जनजातीय गौरव दिवस : एक सार्थक पहल
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली मंत्रिपरिषद द्वारा स्वतंत्रता के ‘अमृत महोत्सव’ में एक महत्त्वपूर्ण निर्णय के तहत भगवान बिरसा मुंडा के जन्म दिवस 15 नवम्बर को ‘जनजातीय गौरव दिवस’ घोषित किया गया है।
![]() जनजातीय गौरव दिवस : एक सार्थक पहल |
जनजाति समाज में जन्मे भगवान बिरसा मुंडा सहित जनजाति समाज के अनेक वीरों के प्रति यह सच्ची श्रद्धांजलि है।
देश में 2011 की जनगणना के अनुसार 10.43 करोड़ की जनसंख्या जनजाति समाज की है, जो कुल जनसंख्या का 8.6 फीसद है। करीब 705 जनजाति समूह हैं, जो देश भर में फैले हैं। इनमें लगभग 75 समूह ऐसे हैं, जो देश की मुख्यधारा से आज भी अलग हैं। ये जनजातियां हस्तकला, परंपरागत काष्ठ कला आदि के माध्यम से देश की आर्थिक प्रगति में महती योगदान दे रही हैं। श्रम साध्य जीवन शैली, शस्त्र एवं धनुर्विद्या में निष्णांत होने के कारण खेलों में जनजातियों का योगदान नहीं भुलाया जा सकता। छह बार की विश्व चैंपियन बॉक्सर मैरीकॉम, राजनेता जयपाल सिंह मुंडा, तीरंदाज कोमालिका बारी, हॉकी खिलाड़ी दिलीप तिर्की जैसी महान विभूतियों प्रत्येक भारतीय गर्वान्वित है। अनेक जनजातियां अपना संबंध भगवान राम के साथ, छत्तीसगढ़ में मां कौशल्या के साथ, उत्तर पूर्वाचल में भगवान कृष्ण एवं उनकी पत्नी रुक्मणी के साथ जोड़ती हैं। देहरादून में लाखामंडल (लाक्षागृह) एवं जौनसार में प्रचलित बहुपति प्रथा को पांडवों के साथ जोड़कर देखा जाता है। मणिपुर के लोग रुक्मणी को अपना मानते हैं। उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश सहित भारत और नेपाल के तराई भागों में फैली थारू जनजाति महाराणा प्रताप का वंशज मानने में गौरव का अनुभव करती है। थारू जनजाति के प्रत्येक परिवार के पूजा स्थान में हल्दीघाटी की पवित्र मिट्टी आज भी विद्यमान है।
अलाउद्दीन खिलजी के धार (मध्य प्रदेश) पर आक्रमण के कारण वहां के राज परिवार से संबंधित राजा जगत देव अपनी आराध्य देवी बाल सुंदरी का विग्रह लेकर आज के उत्तराखंड में आए थे, जो बुक्सा जनजाति के नाम से जाने जाते हैं। उनके द्वारा स्थापित संपूर्ण समाज द्वारा काशीपुर (उत्तराखंड) में बाल सुंदरी की देवी स्वरूप उपासना वर्तमान में भी होती है। अंग्रेजों के विरुद्ध चलने वाले स्वतंत्रता संग्राम में जनजाति समाज के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। 15 नवम्बर, 1875 को झारखंड के खूंटी जिले के भगवान बिरसा मुंडा इन्हीं स्वतंत्रता सेनानियों में से थे। उन्होंने 13 अक्टूबर, 1894 को लगान माफी के लिए आंदोलन किया। तीर कमान लेकर मुंडा नौजवान अंग्रेजों के खिलाफ खड़े हो गए। दंडस्वरूप बिरसा मुंडा को दो वर्ष हजारीबाग की जेल में कारावास भोगना पड़ा। अकाल पीड़ितों की सहायता करने के कारण लोगों ने उनको ‘धरती बाबा’ कहकर भगवान मानना प्रारंभ किया। भगवान बिरसा मुंडा के साथ-साथ तिलका मांझी, नागा रानी गाइदिन्ल्यू, ताना भगत, सुरेंद्र साए सहित अल्लूरी सीताराम राजू के योगदान को भुलाना इन महापुरुषों के प्रति अन्याय ही माना जाएगा। स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए संथाल विद्रोह 1855, खासी विद्रोह असम, फूकन एवं बरुआ विद्रोह, नगा संग्राम नागालैंड, भूटिया लेप्चा विद्रोह बंगाल, पलामू विद्रोह, खरवाड़ विद्रोह, संथाल क्रांति, टटया मामा विद्रोह (मध्य प्रदेश), केरल के आदिवासी किसानों की क्रांति आदि अनेक आंदोलन हैं, जिन्होंने अंग्रेजी शासन की नींव हिला दी। उत्तर से दक्षिण एवं पूर्व से पश्चिम कोई क्षेत्र एवं जनजाति ऐसी नहीं है, जिसका स्वतंत्रता आंदोलन में योगदान न हो।
