श्रद्धांजलि : आसान नहीं मुलायम होना

Last Updated 11 Oct 2022 01:40:43 PM IST

ग्रामीण परिवेश से निकले ठेठ देहाती और जुझारू नेता मुलायम सिंह यादव ने कड़े संघर्ष के बाद उत्तर प्रदेश ही नहीं, बल्कि देश की राजनीति में जो मुकाम हासिल किया उसकी दूसरी नजीर बमुश्किल ही मिलेगी।


श्रद्धांजलि : आसान नहीं मुलायम होना

हालांकि यह कतई मुश्किल है कि एक नेता अपने राजनीतिक सफर के दौरान जो सोचे, उसे वह मुकाम वैसे ही हासिल हो जाए, लेकिन मुलायम सिंह यादव अपनी विचारधारा और राजनीतिक सोच के मामले में अपने दौर के कई नेताओं से ज्यादा सफल रहे हैं।

नवम्बर 1992 में समाजवादी पार्टी के गठन से पूर्व एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था कि उनका लक्ष्य इस पार्टी को जन-जन की पार्टी बनाना है, जिसमें गरीबों, मजदूरों, दलितों, किसानों, पिछड़ों, अल्पसंख्यकों, महिलाओं, नौजवानों व छात्रों के सवाल सबसे ऊपर होंगे। आगे चलकर उन्होंने अपने इस एजेंडे को बखूबी जमीन पर उतारा। उसी की बदौलत वे तीन बार खुद देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। एक बार पार्टी के खुद के बूते 2012 में पूर्ण बहुमत की सरकार बनी और गठन के तीन दशक बाद भी समाजवादी पार्टी अपने जमीनी संगठन व बड़े कार्यकर्ताओं के आधार पर अपनी मजबूत उपस्थिति बनाए हुए है। वैसे तो देश में किसी राजनीतिक दल का गठन कोई मुश्किल काम नहीं है, लेकिन उसे विचारधारा और रणनीतिक समझ के साथ निरंतर आगे बढ़ाना ज्यादा कठिन है। देश के राष्ट्रीय स्तर के कांग्रेस और भाजपा जैसे राजनीतिक दलों को छोड़ दें तो ज्यादातर क्षेत्रीय दलों के बनने और फिर खत्म हो जाने के ढेरों उदाहरण मिल जाएंगे।

कम ही ऐसे क्षेत्रीय क्षत्रप मिलेंगे, जिन्होंने विचारधारा और जनता के बीच अपनी पैठ के बल पर राजनीतिक दलों का गठन किया जो अपने प्रदेश ही नहीं, बल्कि राष्ट्रीय राजनीति में दमदार उपस्थिति दर्ज कराई है। मुलायम सिंह उन्हीं नेताओं में से एक थे, लेकिन उनमें भी उनका कद काफी ऊंचा रहा है। उत्तर प्रदेश में अब से तीन दशक पहले जन्मी समाजवादी पार्टी भी उन्हीं क्षेत्रीय दलों में से एक है, जिसने न सिर्फ प्रदेश, बल्कि एक समय राष्ट्रीय राजनीति में भी अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज कराई है तो यह मुलायम सिंह यादव का ही कौशल रहा है। मुलायम में लोगों को साथ लेकर चलने, उन्हें जोड़कर रखने की अद्भुत क्षमता थी। पांच दशक से अधिक के अपने सक्रिय राजनीतिक सफर के दौरान अपनों से रिश्ते निभाने और विरोधियों को पटकनी देने के मामले में मुलायम का कोई सानी नहीं रहा। यही वजह रही कि उत्तर प्रदेश से लेकर राष्ट्रीय राजनीति तक में दूसरे दलों के नेता मुलायम का लोहा मानते थे। रही बात संबंधों की, तो शायद ही कोई दल हो जिनके प्रमुख नेताओं से उनके रिश्ते न हों और वे उनका सम्मान न करते हों। उत्तर प्रदेश के इटावा जिले के सैफई में नवम्बर 1939 में जन्मे मुलायम सिंह यादव सिर्फ  15 साल की उम्र में ही डॉ. राम मनोहर लोहिया के संपर्क में आ गए थे। डॉ. लोहिया उस समय देश में सामाजिक परिवर्तन के महानायक के रूप में आगे आकार काम कर रहे थे। उसी दौरान मुलायम में यह समझ पैदा हो गई थी कि देश में गैर बराबरी व पिछड़ापन सबसे बड़ी समस्या है और उसके छुटकारा पाने के लिए लगातार आंदोलन ही एक मात्र रास्ता है।

