मीडिया : मीडिया के कच्छा-बनियान
एक बड़े पत्रकार ने एक ‘सत्यवादी’ चैनल में कहा कि वह हमेशा सच के लिए लड़ता रहा। एक ‘सच’ के लिए उसे हटाया गया।
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बाद में जब वो मंत्री बना तो भी ‘सच’ की सेवा करता रहा। लेकिन आज का मीडिया समझौतापरस्त है। उसकी अपनी आवाज नहीं। सरकार को टोकता तक नहीं। उसमें ‘आत्मसम्मान’ का भाव नहीं। पब्लिक सरकार के हर काम पर अपनी मुंडी हिलाने लगी है। पहले सरकार की आलोचना के लिए जगह थी। अब नहीं है। वह सरकार के हर काम को हवा देता है। ‘खोजी पत्रकारिता’ नहीं बची। मीडिया ‘लड़ाकू’ होने की जगह ‘प्रचारक’ बन गया है। उसने एक सच के आग्रह के कारण नौकरी खो दी। जिस मालिक ने निकाला वो आपातकाल का विरोधी रहा था। फिर भी उसने मुझे निकालने का दबाव माना। वो मनमौजी था। अपने को सबसे बड़ा मीडिया मानता था। बड़ी लड़ाई के लिए छोटी लड़ाई को कुर्बान कर सकता था। आज के मीडिया में जरा भी शर्म नहीं बची।
एक बड़ा पत्रकार एक ‘परम सत्यवादी’ चैनल पर आज के मीडिया के बारे में ऐसा ही कुछ कह रहा था और जिससे कह रहा था वह खुश होकर मुंडी हिलाए जा रहा था। मानो उसका मीडिया इस तरह के दबावों से परे हो जबकि सब जानते हैं कि हर मीडिया के ‘आका’ होते हैं। सबकी पूंछ किसी न किसी के सामने किसी न किसी वक्त हिलती अवश्य है। मीडिया एक बिजनेस है। कमाई की फिक्र न करे तो बंद हो जाए। इसलिए जिधर से पैसा आता है, उधर पूंछ हिलानी पड़ती है वरना पैसा नहीं आने का।
सब जानते हैं मीडिया भी बिजनेस है। खबर भी बिजनेस है। खबर में जो ‘सत्य-असत्य-अर्धसत्य-पौन सत्य-सवासत्य’ भी ‘कच्छे-बनियान’ के ब्रांडों की तरह होता है, जिनको कभी अक्षय कुमार बेचता है, कभी वरुण धवन। कभी सलमान बेचता है। कच्छे-बनियान की ब्रांड बदलती रहती है, लेकिन वे बिकते रहते हैं, जो हर कच्छे-बनियान को ज्यादा से ज्यादा बेच सके वही असली मीडिया है। वही कमाई कर सकता है, जिसकी एवज में एंकर/संपादक/रिपोर्टर को करोड़ों की पगार मिलती है। मीडिया का सत्य महंगा होता है, उसके पीछे करोड़ों लगे होते हैं, जो न मोटी पगार वाले एंकर/ संपादक को दिखते हैं न आज के कुछ ‘सत्यवादी हरिश्चद्रों’ को। पत्रकारिता तब भी बिजनेस थी जब कथित ‘बड़े पत्रकार’ पत्रकारिता करते थे। मीडिया विपक्ष का विचार भी ‘कच्छे-बनियान’ की तरह ही बेचता था। मीडिया के मालिक जब एक सत्ता से सेटिंग नहीं कर पाते थे, तो वे विपक्ष के कच्छे-बनियान बेचने लगते थे और कहते थे कि वे ही सत्य के सबसे बड़े रखवाल हैं। बेचने की हर क्रिया ‘कच्छा-बनियान’ बेचने की तरह ही होती है। पहले ‘कच्छे-बनियान’ के सत्य की जरूरत बताई जाती है। फिर ब्रांडों की ख्वाहिश पैदा की जाती है। बड़े लोग उनके ‘सेल्समैन’ बन जाते हैं, वे ‘सत्य’ को ‘कच्छे-बनियान’ की तरह ही बेचते हैं, और खुद पहनने की जगह वे अमेरिकी ‘कच्छे’, ‘बनियान’ ही पहनते हैं, लेकिन हम आपको इन्हीं कच्छा-बनियानों रूपी ‘सत्यों’ को बेचते हैं।
वे ‘कच्छा-बनियान’ की तरह खबर के सत्य को भी कभी ‘आरामदेह’ कहके, कभी ‘यह अंदर की बात है’ कह के, कभी ‘फिट’ कहके के बेचते हैं। खबर के ‘कच्छा-बनियान’ बिकने लगते हैं, कमाई होने लगती है। एक दिन ‘कच्छा-बनियान’ न बिकें तो सारे महान सत्यवादी सड़क पर आ जाएं। यही मीडिया के ‘सत्य’ का सत्य है। मीडिया को ‘सत्यवादी’ बनाए रखने में जितना हाथ उनके ‘सत्यवादी वचनों’ का होता है, उससे कहीं अधिक ‘कच्छा-बनियान’ बेचने की ‘कला’ का होता है। कोई सत्ता के ‘कच्छा-बनियान’ बेचने की कला से कमाता है, तो कोई विपक्ष के ‘कच्छे-बनियान’ बेचने की कला के जरिए। और आम दूध बेचने वाले की तरह ही हर पत्रकार जानता है कि सच के दूध में वह कितने झूठ का कितना पानी मिला रहा और किसका पानी मिला रहा है, लेकिन इसे कभी कहता नहीं और तब भी नहीं जब रिटायर हो चुका होता है क्योंकि सच की अपनी मिलावट को बता दिया तो सत्यवादी हरिश्चंद्र कैसे बनेगा? भविष्य में कैसे पुजेगा। आज मीडिया सत्ता का चमचा है, तो आज से पहले भी था लेकिन तब उसका चमचत्व दिखता नहीं था क्योंकि वह सच में झूठ को अच्छी तरह फेंट सकता था। अब ऐसे कारीगरों की जरूरत नहीं। और यही अच्छा है। आज मालूम तो रहता है कि कौन किसका दलाल है? पहले ‘दलाल’ छिपा रहता था कि अब सामने हैं। इन दिनों तो ‘आलोचना’ भी एक दलाली है। अब तो गाली देना भी सत्ता की ‘रिवर्स सेवा’ है।
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