महाराष्ट्र : ले डूबा अंतर्विरोध
उद्धव ठाकरे के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफे की घोषणा के तुरंत बाद उनकी पार्टी के प्रवक्ता संजय राउत ने ट्वीट करके एक बात बड़े मार्के की कही।
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उन्होंने कहा कि, ‘इतिहास गवाह है कि धोखाधड़ी का अंत अच्छा नहीं होता।’ राउत ने यह बात भले ही आज की परिस्थितियों के संदर्भ में कही हो, उद्धव ठाकरे और शिवसेना के बागी विधायकों के संदर्भ में कही हो, लेकिन उनका यह वाक्य 2019 के संदर्भ में भी बिल्कुल सटीक बैठता है।
2019 में हुए महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों के परिणाम सामने आने के तुरंत बाद शिवसेना ने जिस तरह से रंग बदला था, शायद उसे संजय राउत भूल चुके हैं। शायद उन्हें बिल्कुल भी याद नहीं है कि उस समय शिवसेना के टिकट पर चुनाव लड़ रहे अपने ही प्रत्याशियों को उन्होंने बिल्कुल भी नहीं बताया था कि चुनाव बाद वे उसी कांग्रेस-राकांपा के साथ हाथ मिला लेंगे, जिनके विरुद्ध वे चुनाव लड़ रहे हैं, या उनके कार्यकर्ता खून-पसीना बहा रहे हैं, या मारपीट तक किए ले रहे हैं। राउत को बिल्कुल भी याद नहीं होगा कि चुनाव बाद भाजपा से 30 साल पुराना संबंध तोड़कर जिस कांग्रेस-राकांपा से उन्होंने हाथ मिला लिया था, उसे तो 2014 से ही देश और महाराष्ट्र का आम मतदाता ठुकराता आ रहा था। ऐसा न होता तो छह महीने पहले ही हुए लोक सभा चुनाव में राज्य की जनता शिवसेना-भाजपा गठबंधन को 40 से अधिक एवं विधानसभा चुनाव में 162 सीटें न देती। कांग्रेस और राकांपा तो 100 का आंकड़ा भी नहीं छू पाई थीं।
आज उद्धव ठाकरे एवं उनके पुत्र को संभालने के लिए शरद पवार एवं भरोसा जताने के लिए सोनिया गांधी के प्रति आभार व्यक्त कर रहे संजय राउत को बिल्कुल भी याद नहीं होगा कि उनके आस्था केंद्र हिंदू हृदय सम्राट बाला साहेब ठाकरे के क्या विचार थे इन दोनों नेताओं के प्रति ! क्या वह अपने जीवनकाल में इन दोनों नेताओं के प्रति वैसा ही सम्मान दर्शा पाते, जैसा आज उद्धव ठाकरे, आदित्य ठाकरे या खुद संजय राउत दर्शा रहे हैं? शायद नहीं। इन प्रश्नों के उत्तर खोजने निकलिए तो भाजपा की पीठ पर भी खंजर का वैसा ही निशान नजर आएगा, जैसा आज अपने ट्वीट में संजय राउत दर्शा रहे हैं। राउत को ध्यान रखना चाहिए कि ढाई साल पहले जिस तरह की धोखाधड़ी शिवसेना द्वारा भाजपा के साथ की गई थी, उससे इन दोनों दलों के वे मतदाता भौचक्क रह गए थे, जो पिछले 30 वर्षो से शिवसेना-भाजपा गठबंधन के आदी हो चुके थे। खास तौर से 2014 से तो प्रबल मोदी लहर में देश की बदलती तस्वीर देखकर अभिभूत थे। भाजपा के साथ गठबंधन में जीत कर आए शिवसेना के 56 विधायकों को अपने इन मतदाताओं के सामने जवाब देते नहीं बन रहा था। अपनी आला कमान की करतूतों के कारण उन्हें मतदाताओं से नजरें चुरानी पड़ रही थीं।
