भारत राष्ट्र समिति : विपक्षी एका में फांस
सियासत की खासियत यही होती है कि इसमें शामिल सभी पक्ष गतिशील होते हैं। फिर चाहे वह सत्तापक्ष हो या फिर विपक्ष। यदि कोई जगह खाली होती है तो उसे भरने के लिए एक प्रतिस्पर्धा होती ही है।
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देश में मौजूदा दौर में भी यह दृश्य देखने को मिल रहा है। वजह बहुत साफ है कि लंबे समय तक देश में राज करने वाली कांग्रेस के खेमे से कोई सकारात्मक संकेत नहीं मिल रहे। यहां तक कि राहुल गांधी की यात्रा से भी उनकी पार्टी को कोई बड़ा फायदा अभी तक मिलता नहीं दिख रहा है। उधर शीर्ष नेतृत्व को लेकर चल रही उठापटक ने आमजनों के मध्य कांग्रेस के संबंध में प्रतिकुल संदेश दिया है।
ऐसी परिस्थिति में यह तो साफ है कि सियासत जड़ नहीं रहेगी। इसका ताजा प्रमाण तेलंगाना के मुख्यमंत्री और तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) के प्रमुख के. चंद्रशेखर राव (केसीआर) ने अखिल भारतीय नई पार्टी भारत राष्ट्र समिति (बीआरएस) के गठन का ऐलान करके दे दिया है। जाहिर तौर पर सवाल उठेंगे ही, क्योंकि हाल ही में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भी राष्ट्रीय राजनीति में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने का अभियान शुरू किया। इसके पहले उन्होंने भाजपा से किनारा किया और अपने प्रतिद्वंद्वी रहे राष्ट्रीय जनता दल के साथ मिलकर फिर से सरकार का गठन किया। वहीं तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन भी राष्ट्रीय राजनीति में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने की कोशिश करते दिख रहे हैं।
उनके पहले ममता बनर्जी ने राष्ट्रीय राजनीति में हस्तक्षेप करने की कोशिशें की। इनके अलावा पंजाब में अपनी पार्टी की जीत से उत्साहित दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल भी गैर-भाजपाई और गैर-कांग्रेसी खेमा बनाने के लिए प्रयासरत हैं। अब जब केसीआर ने अपनी नई पार्टी के गठन का ऐलान कर दिया है तो सवाल उठता है कि क्या इससे विपक्षी दलों के बीच बन रही एका को झटका लगेगा? दूसरा सवाल यह कि इससे केंद्र में सत्तासीन भाजपा पर क्या असर पड़ेगा? तीसरा यह कि क्या केसीआर स्वयं को पीएम पद की रेस में शामिल करना चाहते हैं? सियासत और सवाल एक-दूसरे से पृथक नहीं होते। केसीआर की सियासत की पृष्ठभूमि अलग रही है। आंध्र प्रदेश से अलग होने के बाद 2 जून, 2014 से ही केसीआर तेलंगाना के मुख्यमंत्री हैं। ऐसे में उनके मन में यदि यह महत्त्वाकांक्षा जगी हो कि वे भी प्रधानमंत्री बन सकते हैं तो इसमें कोई बुराई नहीं है। केसीआर के साथ कुछ खास पहलू यह भी कि उन्होंने भाजपा को वहां पांव जमाने का मौका नहीं दिया है। वे इस मामले में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से अलग हैं, जिनके सहयोग से भाजपा वहां उन्हें कड़ी चुनौती दे रही है। मसलन, हम 2018 में तेलंगाना में हुए विधानसभा चुनाव परिणाम पर नजर डालें तो यह समझना आसान होगा कि तेलंगाना में केसीआर का किला कितना मजबूत रहा है।
