पेयजल : मसला नहीं, मिशन

Last Updated 21 Apr 2022 12:57:32 AM IST

पिछले तीन दशकों में दुनिया में बाजार और विकास के जोर के बीच एक ऐसी दरकार को लोकतांत्रिक अहमियत हासिल हुई है, जो जीवन और संस्कृति के सजल दरकारों से जुड़ी है।


पेयजल : मसला नहीं, मिशन

जैसे-जैसे पारा चढ़ रहा है भारत सहित दुनिया के वैसे तमाम देश जो इन दिनों में उष्णता का तीव्र ताप झेलते हैं, अपनी परंपरा और सरोकारों में पानी के सहेज से जुड़ी चिंताओं पर नये सिरे से बात करने लगते हैं। इस चिंता और उससे जुड़े विमर्श का सकारात्मक हासिल यह है कि अब सरकारों के लिए पानी मसला नहीं, बल्कि मिशन का नाम है। मसला से मिशन के सफरनामे को अपने देश में ही नहीं दुनिया के स्तर पर भी देखना दिलचस्प है। इस सफर के एक छोर पर सिंगापुर जैसा छोटा मुल्क है, तो दूसरे छोर पर भारत जैसी विशाल आबादी और भूगोल वाला देश।
बात पहले सिंगापुर की, फिर भारत की। दुनियाभर में सैर-सपाटे के लिए सबसे पसंदीदा ठिकाने और ‘बिजनेस डेस्टिनेशन’ के रूप में सिंगापुर का नाम पूरी दुनिया में है। सिंगापुर की एक दूसरी पहचान भी है, जो ज्यादा प्रेरक है, ज्यादा मौजूं है। विश्व में जल प्रबंधन के जितने भी मॉडल हैं, उनमें सिंगापुर का मॉडल अव्वल माना जाता है। आने वाले चार दशकों के लिए आज सिंगापुर के पास पानी के प्रबंधन को लेकर ऐसा ब्लूप्रिंट है, जिसमें जल संरक्षण से जल शोधन तक पानी की किफायत और उसके बचाव को लेकर तमाम उपाय शामिल हैं। सिंगापुर के सामने लंबे समय तक यह सवाल रहा कि एक शहर-राष्ट्र जिसके पास न तो कोई प्राकृतिक जल इकाई है, न ही पर्याप्त भूजल भंडार है, जिसके पास इतनी भूमि भी नहीं कि वह बरसाती पानी का भंडारण कर सके, आखिर वह अपनी 50 लाख से ऊपर की आबादी की प्यास को कैसे बुझाए। दक्षिण पूर्वी एशियाई देश सिंगापुर अपनी कुल जल आपूर्ति का 40 फीसद पड़ोसी देश मलयेशिया से आयात करता है। इस बीच, सिंगापुर की राष्ट्रीय जल एजेंसी ‘पब्लिक यूटिलिटी बोर्ड’ (पीयूबी) 2060 तक पानी की मांग की स्वयं पूर्ति कर पाने के लिए चौबीसों घंटे कार्य कर रही है। इसका लक्ष्य है कि वह सिंगापुर की मलयेशिया पर पानी की निर्भरता को सिर्फ  कम ही न करे, बल्कि उसे समाप्त भी कर दे। इसके लिए उसने जल प्राप्ति की तीन पद्धतियों पर कार्य करने का निश्चय किया है। ये हैं-गंदे पानी का पुन: शुद्धिकरण, समुद्री जल का खारापन कम करना और वष्रा  जल का अधिकतम संग्रहण।