देखा जाए तो मुलायम सिंह यादव न सिर्फ  चौबीसों घंटे राजनीति करने वाले नेता थे, बल्कि उन्होंने जनता के सवालों पर हर समय संघर्ष को तरजीह दी। आंदोलन तो जैसे उनमें रच-बस गया था। उन दिनों देश में कांग्रेस की सरकार हुआ करती थी। कांग्रेस के विरोध से परवान चढ़ी उनकी राजनीति इस कदर आगे बढ़ी कि उन्हें कई बार जेल जाना पड़ा। इमरजेंसी के दौरान भी वे 19 महीने जेल में ही रहे थे। मुलायम 1967 में पहली बार संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी से विधायक बने। बाद में भारतीय क्रांति दल, लोकदल और जनता दल, जनता दल-समाजवादी जैसे दलों के साथ उन्होंने अपना राजनीतिक सफर आगे बढ़ाया, लेकिन लेकिन 1989 में जनता दल में जिस खींचतान के बीच वे पहली बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। उनके मुख्यमंत्री रहते ही अयोध्या आंदोलन उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती बनकर उभरा।

केंद्र में ‘मंडल कमीशन’ की रिपोर्ट लागू होने के बाद उभरे मतभेदों के चलते वीपी सिंह की सरकार गिर गई, लेकिन जनता दल के दो फाड़ होने के बावजूद मुलायम ने कांग्रेस के समर्थन से उत्तर प्रदेश में अपनी सरकार बचा ली और फिर नवम्बर 1992 में अपनी खुद की पार्टी बना ली। किशोरावस्था से लेकर राजनीति में खास मुकाम हासिल करने तक मुलायम सिंह ने जिन गरीब-गुरबों, पिछड़ों-दलितों, किसानों अल्पसंख्यकों की हिमायत वाली राजनीति की थी, समाजवादी पार्टी बनी तो उस पर उसकी पूरी छाप थी। सभी वगरे, समुदायों की भागीदारी थी। प्रदेश में कुर्मी बिरादरी में मजबूत पकड़ रखने वाले बेनी प्रसाद वर्मा समाजवादी पार्टी में मुलायम के बाद दूसरे नंबर के नेता थे। अल्पसंख्यक वर्ग के आजम खां पार्टी में खास स्थान रखते थे। कुछ वर्षो के कांग्रेसी पड़ाव को छोड़ दें तो बेनी प्रसाद वर्मा ने 44 साल तक लगातार मुलायम के साथ ही राजनीति की। ‘छोटे लोहिया’ के नाम से चर्चित जनेर मिश्र, बिहार के समाजवादी नेता रघु ठाकुर समेत कई दूसरे समाजवादियों को भी उन्होंने अपनी पार्टी से जोड़कर रखा। पश्चिमी उत्तर प्रदेश से रामशरण दास गुर्जर, रमाशंकर कौशिक तो पूर्वी उत्तर प्रदेश से ब्रजभूषण तिवारी, मोहन सिंह, माताशंकर पांडेय, रेवती रमण सिंह भी खास सहयोगी रहे। पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह, चौधरी देवीलाल, चंद्रशेखर, माकपा के हरकिशन सिंह सुरजीत और पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर समेत कई दूसरे राष्ट्रीय नेताओं के साथ उन्होंने राजनीति में खास भूमिका निभाई।

भाजपा नेता व तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से लेकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तक से निजी संबंधों को उन्होंने बखूबी निभाया, तो दूसरी तरफ सोनिया गांधी से कुछ मुद्दों पर नाइत्तेफाकी के बावजूद मनमोहन सिंह की अगुवाई वाली केंद्र की संप्रग सरकार को दो बार समर्थन भी दिया। जमीनी नेता के रूप में उनकी पहचान जगजाहिर है। दस्यु सुंदरी रही फूलन देवी को भी मुख्यधारा की राजनीति में लाकर अपनी पार्टी से संसद लोक सभा सदस्य बनवाया। राजनेताओं के अलावा पत्रकारों का भी एक बड़ा वर्ग रहा है, जिससे मुलायम ने न सिर्फ  बेहतर रिश्ते रखे, बल्कि उनके हर दुख-दर्द में साथ खड़े मिले।

राजकेश्वर सिंह


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