तेलंगाना विधानसभा में कुल 119 सीटें हैं और 2018 में हुए विधानसभा चुनाव में टीआरएस को 88 सीटें मिलीं। यह वह दौर था जब भाजपा नरेन्द्र मोदी की छवि के सहारे भारत विजय के अभियान के रथ पर सवार थी, लेकिन केसीआर का दम था कि उनकी पार्टी ने अकेले 46.9 प्रतिशत वोट प्राप्त किए, जबकि मोदी और अमित शाह की लाख कोशिशों के बावजूद भाजपा केवल एक सीट पर जीत हासिल कर सकी। रही बात कांग्रेस की तो उसने 99 सीटों पर अपने उम्मीदवार मैदान में उतारे थे और 19 पर जीत हासिल की। टीडीपी आंध्र प्रदेश में भी अपने अस्तित्व के लिए संघषर्रत रही और तेलंगाना में उसने केवल 13 सीटों पर संघर्ष किया तथा 2 सीटों पर जीत हासिल की। वर्ष 2018 के विधानसभा चुनाव में सूबे में सबसे बड़ी हलचल ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम ने मचाई। उसने 8 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे और 7 पर जीत हासिल किया। हालांकि 2019 में जब लोक सभा चुनाव हुए तो भाजपा 17 में से 4 सीटें जीतने में कामयाब रही। उसे 19.45 प्रतिशत वोट मिले। वहीं टीआरएस भले ही 9 सीटें जीतने में कामयाब रही, लेकिन उसके मतों के प्रतिशत में करीब पांच फीसद गिरावट दर्ज की गई। जाहिर तौर पर यह इस वजह से भी हुआ क्योंकि तब सूबे के लिए नहीं, बल्कि केंद्रीय सत्ता के लिए चुनाव हुआ था। इस पृष्ठभूमि के आधार पर आकलन करें तो तेलंगाना में अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव के मद्देनजर सियासी समीकरणों पर विचार किया जा सकता है।
सूबे में भाजपा की ताकत पहले की अपेक्षा बढ़ी है और कांग्रेस कमजोर हुई है। इससे केसीआर भी नावाकिफ नहीं हैं। वह इतना तो समझते ही हैं कि राष्ट्रीय राजनीति में महत्त्वपूर्ण बनने के लिए अपने राज्य में किला मजबूत रखना ही होगा। इस संभावना से कतई इनकार नहीं किया जा सकता है कि यदि परिस्थितियां विषम रहीं तो कांग्रेस के साथ मिलकर वे गठबंधन बना सकते हैं। वजह यह कि कांग्रेस अभी भी वहां कम से कम 15-20 फीसद वोट हासिल करने में सक्षम है। इसके अलावा राहुल गांधी का दक्षिण पर अधिक जोरे देने का लाभ भी कांग्रेस को मिलेगा। अब रहा यह सवाल कि केसीआर की महत्त्वाकांक्षा से विपक्षी दलों में बन रही एकता को कितना नुकसान पहुंचेगा या फिर भाजपा की सेहत पर कितना असर पड़ेगा, तो यह कहा जा सकता है कि जब क्षेत्रीय दलों को खत्म करने की भाजपा की नीति ने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को घटकविहीन कर दिया है। खतरा असल में भाजपा के लिए अधिक है।
क्षेत्रीय दलों के लिहाज से सोचें तो उनके लिए सबसे अहम तो यही है कि वे अपना अस्तित्व बचाकर रखें और यह तभी बचेगा जब वे भाजपा के मुकाबले में खड़े होंगे। बहरहाल, क्षेत्रीय दलों की अपनी मजबूती का असर केंद्रीय सत्ता पर पड़ता है। केसीआर, नीतीश, स्टालिन, बनर्जी और केजरीवाल सभी के दावे महत्त्वपूर्ण हैं तथा सीधे तौर पर भाजपा के लिए कड़ी चुनौती भी कि कांग्रेस भले ही विकल्प न हो, लेकिन देश में मोदी के विकल्प मौजूद हैं। यह देश में लोकतंत्र के लिए आवश्यक है। यह देश अनेकानेक विविधताओं वाला है और सभी विविधताओं का अपना-अपना महत्त्व है। इसे ‘एक देश-एक भाषा-एक धर्म’ जैसे नारे से नहीं हांका जा सकता।
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