मीडिया : फॉल्ट लाइनें और फिल्में

Last Updated 17 Apr 2022 12:26:55 AM IST

कश्मीर फाइल्स बनाने वाले विवेक अग्निहोत्री ने ऐलान किया है कि अब वे ‘दिल्ली फाइल्स’ बनाएंगे।


मीडिया : फॉल्ट लाइनें और फिल्में

‘दिल्ली फाइल्स’ यानी वे ‘चौरासी’ के सिख विरोधी दंगों को लेकर यह फिल्म बनाएंगे। दंगे जो इंदिरा गांधी की नृशंस हत्या के बाद हुए थे जिनमें कई हजार निरीह सिख मारे गए थे!
जब ‘कश्मीर फाइल्स’ रिलीज हुई तो देखते देखते ‘हिट’ हो गई। दर्शक सिनेमा हॉल जाते। उसे देखते और रोने लगते, कई उत्तेजित होकर ‘भारतमाता की जय’ के नारे लगाने लगते! भारतीय मीडिया ने, खासकर खबर चैनलों ने ‘कश्मीर फाइल्स’ बनाने वालों से बातचीत कर फिल्म का जमकर ‘प्रोमो’ किया। वे बताते रहे कि हमने ‘तथ्य-सत्य’ की जांच करके ही फिल्म बनाई है।1989-90 के आसपास हजारों बरसों से कश्मीर में रहने वाले ‘कश्मीरी पंडितों’ का ‘कट्टर इस्लामिक आतंकवादियों’ द्वारा ‘नरसंहार’ (जेनोसाइड) किया गया। पोस्टरों और मस्जिदों से घोषित किया जाता था कि पंडित अपनी मां, बहन-बेटियों को यहां छोड़कर भाग जाएं नहीं तो खैर नहीं। इन सब घटनाओं को यथावत् तरीके से दिखाने का असर दिखा! लाखों हिंदुओं पर हुए अत्याचारों और उनके पलायन की यादें ताजा हुई और मांग होने लगी कि इस ‘जेनोसाइड’ की जांच हो, अपराधी दंडित किए जाएं, जिनको दरबदर किया गया उनका उनका पुनर्वास कराया जाए!
 हमने देखा कि ‘कश्मीर फाइल्स’ पर बहस करने वाले अपने अंतत: अपने ‘सही इतिहास’ में जाकर अपनी अपनी रक्षा में लगे गए कि जब ये हुआ तब ‘हमारा’ नहीं उनका शासन था, उनके राज्यपाल थे, कि अगर हिंदू मारे गए तो मुसलमान भी मारे गए.. बहरहाल यहां हमारा उद्देश्य ‘कश्मीर फाइल्स’ से उठी बहसों को दुहराना नहीं बल्कि यह बताना है कि ‘कश्मीर फाइल्स’ पहली फिल्म है जो हमारे इतिहास की एक धर्मिक अस्मितावादी ‘फॉल्ट लाइन’ को ‘फॅाल्ट लाइन’ की तरह ही पेश करती है और यह बहुतों को विचलित करता है क्योंकि अधिकांश फिल्में ‘फॉल्टलाइनों’ को तरह-तरह के मेलोड्रामा के जरिए छिपाकर या दबाकर चलती रही हैं! जिस तरह विवेक अग्निहोत्री ‘दिल्ली फाइल्स’ बनाना चाहते हैं उसी तरह कल कोई ‘गोधरा फाइल्स’ बना सकता है तो कोई ‘गुजरात फाइल्स’ बना सकता है, कोई ‘देश के विभाजन’ पर फिल्म बना सकता है, कोई ‘मोपला विद्रोह’ पर फिल्म बना सकता है तो कोई ‘डाइरेक्ट एक्शन’ पर भी फिल्म बना सकता है! न ‘फॉल्ट लाइनों’ की कमी है न बनाने वालों की! कहने की जरूरत नहीं इस फिल्म ने एक ऐसा नया ‘प्रस्थापना परिवर्तन’ कर दिया है, जिससे उत्तेजित होकर आज कुछ लोग उन विषयों पर भी फिल्म बना सकते हैं जो अब तक गहरे विवादास्पद और कलहकारी रहे! ऐसा नहीं है कि बॉलीवुड अराजनीतिक है और सिर्फ मनोरंजनकारी या सामाजिक सुधार के नरम मुद्दों को उठाने वाली फिल्में बनाता है! यों भी हर फिल्म कहीं-न-कहीं राजनीतिक होती ही है! लेकिन अधिकांश फिल्में मनोरंजन करने के साथ दर्शक को प्रेम, दोस्ती, हमदर्दी, भाईचारा, एकता और एक दूसरे के प्रति सहिष्णुता-सहयोग और सामाजिक न्याय के भाव को वरीयता देती हैं! कहानी कोई कैसी भी हो अंतत: वह सुखांत ही होती है! यह पहली बार है कि ‘कश्मीर फाइल्स’ ने इस ‘भावुक सुखांत’ के फारमूले को विदीर्ण कर ऐसे ‘दुखांत’ को  दिखाया है जो और बहुत सारे नये ‘दुखांतों’ को पैदा करता है।

बहुत से लोग जो ‘कश्मीर फाइल्स’ का विरोध करते हैं, ऐसी ही दबा दी गई दुखांत सचाइयों से डरते हैं और बहुत से हैं जो उसे सदियों की चुप्पी के बाद ‘अपनी नई पाई आवाज’ की तरह देखते हैं। यह सब देर सबेर होना ही था। यही हो रहा है। जिन दिनों समाज में ‘अस्मितावादी राजनीति’ खुलकर खेल रही हो जो राजनीति में धर्मिक प्रतीकों की स्पर्धा के रूप में खुलकर व्यक्त हो रही हो उन दिनों फिल्में इस सबसे कैसे बची रह सकती हैं। अब तक कला भावों की एकानिवित करने वाली मानी जाती रही  है आजकल वही कला एकानिवित को भंग करने वाली और ऊपरी एकता के नीचे की खाइयों को बताने वाली बन चली है। इससे वे सब समाज परेशान है जो अब तक पुराने ‘भाईचारे’ व ‘हम सब एक है’ वाली संस्कृति में जीने के आदी थे अब अचानक कहा जाने लगा है कि हम एक नहीं अलग-अलग है और एक दूसरे के अच्छे या बुरे ‘अन्य’ हैं। यह स्थिति न सिर्फ फिल्म कला के लिए बल्कि कला मात्र के लिए नई चुनौती है, जो कला की भूमिका पर पुनर्विचार करने को मजबूर करती है!

सुधीश पचौरी


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