सरोकार : वर्ग वर्चस्व को चुनौती देती औरत

Last Updated 02 Jan 2022 02:04:31 AM IST

औरत एक तनी हुई प्रत्यंचा की तरह पुरुष के सामने बैठी हुई है। उसे कोई संकोच नहीं, कोई भय या त्रास नहीं। और न ही उसके मन में कहीं कोई पछतावा है।


सरोकार : वर्ग वर्चस्व को चुनौती देती औरत

वह जो कर-कह रही है, अपनी इच्छा, चेतना से अनुप्राणित होकर। और उसकी यही सीधी तनी हुई प्रत्यंचा समाज के एक वर्ग के वर्चस्व को चुनौती देती है। हाल की एक घटना से इस समूचे ताने बाने को समझा जा सकता है।

देश का एक नामचीन विविद्यालय एक बार फिर अपनी एक टिप्पणी को लेकर सुर्खियों में है। ताजा विवाद जेएनयू प्रशासन के एक परिपत्र के एक वाक्य को लेकर है, जिसमें लड़कियों को लड़कों से दूर रहने की हिदायत दी गई है। दरअसल, प्रशासन की ओर से गठित आंतरिक शिकायत समिति की ओर से यौन उत्पीड़न पर काउंसलिंग सत्र के आयोजन पर एक सकरुलर जारी किया गया था, जिसमें कहा गया था कि लड़कियों को जानना चाहिए कि उनके और उनके पुरुष मित्रों के बीच एक ठोस रेखा कैसे खींचनी है।

मतलब यह कि लड़कियों को यौन उत्पीड़न से बचने के लिए खुद रेखा खींचनी चाहिए। जाहिर है एक ऐसे विविद्यालय, जो लिंग असमानता से परे समानता, समावेशीकरण और आत्म-सजगता के लिए जाना जाता रहा है, की ओर से ऐसी टिप्पणी का आना अनपेक्षित रूप से खटकता है। जेएनयू ने हमेशा व्यक्ति के अस्तित्व को अर्थ-विस्तार दिया है। कथनी-करनी के द्वैत को पाटकर अर्थवान बनना सिखाया है, वहां ऐसे खोखलेपन की कतई जगह नहीं।

देश के अलग-अलग कोनों से हजारों की तादाद में ज्ञानार्जन के लिए आने वाले विद्यार्थियों को विद्या के इस मंदिर में जो गतिशीलता, जो उदात्तता और जो विस्तार मिलता है, वो कहीं और संभव नहीं। ऐसे में मोरल पुलिसिंग का यह एकपक्षीय रवैया अखरता है। इस तरह के महिला विरोधी विचार मानसिक क्षुद्रता के परिचायक हैं। कई महिला संगठनों ने माना कि इससे समस्याएं कम नहीं, बल्कि और बढ़ेंगी। हालांकि सुखद है कि राष्ट्रीय महिला आयोग की कड़ी टिप्पणी के उपरांत प्रशासन की ओर से इस वाक्य में संशोधन कर लिया गया है।

लेकिन सवाल उठता है कि समाज की टेड़ी नजर की शिकार सिर्फ  महिलाएं ही क्यों होती हैं। क्यों सारी हिदायतें, सीमा बंधनों की सारी रवायतें, सारा नैतिक ज्ञान उन्हीं के हिस्से आता है। ऐसा तो नहीं कि वे समाज की कलुषित सोच और सुनियोजित चाल की शिकार हो रही हों जिसके जरिए उनकी मुक्ति के मार्ग को आसानी से अवरु द्ध किया जा रहा हो। आज की शिक्षित नारी अपनी इच्छा-आकांक्षा, पसंद-नापसंद अथवा सत्य-असत्य का खुद निर्धारण करना जानती है। अपने मन, आत्मा यहां तक कि देह को अपने ढंग से बरतने का अधिकार चाहती है। फिर समाज अनायास लकीरें खींच कर क्यों उसे कुंठित और यंतण्राप्रद स्थिति में डालना चाहता है।

विशेषकर विद्या के मंदिरों को तो औरत-पुरुष और समाज की व्यर्थता, निरु द्देश्यता और संकुचित अनर्गल पल्रापों के अंतर्विरोध से बाहर निकलने की जरूरत है। उन्हें संकुचन से परे आदर्शीकरण की आधारशिला रखनी चाहिए ताकि समसामयिकता के केंद्र में गहन समतावादी मूल्यों को और अधिक प्रभावशाली तरीके से प्रस्तुत किया जा सके। मौजूदा समय लैंगिकता के संकीर्ण विभाजन का नहीं, अपितु समस्त समतावादी मूल्यों, आशाओं, आकांक्षाओं और समावेशी विचारों को दृढ़ता के साथ स्थापित करने का है।

डॉ. दर्शनी प्रिय


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