सिंगापुर से भारत सीख तो सकता है पर इस देश की आबादी और भूगोल ज्यादा मिश्रित और व्यापक है। फिर हमारे यहां पानी के अभाव से ज्यादा बड़ा सवाल उसके संग्रहण और वितरण का है। लिहाजा, पानी को लेकर भारतीय दरकार और सरोकार सिंगापुर से खासे भिन्न हैं। इसे भारतीय राजनीति में प्रकट हुए सकारात्मक बदलाव के साथ सरकारी स्तर पर आई योजनागत समझ भी कह सकते हैं कि अब स्वच्छता और घर-घर नल से जल की पहुंच जैसा मुद्दा साल के एक या दो दिनों नारों-पोस्टरों में जाहिर होने वाली कामना से आगे सरकार की घोषित प्राथमिकता है। 2014 में लालकिले से तिरंगा फहराते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने महात्मा गांधी का स्मरण किया और स्वच्छता के मुद्दे को सरकार और समाज, दोनों के एजंडे में शामिल कराने में बड़ी कामयाबी हासिल की। यह देश में राजनीति के उस बदले आधार और सूचकांक का भी संकेत था, जिसमें आगे साफ तय हुआ कि सुशासन का मुद्दा महज सरकारी दफ्तरों में फाइलों के तेजी से आगे बढ़ने और योजनागत खचरे में शून्य की गिनती बढ़ते जाने का नाम भर नहीं है। स्वच्छता के बाद जिस तरह पानी के मुद्दे को 2019 में भारत सरकार जल जीवन मिशन के तौर पर लेकर सामने आई, वह दिखाता है विकास का रंग हरा या धूसर के साथ-साथ नीला भी होना चाहिए। सिंगापुर का जिक्र हम पहले कर चुके हैं।  खास तौर पर पानी के मुद्दे को वहां जिस तरह बेहतर संग्रहण और वितरण के साथ तय किया गया, उससे यह भी जाहिर हुआ कि बाजार और विकास से उत्तर-आधुनिक दरकारों पर खरा उतरने के लिए हवा-पानी जैसे मुद्दे पर दीर्घकालिक समझ और नीति के साथ सामने आना होगा।
बीसवीं सदी के आखिरी दशक से शुरू हुआ वैीकरण का जोर भारत में भी पहले गुरुग्राम, नोएडा, बेंगलुरू और हैदराबाद जैसे नये-पुराने शहरों में बिजनेस हब के निर्माण और वैश्विक  कारोबारी मॉडल के तौर पर सामने आया। पर सिलसिला लंबा नहीं चला। एक तरफ शहर और गांव की दूरी बढ़ी, वहीं लोकतांत्रिक आकांक्षा के तहत देश के ग्रामीण इलाके से आवाज उठनी शुरू हुई कि उन्हें पहले विकास के बुनियादी सरोकारों के साथ जोड़ा जाए ताकि तालीम और रोजगार के क्षेत्र में उभर रही संभावनाओं का वे भी बराबरी के साथ हिस्सा बन सकें। इस लिहाज से जल जीवन मिशन के मकसद और उससे जुड़ी चुनौतियों की चर्चा इसलिए जरूरी है क्योंकि यह दिखाता है कि शासन और राजनीति के सूर्य को आज हम उत्तरायण और दक्षिणायन बताकर अपनी सियासी समझ पर चाहे जितना इतरा लें, हम उस सच्चाई और बदलाव को समझने से दूर रहेंगे जिसने इस दौरान तारीखी इबारत लिखी है।
इस मिशन के तहत 15 अगस्त, 2019 से 19 अप्रैल, 2022 तक देश के ग्रामीण इलाकों में लगभग साढ़े नौ करोड़ पानी के नये कनेक्शन दिए गए हैं, राज्य सरकारों के बीच 2024 से पहले सफलता के शत-फीसद लक्ष्य को हासिल करने को लेकर स्वस्थ होड़ छिड़ी है, तो यह देश में राजनीति और शासन का भी बदला चेहरा है, जिसे देखने के लिए नये और धुले चश्मे की दरकार है। दलगत राजनीति और धर्म-संप्रदाय को देखने-पहचानने में माहिरों को यह बदलाव नहीं दिख रहा तो यह बदलती दुनिया के साथ बदलते भारत को देखने का तंग नजरिया ही कहलाएगा। वह दिन दूर नहीं जब भारत के नक्शे में बच्चे जब रंग भरें तो वे हरित भारत की पारंपरिक छवि के साथ स्वच्छ-सजल भारत के सपने को साकार होते देख नीले रंग का भी खुशी-खुशी इस्तेमाल करें।

प्रेम प्रकाश


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