सामयिक : डॉ. अर्चना शर्मा का जाना..
दौसा (राजस्थान) की युवा डाक्टर अर्चना शर्मा की खुदकुशी के लिए कौन जिम्मेदार है?
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महिला रोग विशेषज्ञ, स्वर्ण पदक विजेता, मेधावी और अपने कार्य में कुशल डॉ. अर्चना शर्मा इतना क्यों डर गई कि उन्होंने मासूम बच्चों और डाक्टर पति के भविष्य का भी विचार नहीं किया और एक अखबार की खबर पढ़ कर आत्महत्या कर ली।
पत्रकार होने के नाते डॉ. शर्मा की इस दुखद मृत्यु के लिए मैं उस संवाददाता को सबसे ज्यादा जिम्मेदार मानता हूं, जिसने पुलिस की एफआईआर को ही आधार बनाकर अपनी खबर इस तरह छापी कि उसके कुछ घंटों के भीतर ही डॉ. अर्चना शर्मा फांसी के फंदे पर लटक गई। लगता है कि इस संवाददाता ने खबर लिखने से पहले डॉ. अर्चना से उनका पक्ष जानने की कोई कोशिश नहीं की। आज मीडिया में यह प्रवृत्ति लगातार बढ़ती जा रही है, जब संवाददाता एकतरफा खबर छाप कर सनसनी पैदा करते हैं, किसी प्रतिष्ठित व्यक्ति की छवि धूमिल करते हैं। प्राय: ऐसा ब्लैकमेलिंग के इरादे से करते हैं, जिससे सामने वाले को डराकर मोटी रकम वसूली जा सके। यह बात दूसरी है कि ऐसी ज्यादातर खबरें जांच-पड़ताल के बाद निराधार पाई जाती हैं पर तब तक उस व्यक्ति की तो जिंदगी बर्बाद हो ही जाती है। यह बहुत खतरनाक प्रवृत्ति है।
प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया (पीसीआई), सर्वोच्च न्यायालय और पत्रकार संगठनों को इस विषय पर गंभीरता से विचार करके कुछ ठोस कदम उठाने चाहिए। पिछले चार दशक की खोजी पत्रकारिता में मैंने देश के सर्वोच्च पदों पर बैठे लोगों के अनैतिक आचरण का निडरता से खुलासा किया जिससे उनकी नौकरियां भी गई। पर ऐसी कोई भी खबर लिखने या दिखाने से पहले भरसक कोशिश रही कि उस व्यक्ति का स्पष्टीकरण जरूर लिया जाए और उसे अपनी खबर में समुचित स्थान दिया जाए। इस एक सावधानी का फायदा यह भी होता है कि आपको कभी मानहानि का मुकदमा नहीं झेलना पड़ता। डॉ. अर्चना शर्मा की मौत के लिए वो पुलिस अधिकारी पूरी तरह से जिम्मेदार हैं, जिन्होंने एफआईआर में बिना किसी पड़ताल के डॉ. शर्मा पर धारा 302 लगा दी यानी उन्हें साजिशन हत्या करने का दोषी करार दे दिया। पूरे देश की पुलिस में यह दुष्प्रवृत्ति फैलती जा रही है। पुलिस बिना किसी तहकीकात केवल शिकायतकर्ता के बयान पर एफआईआर में तमाम बेसिर-पैर की धाराएं लगा देती है, तो उन्हें बाद में अदालत में सिद्ध नहीं कर पाती। तो न्यायाधीशों द्वारा फटकारी जाती है।
पुलिस ऐसा तीन परिस्थितियों में करती है। पहली, जब उसे आरोपी को आतंकित करके मोटी रकम वसूलनी होती है, दूसरी, जब उसे राजनैतिक आकाओं के इशारे पर सत्ताधीशों के विरोधियों, पत्रकारों या सामाजिक कार्यकर्ताओं का मुंह बंद करने के लिए इन बेगुनाह लोगों को प्रताड़ित करने को कहा जाता है; और तीसरी, जब बड़े और शातिर अपराधियों को बचाने के लिए पुलिस गरीबों, दलितों और आदिवासियों को झूठे मुकदमों में फंसा कर गुनाहगार सिद्ध कर देती है। जैसा कि हाल ही में आई एक फिल्म ‘जय भीम’ में दिखाया गया है।
