सरोकार : अभी कई सौ कदम और चलने जरूरी
रहस्य-रोमांच से भरा एक ऐसा आख्यायित महीना जिसमें डूबने वाला और जिसमें उतरने वाला व्यक्ति आत्म विस्मृति की हद पर ऐसे संसार में लीन हो जाता है कि वहां से निकलना उसे प्रीतकर नहीं लगता।
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कुछ ऐसा ही रोमांच अगले एक हफ्ते तक सर चढ़ कर बोलने वाला है। जहां सब कुछ अतार्किक, जादुई और चमत्कार पूर्ण है। महिला दिवस सप्ताह जहां विकृतियों को नेपथ्य में धकेल अतिशय कृत्रिम सत्य को सजीव चितण्रके साथ अगले कुछ सप्ताह तक परोसा जाएगा। स्त्रियों के शौर्य, महिमामंडन, प्रतिभा प्रदर्शन के ख्याति गान के साथ इस तथाकथित विशेष सप्ताह की समाप्ति होगी। और सत्य का उद्घाटन, नैतिकता का स्थापन और आदर्शवादी दृष्टिकोण के साथ इस बेहद लोकप्रिय पखवाड़े को आगामी वर्ष के लिए नये अवतार तक पीछे धकेल दिया जाएगा। सब कुछ फॉर्मूलाबद्ध तरीके से चल रहा है।
थोड़ा अजीब है न जिस देश में आज भी स्त्रियां दहेज के नाम पर जला दी जाती हों, जहां आज भी उसके अस्तित्ववादी विचार दर्शन की धज्जियां उड़ाई जाती हो, जहां भोगे हुए सत्य को सत्ता तक पहुंचाने में सदियां बीत जाती जो, जहां आज भी अस्मत की चिंता जिन्हें दिन रात सताती हो,जहां नारी आज भी जुल्म की शिकार होती हो,जहां काम कुंठाओं से बिलबिलाती काम विकृतियां उसका शिकार करती हो, जहां आज भी जांघों के जंगल जैसे शब्दबोध के साथ उसकी आत्मा पर प्रहार किया जाता हो, जहां अपने लिए एक खुला कोना तलाशने वाली औरतें आवारा और बाजारू हो जाती हों; वहां महिला दिवस जैसी औपचारिकताएं ओढ़ा हुआ मैनिरज्म और छद्म औपचारिकता ही दिखती है। महिला दिवस के इस बनावट और आडंबर में वे आत्मरति के भाव से खुद को निहारकर प्रबल मोह से बाहर नहीं निकल पाती और ढोंग में फंसकर आत्ममुग्धता का शिकार होती रहती है। दरअसल, ये असलियत छुपाने का प्रपंच है।
आइए जरा इस व्यर्थता बोध से इतर सच के प्रमाणिक आंकड़ों की ओर बढ़ें।
एनसीबी के पिछले पांच वर्षो के आंकड़े चीख-चीख कर गवाही देते हैं कि देश में हर 13 मिनट में एक महिला बलात्कार का शिकार हुई है, हर दिन एक महिला का सामूहिक बलात्कार हुआ है, हर 69 में एक औरत दहेज के लिए हत्या कर दी गई और हर महीने 19 महिलाएं तेजाब के हमले का शिकार हुई हैं और 112 लड़कों पर महज 100 लड़कियां सांस ले रही हैं। यौन उत्पीड़न के 1466, जबरन श्रम के 1452 और घरेलू दासता के 846 मामले दर्ज किए गए और सबसे बढ़कर निर्भया फंड से बने वन स्टॉप सेंटर, फास्ट ट्रैक स्पेशल कोर्ट के बावजूद देश में महिलाओं के खिलाफ घरेलू हिंसा के मामलों में पिछले 6 साल से अपराध कम नहीं हुए हैं। उनकी पीड़ा संत्रास, कुंठा, और व्यर्थता बोध के विश्लेषण का समय न तो समाज के पास है न देश के पास। नारी की सुरक्षा खतरे में है, घर और समाज में वो द्वितीयक है, उसकी सफलता दोषयुक्त चरित्र की परिचायक है और बौद्धिकता के बावजूद कार्यस्थल पर उसकी प्रतिभा शंका के घेरे में है। आजाद ख्याली उसकी यौन शुचिता पर सवाल उठाती है। ऐसे में महिला दिवस जैसी औपचारिकताओं के जरिए उसके छद्म सम्मान का क्या औचित्य। जाहिर है इस दिशा में अभी कई सौ कदम और चलने की जरूरत है। महिलाएं अपने निजी भावना और निजी अनुभवों की अभिव्यक्ति के लिए स्वतंत्रता और निजताबोध के साथ आगे बढ़े तो परिवर्तन को सांकेतिक माना जाए।
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