सामयिक : आस्था की आड़ में कानफोड़ू शोर

Last Updated 18 Apr 2022 12:11:01 AM IST

पर्यावरण में प्रदूषण पर चिंता कुछ कम हो गई दिखती है। पिछले दशक में जल, वायु, ध्वनि और भूमि प्रदूषण पर गहरी चिंता जताई जा रही थी।


सामयिक : आस्था की आड़ में कानफोड़ू शोर

अब ऐसा नहीं दिखता या तो हमने ठीक-ठाक कर लिया है या आंखें फेर ली हैं। नजर डालने से पता लगता है कि हालात हम सुधार नहीं पाए यानी कि हमने आंखें मूंद ली हैं। ऐसा  क्यों करना पड़ा इसकी चर्चा आगे करेंगे लेकिन फिलहाल यह मुद्दा तात्कालिक तौर पर भले ही ज्यादा परेशान न करे लेकिन इसके असर प्राण घातक समस्याओं से कम नहीं हैं।
हाल ही में ध्वनि प्रदूषण को लेकर सामाजिक स्तर पर कुछ सक्रियता दिखी है। खास तौर पर धार्मिंक स्थानों पर। लाउडस्पीकर से ध्वनि की तीव्रता बढ़ती जा रही है। मनोवैज्ञानिक और स्नायुतन्त्रिका विज्ञान के विशेषज्ञ प्रायोगिक तौर पर अध्ययन जरूर कर रहे हैं। लेकिन उनके शोध अध्ययन सामाजिक स्तर पर जागरूकता या राजनैतिक स्तर पर दबाव पैदा करने में बिल्कुल ही बेअसर हैं। कुछ स्वयंसेवी संस्थाएं जरूर हैं जो गाहे बगाहे आवाज उठाती हैं, लेकिन पता नहीं क्यों उन्हें किसी क्षेत्र से समर्थन नहीं मिल पाता। हो सकता है ऐसा इसलिए हो क्योंकि ध्वनि प्रदूषण की समस्या प्रत्यक्ष तौर पर उतनी बड़ी नहीं समझी जाती और शायद इसलिए नहीं समझी जाती क्योंकि हमारे पास विलाप के कई बड़े मुद्दे जमा हो गए हैं। 80 और 90 के दशक में जब अंधाधुंध विकास के खिलाफ माहौल बनाने की कोशिश हुई थी तब उद्योगीकरण, बड़े बांध, रासायनिक खाद और मिलावट जैसे मुद्दों पर बड़ी तीव्रता के साथ विरोध के स्वर उठे थे, लेकिन फिर कुछ ऐसा हुआ कि प्रदूषण पर चिंता हलकी पड़ गई।