इत्तेफाक ही है कि 1977 में जब जनता पार्टी की सरकार ने राष्ट्रीय पुलिस आयोग का गठन किया तो उसके अध्यक्ष और कई सदस्य मेरे परिचित थे। इसलिए दिल्ली के लोकनायक भवन में इस आयोग के साथ अपने अनुभव साझा करने का मुझे खूब अवसर मिला। तब से आज तक भारत की मौजूदा पुलिस व्यवस्था में सुधार की तमाम सिफारिशें सरकार को दी जा चुकी हैं पर केंद्र और कोई भी राज्य सरकार इन सुधारों को लागू नहीं करना चाहती। चाहे वो किसी भी दल की सरकार क्यों न हो। 1860 में अंग्रेजों की हुकूमत के बनाए कानूनों के तहत हमारी पुलिस आज तक काम कर रही है, जिसका खमियाजा आमजन हर रोज भुगत रहा है। जरूरी है कि देश भर के जागरूक नागरिकों, पत्रकारों, बुद्धिजीवियों, चिकित्सकों और वकीलों आदि को पुलिस व्यवस्था में सुधारों के लिए देशव्यापी अभियान लगातार चलाया जाए ताकि सभी राजनैतिक दल मजबूर होकर पुलिस सुधारों को लागू करवाएं।
दरअसल, आजादी के बाद राजनेताओं ने भी पुलिस को अंग्रेजों की ही तरह आम जनता को डराकर और धमकाकर नियंत्रित करने का शस्त्र बना रखा है। इसलिए वे अपनी इस नकारात्मक सत्ता को छोड़ने को तैयार नहीं होते। जिन दिनों मुझे भारत सरकार के गृह मंत्रालय से प्रदत्त ‘वाई’ श्रेणी की सुरक्षा मिली हुई थी उन दिनों मेरा अपने अंगरक्षकों से अक्सर पुलिस व्यवस्था को लेकर मुक्त संवाद होता था। चूंकि मेरी सुरक्षा में दिल्ली पुलिस के अलावा अर्धसैनिक बल के जवान भी तैनात रहते थे और देश में भ्रमण के दौरान उन प्रांतों की पुलिस फोर्स भी मेरी सुरक्षा में तैनात होती थी, इसलिए सारे देश की पुलिस व्यवस्था की असलियत को बहुत निकटता से जानने का उन वर्षो में मौका मिला। तब यह विश्वास दृढ़ हो गया कि पुलिस के हालात बिना किसी अपवाद के सब जगह एक जैसे हैं, और उनमें सुधार के बिना आमजन को न्याय नहीं मिल सकता।
इस मामले में डॉ. अर्चना शर्मा की मौत के लिए जिन राजनेताओं का नाम सामने आया है, उन्होंने जान-बूझ कर इस मामले को अकारण तूल दिया। इसका उद्देश्य केवल डॉ. अर्चना शर्मा को ब्लैकमेल करना था। स्वयं को जनसेवक बताने वाले राजनेताओं और उनके कार्यकर्ताओं में इस तरह विवादों को अनावश्यक तूल देकर स्थिति को बिगाड़ना और उससे मोटी उगाही करना आम बात हो गई है। कोई भी राजनैतिक दल इसका अपवाद नहीं है। मैं यहां यह भी उल्लेख करना चाहूंगा कि डॉ. अर्चना शर्मा के मामले में प्रथम दृष्टया कोई कोताही या अनैतिक आचरण का प्रमाण सामने नहीं आया है परंतु इसमें भी संदेह नहीं कि मानव सेवा के लिए बना यह सम्मानित व्यवसाय भी आज लालची अस्पताल मालिकों और लालची डाक्टरों की लूट और अनैतिक आचरण के कारण अपनी आदर्श स्थिति से क्रमश: नीचे गिरता जा रहा है। कुछ मामलों में तो इनका व्यवहार बूचड़खाने के कसाइयों से भी निकृष्ट होता है, जिसमें भी सुधार की बहुत जरूरत है।
हालांकि डॉ. अर्चना शर्मा का मामला बिल्कुल अलग है, और इसलिए राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को स्वयं रुचि लेकर उस पत्रकार, पुलिस अधिकारी और उन नेताओं के खिलाफ कानून के अंतर्गत कड़ी से कड़ी कार्यवाही करनी चाहिए।
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