चुनाव किसी एक के साथ मिलकर लड़ना, और सरकार किसी दूसरे से मिलकर बनाना, यह बड़ा अंतर्विरोध था। उसी समय पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने कह दिया था कि तीन दलों की यह सरकार हम नहीं गिराएंगे। यह तो अपने ही अंतर्विरोधों के कारण गिर जाएगी। अंतत: वही हुआ। बिना कुछ किए सत्ता पा जाने वाली कांग्रेस-राकांपा के साथ भले शिवसेना का अंतर्विरोध पैदा न हुआ हो, लेकिन शिवसेना के अंदर ही अंतर्विरोध इतना बढ़ गया कि पार्टी को अभूतपूर्व बगावत का सामना करना पड़ा और सरकार भरभरा कर ढह गई। महाराष्ट्र की जनता की सेवा हेतु प्रतिबद्ध देवेंद्र फड़नवीस ने इन राजनीतिक परिस्थितियों को देखते हुए जनता का हित सोचते हुए उचित निर्णय लिया लेकिन 2019 में सत्ता न मिल पाने के बाद सशक्त विपक्ष की भूमिका निभाते आ रहे नेता प्रतिपक्ष देवेंद्र फडणवीस ने अपनी ओर से उद्धव सरकार को अस्थिर करने का प्रयास कभी नहीं किया। बल्कि राज्य के एक संजीदा नेता की भूमिका निभाते हुए लगातार राज्य के लोगों के बीच मौजूद रहे। मुख्यमंत्री होने के बावजूद उद्धव ठाकरे जहां अपने पूरे कार्यकाल के दौरान फेसबुक लाइव से काम चलाते रहे, मंत्रालय के छठी मंजिल स्थित अपने कार्यालय में गिने-चुने दिन ही गए। फडणवीस कोरोना काल में घूम-घूम कर लोगों का हालचाल लेते रहे जबकि उद्धव उन दिनों घर से बाहर विरले ही निकले हों। पिछले वर्ष जब राज्य के कई हिस्से भीषण बाढ़ से जूझ रहे थे, तो फडणवीस पैंट ऊपर कर लोगों के बीच घूमते नजर आ रहे थे।
दो नेताओं के बीच का यह फर्क राज्य की जनता भी महसूस करती ही है। यह फर्क शिवसेना के वे विधायक भी लगातार महसूस कर रहे थे, जिनकी अपने ही नेता से मुलाकात नहीं हो पा रही थी। उनके क्षेत्र के काम नहीं हो पा रहे थे। सत्ता के ढाई साल बीत चुके थे। ढाई साल बाद उन्हें फिर से अपने उसी मतदाता के पास जाना था, जिसके सामने जाकर पिछली बार उन्होंने शिवसेना-भाजपा गठबंधन के नाम पर वोट मांगा था। उस हिंदुत्वनिष्ठ मतदाता से इस बार वह किसके नाम पर वोट मांगने जाते? दरअसल, इसी अंतर्विरोध ने उन्हें बगावत के लिए मजबूर कर दिया लेकिन बगावत के बावजूद बागी गुट बार-बार यह बात दोहराता रहा है कि यदि शिवसेना अध्यक्ष उद्धव ठाकरे अभी भी कांग्रेस-राकांपा का साथ छोड़कर भाजपा के साथ पुराने गठबंधन को पुनरु ज्जीवित कर दें, तो वे सभी फिर से उनके साथ आने को तैयार हैं, लेकिन न तो उद्धव ठाकरे ने, न ही उनके किसी सिपहसालार ने एक बार भी बागियों की इस मांग पर कोई ध्यान दिया। उलटे शरद पवार और सोनिया गांधी के प्रति उनकी प्रतिबद्धता और पुख्ता होती ही दिखाई दी। शरद पवार अंत तक उद्धव ठाकरे का साथ देने की बात करते सुनाई दिए और उद्धव उनकी ही सलाह पर चलते दिखाई दिए जबकि शिवसेना के शिवसैनिक और प्रतिबद्ध मतदाता को न तो शरद पवार फूटी आंखों सुहाते हैं, न ही कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी। यही विरोधाभास और अंतर्विरोध उद्धव ठाकरे की सरकार को ले डुबे।
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