कॉप27 : कितनी चुनौती और किससे
विश्व में कहीं गर्मी अधिक पड़ रही है, तो कहीं बहुत अधिक सर्दी। कहीं इतनी वर्षा हो रही है कि कई देश बाढ़ से परेशान हैं।
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सारे संसाधन बौने साबित हो रहे हैं, वहां पानी ही पानी है। पहाड़ों पर लैंड स्लाइडिंग के मामले आम हो रहे हैं। कहीं इलाके सुखे से ग्रस्त हैं। समुद्र का तल भी कहीं घट-बढ़ रहा है, तो कहीं मौसम में भारी उथल-पुथल से मौसम का तापमान ऊपर-नीचे हो रहा है। कोहरा और तूफान के मामले भी बेहद गंभीर हैं। जंगलों में आग लगना आम हो रहा है। वैश्विक स्तर पर इस तरह असामान्य हो रहे भूमंडलीय तापमान और मौसम में दीर्घकालीन बदलाव, वैश्विक चिंता के विषय बने हुए हैं।
इसी वैश्विक समस्या को लेकर मंथन के लिए संयुक्त राष्ट्र की वार्षिक जलवायु परिवर्तन कॉन्फ्रेंस-कॉप27-6 से 18 नवम्बर के बीच मिस्र के शर्म अल-शेख शहर में हो रही है। मिस्र में होने वाले संयुक्त राष्ट्र के जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में वैश्विक तापमान की बढ़त को 1.5 डिग्री सेल्सियस से कम पर रोकने के लिए फंड जुटाने पर भी चर्चा होगी। भारत के पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव भी 7 नवम्बर को इस सम्मेलन को संबोधित करेंगे। वह 18 सदस्यीय भारतीय प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व करेंगे।
इतिहास के पन्नों में जाएं तो वैश्विक तापमान की बढ़ोतरी और मौसम के बदलावों को लेकर संयुक्त राष्ट्र में 1992 में चिंता की गई थी। पेरिस समझौते के जरिए जलवायु परिवर्तन और इसके नकारात्मक प्रभावों से निपटने को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चा, सहयोग और समाधान की आवश्यकता पर जोर दिया गया। विश्व भर में चिंता का विषय है कि बढ़ते वैश्विक तापमान और मौसम में अचानक परिवर्तन प्राकृतिक और मानवीय, दोनों गतिविधियों से प्रभावित हैं। माना गया है कि जीवन स्तर में बेहतरी की दौड़ में जीवाश्म ईधन के अनियंत्रित प्रयोग और औद्योगीकरण का जलवायु परिवर्तन पर विशेष प्रभाव पड़ा है। इसमें कोई दो राय नहीं कि इस समस्या में सबसे बड़ा योगदान विकसित देशों का है, जो वैश्विक तापमान को कम करने के लिए सीधे तौर पर न तो अपने जीवन स्तर को पर्यावरण के अनुकूल बदलने को तैयार हैं, और न ही विकासशील और गरीब देशों को खुलकर आर्थिक मदद देने के लिए ही सहमत दिखाई देते हैं।
एक आंकड़े पर गौर करें तो विकसित देशों की आबादी पूरे विश्व की करीब 17 प्रतिशत है, लेकिन कार्बन उत्सर्जन की बात करें तो विकसित देश कुल उत्सर्जन का 60 प्रतिशत तक कार्बन उत्सर्जन करते हैं। वहीं भारत की आबादी पूरे विश्व की लगभग 17 प्रतिशत है, लेकिन भारत कुल वैश्विक उत्सर्जन का मात्र 4 से 5 प्रतिशत कार्बन उत्सर्जन करता है। कॉप26 में भारत ने इस आंकड़े को रख कर जलवायु परिवर्तन के प्रति वैश्विक मंच पर भारत की प्रतिबद्धता रखी थी। कहा था कि इसके पीछे एक ही कारण है कि भारतीय जीवन शैली विकसित देशों की अपेक्षा पर्यावरण के प्रति अधिक अनुकूल है, और विकसित देशों के बराबर आबादी होने के बावजूद उनसे कम कार्बन उत्सर्जित करती है। हालांकि इस समस्या के सबसे अधिक जिम्मेदार विकसित देश हैं, फिर भी वे जलवायु परिवर्तन की समस्या का ठीकरा विकासशील देशों पर ही फोड़ते हैं।
वैश्विक स्तर पर जलवायु परिवर्तन में सुधार के लिए विकासशील देशों के वित्त पोषण के लिए कॉप27 में गरीब और विकसित देशों की मदद के लिए इस बार 100 अरब डॉलर यानी करीब 82 खरब रुपये की राशि देने का संकल्प टूटने समेत कई अन्य जलवायु में सुधार लाने की योजनाओं के कार्यान्वयन के मुद्दे भी इसमें शामिल हैं। जलवायु परिवर्तन पर कॉप27 में संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन कॉप26 के परिणामों को भी रखा जाएगा जो पिछले साल ब्रिटेन के ग्लासगो शहर में हुई थी।
जलवायु परिवर्तन के संकट से निपटने के लिए कॉप27 महासम्मेलन में महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर तो चर्चा होगी ही, साथ ही यह भी देखा जाएगा कि ग्रीनहाउस गैसों उत्सर्जन को तत्काल कम करने के लिए अभी तक सभी देशों ने अपनी योजनाओं में कितना लक्ष्य प्राप्त किया और क्या रह गया है जैसे मुद्दों पर भी गंभीरता से मंथन होगा। संयुक्त राष्ट्र की एमीशन गैप रिपोर्ट-2022 को देखें तो ग्लोबल वार्मिंंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने के लिए सभी देशों को एकजुट होकर 2030 तक वर्तमान ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में 45 प्रतिशत की कटौती करने की जरूरत बताई गई है जबकि 2 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने को 30 प्रतिशत कटौती करने की आवश्यकता होगी। इस रिपोर्ट की चिंताओं पर आगे जलवायु परिवर्तन की समस्या से निपटने को नये और प्रभावी कदम उठाने का निर्णय भी कॉप27 में लिया जाना है।
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