तब इस मुद्दे पर बहसों के बीच प्रदूषण विरोधियों को यह समझाया गया कि विकास के लिए प्रदूषण अपरिहार्य है यानी निरापत विकास की कल्पना फिजूल की बात है। साथ ही जीवन की सुरक्षा के लिए विकास के अलावा और कोई विकल्प सूझता नहीं है। विकास के तर्क के सहारे आज भी हम नदियों के  प्रदूषण और वायु प्रदूषण को सहने के लिए अभिशप्त हैं। जब तक हमें कोई दूसरा उपाय न सूझे तब तक आर्थिक विकास के लिए सब तरह के प्रदूषण सहने का तर्क माना जा सकता है। लेकिन धार्मिंक स्थानों से हद से ज्यादा तीव्रता की आवाजें बढ़ती जाना और इस हद तक बढ़ती जाना कि वह ध्वनि प्रदूषण तक ही नहीं, बल्कि सामुदायिक सौहार्द और सामाजिक समरसता के खिलाफ एक सांस्कृतिक प्रदूषण भी पैदा करने लगे  यह स्वीकारना मुश्किल है। कानून है कि 75 डेसिबल से ज्यादा तीव्रता की ध्वनि पैदा करना अपराध है लेकिन इस कानून का पालन कराने में सरकारी एजंसियां या पुलिस बिल्कुल असहाय नजर आती हैं। धार्मिंक स्थानों पर बड़े बड़े लाउडस्पीकरों की यह समस्या आस्था के कवच में बिल्कुल बेखौफ बैठी हुई है, और इसके बेखौफ हो पाने का एक पक्ष वह राजनीति भी है जो अपने वोट बैंक को संरक्षण देने के लिए कुछ भी करने की छूट देती है।
जहां तक सवाल आस्था या धार्मिंक विश्वास का है, तो समाज के जागरूक लोग और विद्वत समाज क्या दृढ़ता के साथ नहीं कह सकता कि धार्मिंक स्थानों पर बड़े बड़े लाउडस्पीकर लगा कर दिन रात जब चाहे तब जितनी बार तेज आवाजें निकलना सही नहीं है। ये विद्वान क्या मजबूती के साथ नहीं कह सकते कि इसका आस्था या धर्म से कोई लेना देना नहीं है। आस्था बिलकुल निजी मामला है। धार्मिंक विश्वास नितांत व्यक्तिगत बात है। उसके लिए दूसरों को भी वैसा करने को तैयार करना उन पर दबाव डालना या अपने ही वर्ग के लोगों को भयभीत करना बिल्कुल ही नाजायज है। चलिए, जागरूक समाज हो, विद्वत समाज हो या कानून पालन करने वाली संस्थाएं हों या फिर राजनितिक दल ये सब अपनी सीमाओं और दबावों का हवाला देकर मूक दशर्क बनीं रह सकती हैं लेकिन हमारे लोकतंत्र की एक बड़ी खूबी है कि किसी भी तरह के अन्याय या अनदेखी के खिलाफ न्यायपालिका सजग रहती है। आस्था और धार्मिंक विश्वासों के कारण पनपी जटिल समस्याओं के निदान के लिए न्यायपालिका ही आखरी उपाय दिखता है। यहां यह समझना भी जरूरी है कि अदालतों को भी साक्ष्य के तौर पर समाज के जागरूक लोगों, विद्वानों और विशेषज्ञों का सहयोग चाहिए। आस्था और धार्मिंक क्षेत्र की जटिल समस्याओं के निवारण के लिए न्यायपालिका को दार्शनिकों की भी जरूरत पड़ सकती है।
गौरतलब है कि दुनिया में कई देशों में लाउडस्पीकर द्वारा अजान की ध्वनि सीमाएं तय की गई हैं। इनमें यूनाइटेड किंग्डम, ऑस्ट्रिया, नीदरलैंड, स्विट्जरलैंड, फ्रांस, जर्मनी, नॉर्वे और बेल्जियम जैसे देश शामिल हैं। लाओस और नाइजीरिया जैसे देशों ने स्वघोषित रूप से भी लाउडस्पीकर द्वारा अजान की या तो सीमाएं तय की हैं, या फिर मस्जिदों में लाउडस्पीकर को प्रतिबंधित किया है।
इसी परिप्रेक्ष्य में अगस्त, 2014 में मैंने भारत के सर्वोच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर की थी जिसमें देश के सभी धर्म स्थलों से लाउडस्पीकर हटाने की मांग की थी। मेरे वकील विवेक नारायण शर्मा ने याचिका में सांप्रदायिक दंगों के इतिहास की सूची भी जोड़ दी थी जो इन लाउडस्पीकर्स के कारण देश में हुए थे। इस याचिका से सभी धर्मो के मानने वाले बहुत प्रसन्न हुए थे। तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश एच एल दत्तु ने याचिका को कुछ सुनवाई के बाद यह कह कर लौटा दिया कि अदालत पहले ही ध्वनि प्रदूषण के स्तर की सीमा निर्धारित कर चुकी है। इसलिए शासन और पुलिसकर्मी से कहो कि वो उस आदेश को लागू करवाएं। पर क्या धरातल पर ऐसा कभी होता है? नहीं होता। आज मस्जिदों में अजान के लाउडस्पीकर पर शोर को लेकर जो विवाद खड़ा हुआ है, ऊसका जवाब पांच बार हनुमान चालीसा पढ़ना या लाउडस्पीकर मंदिरों को बांटना नहीं है। इससे तो शोर और बढ़ेगा, शांति भंग भी होगी और दंगे भी भड़केंगे।

विनीत नारायण


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