाता है, वे बाद में अपराध बढ़ाने का कार्य कर सकती हैं। यह संबंध एकतरफा नहीं है। जिस समाज में अपराध बढ़ते हैं, परिवार टूटते हैं, महिलाओं पर आधिपत्य और उनके खिलाफ अपराधों में वृद्धि होती है, उस समाज में ऐसे मनोवैज्ञातिक रुझान और प्रवृत्तियां बढ़ती जाती हैं जिनसे युद्ध के अनुकूल परिस्थितियों को हवा मिलती है। इन कारणों से सामाजिक बिखराव को रोकने के अभियान और विश्व शांति आंदोलन में आपसी सहयोग लाजमी है।
शांति आंदोलन और पर्यावरण आंदोलन का परस्पर सहयोग उपयोगी सिद्ध हो सकता है। मथियास फिंगर ने युद्ध और सैन्य गतिविधियों से संबंधित पर्यावरणीय विनाश पर अपने बहुचर्चित अनुसंधान पत्र में बताया है-विश्व में 10 से 30 प्रतिशत तक पर्यावरणीय विनाश के लिए सैन्य गतिविधियां जिम्मेदार हैं। 6-10 प्रतिशत तक वायु प्रदूषण की जिम्मेदारी उनकी है। खतरनाक रासायनिक और नाभिकीय अवशेषों तो सबसे अधिक विश्व की सेनाओं द्वारा ही छोड़े जाते हैं। वियतनाम में 50,000 एकड़ मैनग्रोव वनों से लगभग 20 लाख लोगों को किसी न किसी तरह का वन-उत्पाद मिलता था। अमेरिकी विमानों ने इन पर जहरीले रसायन गिराकर 90 प्रतिशत वृक्षों का विनाश कर दिया। इस युद्ध के दौरान वियतनामी लोगों और वहां के पर्यावरण पर 1 करोड़ 30 लाख टन बमों के साथ 7 करोड़ 20 लाख लीटर वनस्पतिनाशक भी गिराए गए। इस कारण युद्ध के बाद भी अनेक गंभीर बीमारियां और स्वास्थ्य समस्याएं फैलती रहीं।
खाड़ी युद्ध (1991) के दौरान तेल के कुंओं में भीषण अग्निकांड हुए। इस कारण उस समय हर दिन 50000 टन सल्फर डायआक्साइड वायुमंडल में छोड़ी जा रही थी, जो एसिड वष्रा की प्रमुख वजह है। यहां का धुआं वायुमंडल में 7 किमी. ऊपर तक देखा गया और इस स्थान से 2000 किमी. दूर तक इसका फैलाव हुआ। वैज्ञानिकों ने बताया कि इसका दुष्परिणाम भारत के खेतों तक पहुंच सकता है। युद्ध बड़ा प्रदूषक है। जहां पर्यावरण का विनाश बढ़ता है, और इस कारण खाद्य संकट, जल संकट आदि उत्पन्न होते हैं, वहां युद्ध और हिंसा की संभावना बढ़ जाती है। पशु-पक्षियों और जीव-जंतुओं के प्रति निर्दयता कम करने और उनकी रक्षा करने का आंदोलन भी अनेक देशों में जोर पकड़ रहा है। मूल भावना यह है कि सभी को जीने का हक है, सभी को पीड़ा होती है जिसे कम करने के प्रयास होने चाहिए। शांति आंदोलन की मूल संवेदना भी यही है।
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