वैश्विकी : जनरल बाजवा का अमेरिकी राग

Last Updated 03 Apr 2022 02:47:21 AM IST

यूक्रेन संकट के कारण भारतीय उपमहाद्वीप में महत्त्वपूर्ण भू-रणनीतिक बदलाव हो रहे हैं।


पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष जनरल कमर जावेद बाजवा

पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष जनरल कमर जावेद बाजवा ने शनिवार को पाकिस्तान की सैन्य और कूटनीतिक नीतियों के बारे में जो बयान दिया उससे जाहिर है कि पाकिस्तान फिर अमेरिकी खेमे में जाने की कोशिश में है। जनरल बाजवा का बयान एक तरह से प्रधानमंत्री इमरान खान की सरकार को श्रद्धांजलि भी है। जनरल बाजवा ने अमेरिका को पाकिस्तान का प्रमुख रणनीतिक साझेदार बताते हुए उसे निर्यात का बड़ा बाजार बताया। उनका यह कथन इमरान के बयान से उलट है। संसद में अविश्वास प्रस्ताव के पहले ही पाकिस्तान की सेना ने इमरान खान के प्रति अविश्वास व्यक्त कर दिया है। इमरान की राजनीतिक अपरिपक्वता उनके पतन का कारण बन रही है। वह इस हकीकत से आंख मूंदे रहे कि उनका देश विशेषकर सेना और खुफिया एजेंसी आईएसआई दशकों से अमेरिका के इशारों पर नाचती रही है। इमरान भारत की तरह पाकिस्तान को स्वतंत्र विदेश नीति पर चलाने का ख्वाब देख रहे थे। वह भूल गए कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी यदि भारत को स्वायत्त और स्वतंत्र विदेश नीति पर चला रहे हैं तो उसका कारण भारत में साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद के खिलाफ लड़ाई की लंबी परंपरा है। पं. जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी और उसके बाद नरेन्द्र मोदी ने इसी विरासत के आधार पर देश को किसी-न-किसी रूप में गुटनिरपेक्षता की नीति पर चलाया है। मनमोहन सिंह सरकार के दौरान भारत पर अमेरिका का दबाव सबसे अधिक था। लेकिन उस दौरान भी भारत की विदेश नीति का स्वरूप नहीं बदल पाया। अमेरिका का विरोध बयानबाजी और लफ्फाजी से नहीं हो सकता बल्कि इसके लिए जनता की जागरूकता और निश्चित सिद्धांतों के बारे में प्रतिबद्धता जरूरी है।

जनरल बाजवा ने खुले रूप से यूक्रेन में रूस की सैनिक कार्रवाई को छोटे देश पर हमले की संज्ञा दी। उनके बयान का अमेरिका और पश्चिमी देशों में निश्चित रूप से स्वागत किया जाएगा। अमेरिका और ब्रिटेन की मीडिया इस बात को उजागर करेगी कि पाकिस्तान आधे-अधूरे लोकतंत्र के बावजूद सच्चाई का समर्थन करने का साहस दिखा रहा है। पश्चिमी मीडिया ही नहीं बल्कि भारत में भी बुद्धिजीवियों और नेताओं का एक वर्ग उलाहना देगा कि संसार के सबसे बड़े लोकतंत्र का दावा करने वाला भारत छोटे लोकतांत्रिक देश यूक्रेन पर हमले का विरोध करने में आना-कानी कर रहा है। इतना ही नहीं मोदी सरकार पर यह भी आरोप लगाया जाएगा कि यूक्रेन संकट के दौरान वह रूस से रियायती मूल्य पर तेल लेने का लालच दिखा रही है।
बाजवा के बयान के बाद भारतीय उपमहाद्वीप में क्या पहले जैसे हालात बनेंगे। जब अमेरिका प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से पाकिस्तान को शह देता था। रूस और चीन का मुकाबला करने के लिए क्या पाकिस्तान फिर से अमेरिका के लिए फ्रंटलाइन देश की भूमिका निभाएगा। यह सवाल भविष्य के गर्भ में है। फिलहाल यह कहा जा सकता है कि स्वतंत्र विदेश नीति अपनाने के लिए भारत को भविष्य की चुनौतियों का सामना करने के लिए तैयार रहना चाहिए।
पिछले एक हफ्ते के दौरान नई दिल्ली में अभूतपूर्व कूटनीति गतिविधि देखी गई। अमेरिका, रूस, ब्रिटेन और यूरोपीय संघ के नेताओं और अधिकारियों ने यूक्रेन के संकट के समय में भारत को अपने पक्ष में करने की कवायद की लेकिन भारत का रवैया कमोबेश वैसा ही रहा जैसा कि यूक्रेन संकट शुरू होने के समय था। भारत के इस रवैये को भारत के सामान्य जन का समर्थन भी हासिल है। बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करेगा कि यूक्रेन का घटनाक्रम क्या मोड़ लेता है। यूक्रेन से यदि अमेरिका और नाटो देशों का सीधे रूप से जुड़ाव होता है तो भारत के लिए सबको खुश करने का वर्तमान रवैया कारगर साबित नहीं होगा। रूस के विदेश मंत्री सग्रेई लावरोव की भारत यात्रा और मोदी से मुलाकात पश्चिमी देशों के लिए स्पष्ट संदेश थी। अमेरिका मोदी सरकार की यदि खुलकर आलोचना नहीं कर रहा है तो इसका कारण हिंद-प्रशांत क्षेत्र में चीन के खिलाफ भारत के सहयोग की दरकार है। लेकिन यूक्रेन संकट के दौरान यदि यूरोप के लिए खतरा होगा तो हिंद-प्रशांत हाशिये पर चला जाएगा। अमेरिका के लिए भविष्य की चुनौती है जबकि यूरोप के लिए संभावित खतरा तात्कालिक चुनौती है।

डॉ.दिलीप चौबे


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