घृणा फैलाने की कवायद : सत्ता मौन क्यों?
धर्मसंसद के नाम पर इन दिनों कुछ संतवेशधारियों द्वारा हरिद्वार से रायपुर तक घृणा फैलाने की जैसी कवायदें की जा रही हैं, और उन्हें लेकर सत्ताधीशों ने बुद्धिमत्तापूर्वक जैसा मौन साध रखा है, उसके कारणों की तहें देखनी हों तो कुछ साल पीछे जाना पड़ेगा।
![]() घृणा फैलाने की कवायद : सत्ता मौन क्यों? |
2014 के लोक सभा चुनाव में खुद को ‘विकास का महानायक’ प्रचारित कर शानदार जीत हासिल करने वाले नरेन्द्र मोदी ने 2019 के लोक सभा चुनाव में खुद को फिर से ‘शक्तिशाली और गौरवान्वित हिंदू’ की छवि का बंदी बना लिया और मुसलमान व पाकिस्तान विरोध पर निर्भर करने लगे थे। इसकी बिना पर 2014 से भी ज्यादा शानदार ढंग से सत्ता में वापस आ गए तो ‘सबका साथ, सबका विकास’ के नारे के बावजूद साफ था कि उनकी सत्ता के अगले पांच साल कम-से-कम अल्पसंख्यकों के लिए बहुत कठिन सिद्ध होने वाले हैं।
यह आशंका पहले उनकी सरकार के ‘राजनीति के हिंदूकरण और हिंदुओं के सैन्यीकरण’ के सावरकर मार्का कदमों के रास्ते नागरिकता कानून में किए गए संशोधन में सच्ची होती दिखी, फिर एक क्रोनोलॉजी के तहत राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर बनाने के इरादे में। क्या आश्चर्य कि वह आशंका कई मोड़ से गुजर कर अब उन संतवेशधारियों, जिनको गुमान है कि मोदी सरकार तो उनके ही आशीर्वाद से चुनकर आई है और उनका बाल भी बांका नहीं कर सकती, द्वारा अल्पसंख्यकों के संहार के आह्वान तक पहुंच गई है। इसमें भी चकित होने जैसा कुछ नहीं कि सर्वोच्च न्यायालय से इसका संज्ञान लेने की मांगों के बावजूद प्रधानमंत्री मोदी, खुद को सांस्कृतिक बताने वाला उनका राजनीतिक परिवार और उनकी शुभचिंतक कतारें, इसका संज्ञान लेने को उत्सुक नहीं हैं।
प्रधानमंत्री की चुप्पी को लेकर कुछ लोग चकित हैं। विश्वास नहीं कर पा रहे कि यह वही प्रधानमंत्री हैं, जिन्होंने सत्ता में आते ही ‘स्वच्छ भारत’ समेत कई अभियानों को महात्मा का बता कर आगे बढ़ाया और उनके चश्मे को ‘स्वच्छ भारत’ का प्रतीक बनाया था। एकबारगी लगा था कि सत्ता के मोह और दबाव में ही सही, प्रधानमंत्री, उनका अब परिवार और समर्थक व शुभचिंतक कतारें, महात्मा के प्रति पुराने दुराग्रहों को पीछे छोड़ देंगी, लेकिन विडम्बना देखिए : उसके समर्थक संतवेशधारी महात्मा के हत्यारे का मन्दिर बनाने और उनके पुतले पर गोली चलाने वालों को शह-समर्थन का पुराना मार्ग ‘प्रशस्त’ करते हुए उन दुराग्रहों को नये रूप में प्रकट कर रहे हैं तो एक तो उनकी ‘अभिव्यक्ति’ की आजादी को असीम कर दिया गया है, और दूसरे प्रधानमंत्री अपनी सरकार व परिवार के साथ उनका मूक समर्थन कर रहे हैं। यह भी याद नहीं रख पा रहे कि सर्वोच्च न्यायालय ने 2015 में 16 अप्रैल को व्यवस्था दी थी कि महात्मा गांधी को अपशब्द नहीं कहे जा सकते। कहा था कि कलात्मक स्वतंत्रता के नाम पर भी महात्मा को लक्ष्य कर कहे गए अपशब्दों को सही नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि ’विचारों की आजादी’ और’ शब्दों की आजादी’ में अंतर है और राष्ट्रपिता का सम्मान करना देश की सामूहिक जिम्मेदारी है।
