कृषि कानून का विरोध : यह जिद खतरनाक है

Last Updated 23 Nov 2021 12:27:02 AM IST

नि:स्संदेह, जिनने भी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा तीनों कृषि कानूनों की वापसी तथा देश से क्षमा मांगने की घोषणा के बाद उम्मीद की होगी कि अब दिल्ली की सीमा से धरनाधारी वापस चले जाएंगे उन्हें गहरा आघात लगा है।


कृषि कानून का विरोध : यह जिद खतरनाक है

हालांकि कृषि कानून विरोधी आंदोलन और धरने पर गहराई से दृष्टि रखने वाले जानते थे कि यह कहीं पर निगाहें और कहीं पर निशाना वाली कुटिल और घातक राजनीति है।
प्रधानमंत्री राष्ट्र के संबोधन में कह रहे हैं कि संसद के अगले सत्र में विधेयक लाकर इसे वापस कर दिया जाएगा, लेकिन इनको उन पर विश्वास नहीं है। क्या इस शर्मनाक सोच और हरकत की कल्पना की जा सकती है कि प्रधानमंत्री वचन दे रहे हैं और ये कह रहे हैं कि जब तक संसद से वापस नहीं होगा धरना खत्म नहीं करेंगे। संयुक्त किसान मोर्चा की बैठक के बाद तथा उसके पहले राकेश टिकैत के वक्तव्यों पर ध्यान दें तो साफ दिख जाएगा कि ये किसी न किसी बहाने डटे रहने की रणनीति बना चुके हैं। संसद से कानूनों की वापसी हो, किसानों से मुकदमे वापस हों, एमएसपी गारंटी कानून बने और उसके लिए किसानों के साथ बातचीत आरंभ हो यानी जब तक बातचीत होती रहेगी धरना जारी रहेगा। ये पूर्व घोषित कार्यक्रम भी जारी रखेंगे। महापंचायत के बाद 26 नवम्बर को धरना के एक साल पर जगह-जगह ट्रैक्टर और बैलगाड़ी परेड, प्रदर्शन और संसद सत्र की शुरु आत पर 29 नवम्बर को संसद कूच। एक नेता बयान दे रहे हैं कि जितने किसानों की जान गई सबको शहीद का दर्जा मिले, मुआवजा मिले तथा प्रधानमंत्री, मंत्री, भाजपा एवं सरकार के प्रवक्ता माफी मांगे।
कृषि और किसानों की समस्याओं का निदान, उनकी आर्थिक स्थिति में सुधार आदि से बिल्कुल जरूरी है। किसानों को उपज का लाभकारी मूल्य मिले तथा खेती की लागत कम होना भी आवश्यक है। व्यावहारिक बात यही है कि कृषि हो या उद्योग या सेवा क्षेत्र, केवल सरकार से स्थिति में अनुकूल बदलाव संभव नहीं। यह मांग लंबे समय से थी कि उद्योगों की तरह कृषि क्षेत्र में भी निजी क्षेत्र को निवेश करने का कानूनी एवं ढांचागत आधार दिया जाए। उसके अनुसार ये कानून लाए गए थे। यह इन्हें मंजूर नहीं। आंदोलन के संदर्भ में सरकार की भी समस्या समझ नहीं आई। इसका देशव्यापी व्यापक असर नहीं। सारी कोशिशों के बाद भी पंजाब, पश्चिम उत्तर प्रदेश के कुछ जिले, उत्तराखंड के तराई तथा हरियाणा के कुछ क्षेत्रों को छोड़कर इसका असर ही नहीं। लंबे समय से धरने के तंबुओं में लोगों की कमी साफ  थी। एक निहायत ही जनिवहीन और निष्प्रभावी आंदोलन या धरना सरकार के गले की हड्डी बन गई तो इसमें उसकी सोच और रणनीति का ही दोष है। कृषि क्षेत्र में सुधार का साहस कोई सरकार नहीं दिखा सकी थी। इस कदम के बाद सरकारें आवश्यक नीतिगत और ढांचागत बदलाव के लिए के लिए आगे नहीं आएंगीं, जिनकी वाकई कृषि को आवश्यकता है।