जनजाति समाज की सनातन परंपरा, धर्मभक्ति एवं स्वतंत्रता के प्रति समर्पण के साथ वीरत्व भाव को देखकर साम्राज्यवादी शक्तियों ने उन्हें शेष समाज से काटने के लिए उनके बीच में अलगाव के बीज बोने शुरू किए। सनातन भारतीय परंपरा से अलग करने का सुनियोजित एवं व्यापक षड्यंत्र 18वीं सदी से ही प्रारंभ हो गया था। ईस्ट इंडिया कंपनी, इंग्लैंड प्रेरित विद्वान एवं चर्च मिशनरीज, तीनों ने मिलकर ब्रिटिश सत्ता को सुदृढ़ करने के लिए कार्य का विभाजन किया। मिशनरीज के पास तथाकथित अस्पृश्य एवं जनजाति समाज (आदिवासी) को भारतीय सनातन परंपरा से अलग करने का काम आया था। अलगाव, मिथ्या एवं भ्रामक प्रचार के 13 सूत्री एजेंडे का यह 12वां बिंदु था। प्रसिद्ध पत्रकार एवं लेखक अरु ण शौरी ने अपनी पुस्तक ‘भारत में ईसाई धर्म प्रचार तंत्र’ में इसका विषद् वर्णन किया है। स्वतंत्रता के पश्चात मिशनरीज के इस अभियान में वामपंथी संगठन, तथाकथित धर्मनिरपेक्षतावादी लेखक एवं पत्रकार भी जुड़ गए। जनजाति समाज में छोटी-छोटी पहचान को प्रचारित करके अलगाव के माध्यम से यह षड्यंत्र आज तक भी जारी है।
परिणामत: वनवासी समाज अपनी परंपरा एवं महापुरु षों से कटता गया एवं ईसाई धर्म में धर्मातरित होता गया। नये-नये आतंकी संगठन एवं अलगाव के आंदोलन खड़े होते गए। उत्तर पूर्वाचल के अनेक राज्यों सहित छत्तीसगढ़, झारखंड, ओडिशा जैसे जनजाति प्रभाव वाले राज्यों में इसके उदाहरण देखे जा सकते हैं। ईसाइयत एवं साम्राज्यवादी विस्तार के उद्देश्य से यूरोपीय आक्रमणकारी अनेक देशों में गए। वहां जाकर उन्होंने वहां की रहने वाली मूल जातियों के साथ अत्याचार किए एवं नृशंस हत्या की। भयभीत होकर ये मूल निवासी जंगलों में चले गए। ऑस्ट्रेलिया, अफ्रीका, अमेरिका, न्यूजीलैंड सहित दुनिया के अनेक देशों में इतिहास इन घटनाओं से भरा पड़ा है। 9 अगस्त ‘विश्व आदिवासी दिवस’ मनाना उनका प्रायश्चित प्रयास मात्र ही है।
भारत में पश्चिमी देशों के समान कोई हिंसा एवं जनजाति समाज को अपने स्थान से उखाड़ने अथवा भगाने की घटना नहीं हुई क्योंकि भारत में जनजाति समाज भी शेष ग्राम, नगरीय समाज के समान ही संपूर्ण समाज का अंग माना जाता रहा है। इस कारण संयुक्त राष्ट्र द्वारा घोषित ‘विश्व मूल निवासी’ दिवस 9 अगस्त को भारत में मनाने की आवश्यकता नहीं थी। भारत में कोई बाहर से नहीं आया वरन सभी मूल निवासी ही हैं। सुदूर पहाड़ों एवं जंगलों में फैले जनजाति समाज की संस्कृति व गौरवपूर्ण परंपरा को देश के सम्मुख लाने के लिए ‘जनजातीय गौरव दिवस’ मील का पत्थर साबित होगा। भगवान बिरसा मुंडा का जन्म दिवस 15 नवंबर इसके लिए सर्वथा उपयुक्त है। देश व जनजाति समाज का गौरव बढ़ाने वाले हुतात्माओं के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि है, इस शुभ दिवस पर हम मोदी सरकार आभार जताते हुए जनजाति समाज के सहयोग व अलगाववादी शक्तियों को पराजित करने का संकल्प लें।
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