इतना ही नहीं, 8 मई, 2018 को दिल्ली की रोहिणी अदालत ने उन दिनों आम आदमी पार्टी की राजनीति कर रहे वरिष्ठ पत्रकार आशुतोष के खिलाफ 2016 के आप नेता संदीप कुमार के अश्लील सीडी कांड में महात्मा गांधी, नेहरू और बाजपेयी के खिलाफ अभद्र टिप्पणियों को लेकर केस दर्ज करने का आदेश दिया था क्योंकि उसकी नजर में यह गंभीर बात थी। अब सोचिए, इन नजीरों के बावजूद महात्मा को गालियां देने वालों को अभय किए रखने का क्या अर्थ है? क्या यही नहीं कि भले ही महात्मा के जीवन से हमारे स्वतंत्रता आंदोलन का बड़ा हिस्सा अनुप्राणित होता रहा और स्वातंत्र्योत्तर राष्ट्रीय जीवन प्रेरणा पाता रहा है, यह सरकार और उसके हिमायती मिलकर उनका पूरी तरह अवमूल्यन कर देना चाहते हैं? अन्यायी सत्ताओं के प्रतिरोध के लिए उन्होंने सत्य-अहिंसा जैसे अप्रतिम औजारों का जैसा अनूठा प्रयोग हमें सिखाया और जो अभी भी नाना प्रतिरोधों में हमारे काम आता है, संभवत: इस सरकार की निगाह में आउटडेटेड हो चले हैं? वैसे ही, जैसे कई लोग हमारे समय को उत्तर सत्य का युग कहकर सत्य की अप्रतिष्ठा को जायज ठहराते रहते हैं। क्या यह रवैया सिर्फ इसलिए नहीं है कि जब महात्मा ब्रिटिश साम्राज्य के अत्याचारों से मुक्ति दिलाने के लिए उक्त हथियारों का प्रयोग कर रहे थे, इस सरकार का नेतृत्व कर रही भाजपा के पूर्वपुरु ष उसी साम्राज्य का हुक्का भर रहे थे और महात्मा को अवमूल्यित किए बिना उन्हें ‘राष्ट्रनायक’ बनाना संभव नहीं है? इसीलिए हिंदुत्व की पैरोकारी का दावा करते हुए भी वह और उसके लोग महात्मा जैसे सदी के सर्वश्रेष्ठ हिंदू को भी बर्दाश्त नहीं कर पा रहे और उनकी चरित्रहत्या पर आमादा हैं?
आज की तारीख में कोई नहीं कहता, यहां तक कि महात्मा के अनुयायी भी नहीं, कि वे सर्वथा अनालोच्य हैं, या स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान उनकी भूमिका पर उंगलियां ही नहीं उठाई जा सकतीं। उंगलियां तो उनके रहते भी उठती थीं। स्वतंत्रता आन्दोलन की क्रांतिकारी धारा तो उनकी अहिंसा की नीति की मुखर आलोचक थी ही, उनके कई कार्यक्रमों को लेकर वामपंथियों और अंबेडकर द्वारा की जाने वाली आलोचनाएं भी कम न थीं। लेकिन अफसोस ही जताया जा सकता है कि हत्यारे को भी मात करते हुए मन के बजाय कपड़े रंगाने वाले लोग इस तरह हमारी सभ्यता व लोकतांत्रिकता तक को चुनौती पेश कर रहे हैं, फिर भी एक अपवाद को छोड़कर उन पर कार्रवाई नहीं की जा रही? क्यों?
जवाब तलाशें तो सत्ताधीशों का अपराध इन कुवाचियों से भी बड़ा दिखता है क्योंकि उन्होंने संविधान के तहत चुनाव लड़ा, शासन चलाने की शपथ ले रखी है। इस नाते राष्ट्र के नायकों के मान की रक्षा उनका प्राथमिक कर्त्तव्य है। सत्ताधीशों को लगता है कि इस तरह वे महात्मा या उनके विचारों से हिसाब-किताब बराबर कर लेंगे तो उन्हें याद रखना चाहिए कि अतीत में खुद को महात्मा का अनुयायी कहने वाले कई महानुभाव भी ऐसे हिसाब-किताब की कोशिशें कर चुके हैं-उनके रास्ते को कठिन, अव्यावहारिक या अप्रासंगिक बताकर और छोड़कर। लेकिन ऐसे हर हिसाब-किताब के बाद,एक फिल्मी गीत के शब्द उधार लेकर कहें तो यही सिद्ध हुआ है कि ‘बंदे में था दम’। दम नहीं होता तो उसके जाने के इतने दशकों बाद भी उसके निंदकों को यह हिसाब-किताब अधूरा क्यों लगता और वे उसे निपटाने की इतनी हड़बड़ी में क्यों होते?
| Tweet![]() |