मीडिया : ‘कश्मीर फाइल्स’ एक ‘एफआईआर’ है
फिल्म ‘कश्मीर फाइल्स’ चार बरस की मेहनत के बाद बनी है। उसके निर्माता कहते हैं कि हमने पहले रिसर्च की। और फिल्म भी ऐसी बनी जिसने बिना किसी बड़ी पब्लिसिटी के अक्षय कुमार की ‘बच्चन पांडे’ तथा दक्षिण के प्रभाष की एक और फिल्म को ‘बॉक्स ऑफिस’ पर पछाड़ दिया।
![]() मीडिया : ‘कश्मीर फाइल्स’ एक ‘एफआईआर’ है |
यह पहली फिल्म है जो ‘अस्मितावादी’ है और इसीलिए यह एक वर्ग में तीखी प्रतिक्रिया पैदा करती है। यों ‘परजानिया’,‘हैदर’ और ‘फिराक’ भी ऐसी ही अस्मितावादी फिल्में थीं लेकिन इनको ‘फिल्में’ मानने वाले, कसीदे गाने वाले ‘कश्मीर फाइल्स’ को ‘प्रोपेगेंडा’ मानते हैं फिल्म नहीं। यह बात उनकी अपनी ‘असहिष्णु अस्मितावादी नजर’ की पोल खोलती है। फिल्म के अचानक ‘सुपरहिट’ फिल्म हो उठने का एक बड़ा कारण फिल्म का ‘कंटेट’ है, तो दूसरा कारण इस्लामी जिहादियों/आतंकियों द्वारा जबरिया भगाए गए वो हजारों जिंदा पंडित हैं, जो जम्मू से लेकर दिल्ली तक में पिछले बत्तीस साल से ‘शरणार्थी’ जैसे बन कर रह रहे हैं जो फिल्म में ‘अपने साथ बीती’ को एक बार फिर से देखते हैं। अपने ऊपर किए गए अत्याचारों को फिर याद करने लगते हैं और उनको देख-देख रोने लगते हैं। फिल्म न सिर्फ दर्द की ‘केथार्सिस’ करती है, बल्कि अपने आप को ‘एफआईआर’ की तरह पेश करती है।
यह शायद पहली फिल्म है जो फिल्मी तरीके से किसी को ‘एंटरटेन’ नहीं करती, बल्कि दर्द और हमदर्दी पैदा करती है, गुस्सा पैदा करती है, और अतीत में हुए अन्याय और अत्याचार के खिलाफ जांच की मांग को ताजा करती है। इसकी रिलीज पर उठा ‘विवाद’ अपने आप में प्रमाण है कि फिल्म वालों ने इसे ‘हिट’ करने के लिए नहीं पैदा किया, बल्कि यह फिल्म में चित्रित ‘घोर यथार्थ’ की प्रतिक्रिया से पैदा हुआ है। ऐसा होना ही था क्योंकि यह फिल्म ‘मिटा दिए गए सच’ को अचानक उजागर कर देती है, विस्मृत कर दिए गए पंडितों के ‘नरसंहार’ (होलोकॉस्ट) को अचानक पब्लिक में ले आती है। अच्छा है कि इस पर विवाद हुआ। न होता तो पता न चलता कि यह न सिर्फ ‘विक्टिमों’ की कहानी है, बल्कि ‘नरसंहार’ करने कराने वालों ‘बर्बरों’ की भी कहानी है, और जिस तरह से बहुत से ‘शिकार’ आज भी जिंदा हैं, उसी तरह उनके ‘शिकारी’ भी अभी जिंदा हैं! और इसीलिए फिल्म देखकर ‘जिहादियों’ के शिकार जहां रोते-चीखते हैं, वहीं उनके शिकारी हैं और शिकारियों के पक्षधर इस फिल्म पर हमला बोलते हैं क्योंकि यह उनकी ‘शिकारी की भूमिका’ की भी खबर देती है।
शायद इसीलिए ऐसे शिकारी फिल्म के डंक को निकालने और अपने को बचाने के लिए मीडिया में कई तरह के तर्क देते-दिलाते दिखते हैं जैसे कि फिल्म झूठ का पुलिंदा है, कश्मीर में पंडित ही नहीं मरे, उनसे ज्यादा मुसलमान मरे हैं, कि यह भाजपा का कुप्रचार है, यह घृणोन्माद फैलाती है, कि यह बिजनेस करती है, कि ‘तब’ शासन में हम नहीं भाजपा या उनके दोस्त थे और कि अब जख्म खोलने की जगह सौहाद्र्र चाहिए और फिर पूछते हैं कि बताइए तो, सात बरस से भाजपा ने कितने पंडितों को वापस बसाया? कहने की जरूरत नहीं कि इन ‘चोर तकरे’ में अब भी यही कहा जा रहा है कि जैसा फिल्म बता रही है वैसा कुछ नहीं हुआ : हिंदू मरे तो मुसलमान भी मरे, जो मरे वो भाजपादि के कार्यकाल में मरे, फिर सात साल से भाजपा ने कितनों को पुनर्वास दिया?
फिल्म से उठीं बहसें बताती हैं कि 1989-90 में इस्लामी जिहादियों ने कश्मीर को ‘इस्लामिक स्टेट’ बनाने का प्लान बनाया जिसे स्थानीय शासकों ने होने दिया। उन दिनों ‘लाउडस्पीकर’ पर ऐलान किए जाते थे कि पंडितों बहू-बेटियों को छोड़कर भाग जाओ नहीं तो मार देंगे। सैकड़ों को गोली मारी गई। जिंदा जलाया गया। हिंदू बच्चियों और महिलाओं का रेप किया गया। घर जला दिए गए, कब्जा कर लिए गए। नब्बे हजार पंडित भगाए गए लेकिन उस वक्त की सरकार ने कहा, ‘वे मर्जी से भागे हैं’ और इस तरह उनको ‘शरणार्थी’ का दरजा तक नहीं दिया। अदालत तक ने उनकी नहीं सुनी। अब भी कई इसे नरसंहार कहने की जगह ‘आत्म पलायन’ कहते हैं। इनमें से कई हिटलर द्वारा लाखों यहूदियों के नरसंहार पर तो आंसू बहाते हैं, लेकिन कश्मीर के ‘होलोकॉस्ट’ का होना नहीं मानते। एकाध तथाकथित ‘सेक्युलर चैनल’ को छोड़ अधिकांश मीडिया मांग कर रहा है कि इस नरसंहार की प्रामाणिक और गहन जांच जरूरी हैं। हमारी नजर में तो यह फिल्म अपने आप एक ‘एफआईआर’ है, अदालत चाहे तो ‘सुओ मोटो’ शिनाख्त ले सकती है।
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