सरोकार : सांस्कृतिक विघटन का दौर

Last Updated 03 Jul 2022 12:11:33 AM IST

कला और पूंजीवाद के संबंधों का विश्लेषण करते हुए अर्नेस्ट फिशर ने एक बार लिखा था ‘पुरानी दुनिया की मृत्यु पीड़ा और नई दुनिया की प्रसव पीड़ा में टूट कर खंडहर हुई इमारत में और उभरती हुई नई इमारत में फर्क करने के लिए एक ऊंचे दर्जे की सामाजिक चेतना की आवश्यकता होती है।’


सरोकार : सांस्कृतिक विघटन का दौर

शायद इस चेतना की दरकार विघटित होती संस्कृति के मूल तत्व को समझने के लिहाज से अर्थपूर्ण हो जाती है। जिक्र इसलिए कि इन दिनों पारंपरिक मूल्यों के संश्लिष्ट यथार्थ को नकारकर उसके उत्तेजनापूर्ण प्रदशर्न का एक दिलचस्प दौर चल पड़ा है, जिसे आंख मूंदकर दर्शक दीर्घा में बैठे लोगों की तालियां और टीआरपी नसीब हो रही है। टीवी पर स्वयंवर का दौर जोर-शोर से चल रहा है, जिसे बड़े ही प्रभावशाली ढंग से चित्रित करने की नाकामयाब कोशिश की जा रही है।
जाने-माने पंजाबी और बॉलीवुड सिंगर मीका सिंह ‘मीका दी वोटी’ स्वयंवर शो के जरिये अपना जीवनसाथी चुनने वाले हैं। इस कार्यक्रम में मीका शादी नहीं बल्कि केवल सगाई करेंगे। यानी पहले वो इस रिश्ते को समझने की कोशिश करेंगे फिर शादी करेंगे। टीवी के दर्शकों के लिए ये कोई नई कवायद नहीं। इससे पहले भी कई स्वयंवर दर्शकों के सामने परोसे जा चुके हैं। वैसे मीका से पहले राहुल का स्वयंवर, राखी का स्वयंवर, रतन राजपूत का स्वयंवर भी हो चुका है। स्वयंवर के इस खोखले और थोथे प्रदर्शन के जरिए अगले एक महीने तक लोगों को बेवकूफ बनाया जाएगा।
कला की तरह ही कहानी कहना मनुष्य की काफी पुरानी कलात्मक वृत्ति है। और इसकी रक्षा अपने आप में स्वयं भी एक महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक कार्य है। इतिहास से प्रमाणित होता है कि नीति, लोक व्यवहार, धर्म रक्षा और राजनीति आदि विभिन्न उद्देश्यों की पूर्ति के लिए इस कला का उपयोग करते हुए भी मानव जाति ने आज तक इसकी रक्षा की है। नि:संदेह इस कला का चरम अपकर्ष छोटे पर्दे पर ऐसे प्रायोजित कार्यक्रम के जरिए देखने को मिल रहा है। अभिनय के इस विकृत और भौंडे प्रदर्शन ने चिर आख्यायित अभिनय के मायने बदले हैं। कितनी हैरानी की बात है कि परदे पर विवाह का अभिनय कर पति पत्नी बनने वाले जोड़े जो कभी एक दूसरे के लिए गहरे और आवेग पूर्ण प्रेम से परिपूर्ण हों; दुनिया के सामने अग्नि के सात फेरे लेते हैं। वहीं पर्दा गिरते ही एक दूसरे के लिए सर्वथा अजनबी बन जाते है। यदि हमारे संबंधों का आधार इतना छिछला और कमजोर है कि हल्के झटके को भी संभाल नहीं सके तो सचमुच उसे टूट ही जाना चाहिए। ये समाज में स्थापित मूल्यों और पवित्र वैवाहिक मान्यताओं के विरुद्ध है।

समाज ने अपने विकास के क्रम में अपने आप को बदल लिया है। इसलिए परंपरागत मान्यताओं और धारणाओं को लेकर पुनर्विचार की आवश्यकता है। क्या जरूरी नहीं कि ऐसे कार्यक्रमों पर तत्काल प्रभाव से रोक लगाई जाए। विवाह का प्रपंच और उसकी नुमाइश के जरिए मिथ्या संदेश का संचार समाज को संक्रमित कर सकता है। नियामक संस्थाओं को तत्काल प्रभाव से ऐसे कृत्यों पर प्रतिबंध लगाना चाहिए। अभिनय जब समाज और संस्कृति को खोखला करने लगे तो उसका परिहार आवश्यक है। तात्कालिक लोकप्रियता और धनार्जन की भूख के चलते कलाकार कला के असली मर्म को भूल गए है। उन्हें कला के औचित्य को समझना होगा।

डॉ. दर्शनी प्रिय


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