इन धरनाधारियों की नजर में उनकी विजय है तो मुबारक हो। इसकी पूरी खुफिया रिपोर्ट थी कि आंदोलन को थोड़ा बलपूर्वक भी हटा दिया गया तो  इसका कोई व्यापक जन विरोध नहीं होगा। हां, विशेष एजेंडे से पीछे खड़े समूह हर तरह की खुराक आंदोलन को दे रहे हैं और अपने एजेंडे के तहत हिंसा, अशांति जरूर पैदा करने की कोशिश करेंगे। इन धरनों के पीछे की ताकतों का लक्ष्य नरेन्द्र मोदी, उनकी सरकार भाजपा और संघ को हरसंभव क्षति पहुंचाना है। प्रधानमंत्री भले देश से क्षमा मांग लें कि वह किसानों के इस छोटे समूह को कृषि कानूनों के बारे में समझा नहीं सके इनको इस भावना से लेना-देना नहीं। ऐसा लगता है जैसे प्रधानमंत्री से ज्यादा साख और विसनीयता इनकी है। आश्चर्य की बात है कि केंद्र सरकार के साथ पंजाब, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, दिल्ली आदि राज्यों के पास भी इसमें शामिल तत्वों तथा इनके माध्यम से उपद्रव कारी विघटनकारी समूहों की सक्रियता की सूचनाएं हैं। जिस तरह नागरिकता संशोधन कानून और राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर के विरोध के नाम पर शाही बाग का धरना मोदी सरकार, संघ, भाजपा और उनके समर्थकों के सभी विरोधियों का प्रत्यक्ष-परोक्ष केंद्र बन गया था; ठीक वही इसमें भी हुआ है।
अगर देश के आम लोगों को यह दिख रहा है तो प्रधानमंत्री या उनकी सरकार या अन्य सरकारों को नहीं दिखे यह कैसे संभव है? इस आंदोलन के पीछे की अनैतिक सोच और दुरभिसंधियों को देखने के बाद साफ था कि एक मांग मानी जाएगी तो दूसरा मांगे, दूसरा मानेंगे तो तीसरा, फिर चौथा, पांचवा..इस तरह अनवरत क्रम रहेगा। राकेश टिकैत और उनके भाई नरेश टिकैत अपने पिता स्वर्गीय महेंद्र सिंह टिकैत के कार्यकाल में उनके उत्तराधिकारी नहीं बन पाए और इनके हस्तक्षेप के कारण भारतीय किसान यूनियन टूटता चला गया। महेंद्र सिंह टिकैत अपने जीवन के अंतिम दशक में लोकप्रियता खो चुके थे और उनके पुराने साथी उन्हें छोड़ चुके थे। लंबे समय तक ये अपने संगठन को ताकत नहीं दे सके तथा चुनाव में इनकी जमानत जब्त हो गई। इस समय पूरा देश और भारत में रुचि रखने वाला विश्व समुदाय इनको जानने लगा है। ऐसी हैसियत का कोई परित्याग करेगा? आश्चर्य की बात है कि विपक्षी दल मोदी, उनकी सरकार और भाजपा के विरु द्ध होने के कारण ऐसे आंदोलन को समर्थन नहीं और ताकत उपलब्ध करा रहे हैं।
यह राजनीति खतरनाक है, शेर की सवारी है। स्थाई रूप से आप सवार रह नहीं सकते और उतरेंगे तो शेर आपको खा जाएगा। ऐसी राजनीति किसी के हित में नहीं। किसी को लगता है कि उसकी पार्टी को इसका राजनीतिक लाभ चुनाव में मिल जाएगा तो अभी भी जनता की नब्ज पर उनका हाथ नहीं है। आगामी विधानसभा चुनाव के जो भी परिणाम आएंगे कृषि कानून विरोधी आंदोलन का उससे कोई संबंध नहीं होगा। प्रधानमंत्री की घोषणा तथा अपील के बाद धरने खत्म होने चाहिए। यह जिद सभी के लिए घातक है। धरने में शामिल और समर्थन करने वाले कई समूह और व्यक्ति इसे खत्म करना चाहते हैं,  लेकिन कुटिल रणनीति वाले ऐसी स्थितियां पैदा कर रहे हैं ताकि वो इसका साहस नहीं कर सके। अब सरकार एवं पूरे देश को तय करना है कि इस तरह की जिद करने वाले अनैतिक और कुटिल सोच तथा उनके चेहरा बने लोगों के साथ किस तरह पेश आया जाए।

अवधेश कुमार


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