सरोकार : ‘परंपरागत मूल्यों’ के ढहने का समय

Last Updated 17 Apr 2022 12:12:22 AM IST

हाल के दशकों में समय ने संयत ढंग से एक ऐसी नारी को गढ़ने की कोशिश की है जो पश्चिम की नारीवादी दृष्टि से मुक्त रहकर भी क्रमश: एक जीवित और आत्म सजग स्त्री के रूप में ढलती जाती है।


सरोकार : ‘परंपरागत मूल्यों’ के ढहने का समय

अर्थहीन विधि निषेधों  के लिए अपना जीवन बर्बाद करने की अपेक्षा वह अपना जीवन अपने ढंग से अपने निर्णय के अनुरूप जीना चाहती है। लेकिन मजे की बात ये कि अपने ढंग से जीने के उसके इस आग्रह के पीछे कहीं भी स्वेच्छाचार और उच्छृंखल प्रदर्शन भाव नहीं दिखता है।

हाल की ताजा घटना इस बात की संकेतक है कि रूढ़ और परंपरागत मान्यताओं की कसौटी पर कसा जाना आज की आधुनिक नारी को बिल्कुल पसंद नहीं। आलिया भट्ट द्वारा सात फेरों के सात वचनों में से एक वचन को नकारा जाना इस बात का द्योतक है कि स्त्री अब ऐसी आत्म सजग और प्रबुद्ध युवती है जो कृत्रिम दुलार और छद्म आधुनिकता की दोहरी मार से अपने को बचाना जान गई है। आलिया ने रणबीर संग फेरे में 7 की जगह सिर्फ 6 वचन ही लिये। 7 वां वचन ये था कि आलिया अपने सारे काम पति रणवीर की रजामंदी से करेगी।

पिता महेश भट्ट ने इस पर यह कहते हुए आपत्ति जताई कि जब उन्होंने खुद अपनी पत्नी से यह वचन नहीं लिये तो फिर उनकी बेटी ऐसा क्यों करे? उन्होंने आलिया को  सोच समझ कर फैसला लेने की सलाह दी जिसे  आलिया ने फौरन मान लिया। वर्तमान समय में एक संस्था के रूप में विवाह को कोसने और विवाह संस्था में पति-पत्नी का संबंध नकली और ऊपर से थोपा हुआ प्रतीत होने को लेकर अक्सर दुहाई दी जाती है। आज की पीढ़ी प्रेम विवाह, आधुनिकता और संपूर्ण मूल्य दृष्टि को नये तरीके से परिभाषित करने में लगी हुई है।

जाहिर है नायिका आलिया ने इसी बहाने परंपरागत मूल्यों के परिवर्तन को लेकर एक नई लकीर खींच दी है। जिस पर नये सिरे से समाज के पुनर्मूल्यांकन और पुनर्मथन की जरूरत है। वचनबद्धता केवल स्त्रियों पर ही क्यों आरोपित हो पुरुष भी समान रूप से इसके लिए प्रतिबद्ध हो ये एक लंबी बहस का मुद्दा बना गया है। ऐसा लगता है इसी बहाने रूढ़ियों का परित्याग करते हुए नारी को उसके वास्तविक यथार्थ रूप में अभिव्यक्त करने का सही समय आ गया है। आलिया की पीढ़ी में निर्णय लेने का साहस है। ऊपरी तौर पर वातावरण भी इस साहस को उकसाता है। वातावरण में वर्जनाओं से मुक्ति के स्वर भरे हुए हैं, लेकिन अक्सर ऐसा होता रहा है कि जब कोई निर्णायक क्षण आता है तब पुरानी पीढ़ी के मूल्य आड़े आ जाते हैं, लेकिन अब इससे पार पाने का समय है।

पुरातन मूल्यों की जकड़न से मुक्ति की छटपटाहट में भारतीय स्त्री वर्तमान जीवन की त्रासद स्थितियों के बीच जीने को लेकर अब कतई विवश नहीं दिखती। वह ‘मुक्त रहो’ और ‘मुक्त रखो’ जैसे  प्रगतिशील नारे को लेकर आगे बढ़ रही है। स्त्री की इस यात्रा में यथार्थ और स्वप्न, मोहभंग और आत्म संघर्ष हर तरफ अभिव्यक्त हुआ है, जिसका संबंध किसी-न-किसी तरह परंपरागत मूल्यों को तोड़ने से ही है। दकियानूसी रिवाजों से मुक्ति की छटपटाहट स्पष्ट रूप से दिखने लगी है। अधिकार प्राप्त करने की लालसा, रस्मोरिवाज और विचार के स्तर पर आधुनिक बनने की चाहत अब हर स्तर पर व्यंजित होता दिखता है। समाज यदि वास्तव में अपने पुरातन मूल्यों को लेकर इतना ही आग्रही है तो उसे पुरु षों को भी इस दायरे में लाने की कोशिश करनी चाहिए ताकि रिवाजों की सार्थकता कायम रखी जा सके।

डॉ. दर्शनी प्रिय


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