हिमस्खलन : हिमालय की संवेदनशीलता समझनी होगी
मनुष्य को प्रकृति के अनुरूप व्यवहार करना पड़ेगा यदि वह प्रकृति पर विजय व फतह करने जैसी घमंडी हरकतों पर उतर आएगा तो ईश्वर द्वारा भेंट की गई प्रकृति से उसे जल्दी ही हाथ धोना पड़ सकता है।
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यह वाकया इसलिए महत्त्वपूर्ण है कि उत्तराखंड में अभी भारी बारिश पूरी ही नहीं हुई कि अक्टूबर के प्रारंभ तक बीते सप्ताह भर में हिमाच्छादित पर्वतों से चार बार हिमस्खलन की घटनाएं सामने आई है। इसमें से एक बहुत दर्दनाक और बेचैन करने वाला हादसा सामने आया है कि नेहरू पर्वतारोहण संस्थान उत्तरकाशी के 58 प्रशिक्षक एवं प्रशिक्षणार्थी 4 अक्टूबर को लगभग 5700 मीटर की ऊंचाई पर स्थित द्रौपदी का डंडा-2 पर्वत चोटी के बेस कैंप में 25 सितम्बर को पहुंच गए थे जहां पर एडवांस और बेसिक कोर्स का प्रशिक्षण दिया जा रहा था, जिसमें हिमाचल, उत्तराखंड, दिल्ली, पश्चिम बंगाल, कर्नाटक, असम, हरियाणा, तेलंगना, गुजरात, उत्तर प्रदेश आदि के प्रशिक्षार्थी और प्रशिक्षक मौजूद थे।
4 अक्टूबर की सुबह को पर्वतारोहण के दौरान हिमस्खलन होने से 29 लोग लापता हो गए। खराब मौसम के चलते केंद्र और राज्य सरकार की कड़ी मशक्कत के बाद शव निकाले जा सके। क्योंकि यह स्थान इतनी ऊंचाई पर है कि वहां हर क्षण मौसम करवट लेता रहता है। तीव्र ढलान वाले पर्वतों से बर्फ गिरती रहती है। चारों ओर भयानक बर्फीला तूफान आता है, जिसके कारण उसके ऊपर से गुजरने वाले लोगों का जीवन कभी भी संकट में पड़ सकता है। इसी तरह की जोखिम उठाते वहां गए पर्वतारोहियों ने अपना जीवन हमेशा के लिए स्वाहा कर दिया है। इसमें देशभर के राज्यों से आए राष्ट्रीय कैडेट कोर, पुलिस तथा सेना से संबंधित जवान और ऐसे युवा जिन्हें अभी देश की सेवा के लिए आगे काम करना था। उनकी इस असमय मौत से पूरा देश दुखी है। बताया जाता है कि पर्वतारोहण प्रशिक्षण के दौरान इस तरह की बड़ी दुर्घटना पहले नहीं हुई थी। देश में उत्तरकाशी के अलावा गुलमर्ग, दार्जिलिंग, डोरांग, मनाली में भी ऐसे सरकारी पर्वतारोहण संस्थान हैं, जहां युवाओं को बेसिक, एडवांस, मैथड ऑफ इंस्ट्रक्शन, सर्च एंड रेस्क्यू के प्रशिक्षण दिए जाते हैं।
भीड़ इतनी बढ़ जाती है कि इसमे आवेदन करने वाले प्रशिक्षार्थियों को 2-2 वर्ष बाद भी प्रशिक्षण में भाग लेने का मौका मिलता है। प्रशिक्षण के दौरान युवाओं को पर्वतारोहण से जुड़े आधुनिक तकनीकी, उपकरण और इसके उपयोग के बारे में प्रशिक्षित किया जाता है। द्रोपदी पर्वत पर जब यह घटना घटी तो अनेकों लोगों ने बयान दिए कि हिमालय के पर्वतों को नंदा, त्रिशूल, कैलाश, चौखंबा, सागरमाथा, गौमुख, आदि ऐसे नामों से पुकारा जाता है, जिसके सामने नतमस्तक होकर ही मनुष्य को पर्वतों को जीतने का पल्रोभन त्याग देना चाहिए। बदलती जलवायु के कारण भी हिमालय क्षेत्र के पर्यावरण पर लगातार बदलाव दिखाई दे रहे हैं। जहां कभी भी अनहोनी घटना का सामना करना पड़ सकता है। वैज्ञानिक इस हादसे के बारे में बता रहे हैं कि अगस्त-सितम्बर में हुई भारी बारिश के कारण हिमस्खलन बढ़ा है। अनेकों पर्वत चोटियों पर इस दौरान भारी हिमपात भी हुआ है।
सीधे और तीव्र ढलान वाले हिमाच्छादित पर्वतों की चोटियों को पार करना जोखिम भरा हो सकता है। इसके बावजूद हिमालय की ऊंचाई तक पहुंचने की साहसिक प्रतियोगिता में भाग लेने वाले युवा अपने जीवन की उतनी परवाह नहीं करते हैं, जितनी कि उन्हें चोटी पर चढ़कर फतह हासिल करने की तमन्ना मन में रहती है। देश में हिमस्खलन की पहले भी ऐसी घटनाएं हुई हैं, जिसमें अनेक लोगों ने जान गंवाई है। 6 मार्च 1979 और 5 मार्च 1988 को जम्मू कश्मीर में 307 लोग हिमस्खलन की चपेट में आकर मर गए थे। 3 सितम्बर 1995 को हिमाचल प्रदेश में ग्लेशियर टूटने से नदी में बाढ़ जैसी स्थिति आ गई थी, जिससे भारी नुकसान हुआ है। 2 फरवरी 2005 को फिर जम्मू-कश्मीर में ही 278 लोगों की मौत हुई है। इसी तरह फरवरी 2016 को सियाचिन क्षेत्र में हिमस्खलन से 10 सैनिकों की मौत का आंकड़ा सामने आया था।
2019 में नंदा देवी आरोहण के दौरान भी सात पर्वतारोहियों की मौत हो गई थी। वर्ष 2017 में नंदा देवी अभियान में आईटीबीपी के 7 जवान लापता हुए थे। 2019 में भी मुनस्यारी से नंदा देवी ईस्ट आरोहण के लिए निकले विदेशी पर्वतारोहियों का एक दल हिमस्खलन की चपेट में आए थे, जिनके शव बहुत देर में बरामद किए जा सके। 17 फरवरी 2021 को चमोली जिले के रैणी गांव के ऊपर ग्लेशियर टूटने से 206 लोग मारे गए थे। हिमालय में यह सिलसिला थमने वाला नहीं है। अत: केदारनाथ क्षेत्र में इस दौरान तीन बार हिमस्खलन की घटना ने वैज्ञानिकों की चिंताएं बढ़ा दी है। हिमालय की संवेदनशीलता को अब बार-बार नहीं भुलाया जा सकता है। यहां जाने वाले पर्वतारोहियों, पर्यटकों को समझना पड़ेगा और उनको जलवायु अनुकूल एक्शन प्लान बनाना होगा। पर्वतारोहण संस्थान को भी अपने युवाओं के प्रशिक्षण के लिए कम खतरे वाले पर्वत श्रेणियों की पहचान करनी होगी, जहां उन्हें अनुकूल माहौल ़मिले वरना लोग पर्वतों को जीतने के नाम पर यूं ही जान गंवाते रहेंगे।
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