अतिक्रमण : लुप्त हो रही लोक संस्कृति
किसी भी भौगोलिक क्षेत्र में पनपी आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक संरचना वहां के पर्यावरण तंत्र पर आधारित होती है।
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प्रकृति के अंतर्गत शुष्क या अर्ध-शुष्क क्षेत्रों पर दृष्टि डालने से प्रतीत होता है कि इनका भूप्रबंध कुदरत के सदुपयोग पर जोर देता था। काश्त के क्षेत्र-गोचर, तालाब, जोहड़, बांध, नदी क्षेत्र भराव इत्यादि में वर्गीकृत थे। रियासतकालीन भू-आलेख डिजिटल न होते हुए भी व्यापक एवं सटीक जानकारी देते थे, जिसको समय-समय पर पैमाक्षशों द्वारा अद्यतन किया जाता था। रियासत काल में किसानों को जमीन का मालिकाना हक न होने एवं प्रशासन का अतिक्रमण विषय में हस्तक्षेप न होने के कारण न तो इन पर कोई नियंत्रण सम्भव था एवं न ही भूमि उपयोग में परिवर्तन।
भूमि का प्रकृति आधारित उपयोग-उपभोग भूजल पुनर्भरण क्षेत्रीय वनस्पति, पशु-पक्षियों, भूमिहीनों, जमीन एवं पानी के अंदर-बाहर रहने वाले जीवों के द्वारा ही होता था। इस प्रक्रिया में सुरक्षित गोचर क्षेत्रों द्वारा गाय, ऊंट, भेड़ों-बकरियों एवं अन्यों का वषर्भर चारागाह एवं पानी उपलब्ध कराया जाता था। यहां तालाब, बांध, गोचर इत्यादि के लिए भूमि का उपयेग धर्म द्वारा निषिद्ध कर दिया गया था। इन क्षेत्रों को राजा भी अपने उपयोग में नहीं लाया करते थे। इन सुरक्षित क्षेत्रों में दुर्लभ वनस्पतियां पाई जाती थीं। यहां के जलाशयों में कई देशों से प्रवासी पक्षी-कुर्जा, साइबेरियन क्रेन, ग्रेटर फ्लेमिंगो, रफ, वुड-सैंडपाइपर सात समंदर पार से आते थे। यहां पशु-पक्षियों की सांस्कृतिक विरासत समृद्ध हो रही थी। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद सांस्कृतिक क्षरण होना शुरू हुआ। यहां आजादी के बाद लागू भूमि सुधारों के कारण काश्तकारों को भू-स्वामित्व अधिकार मिले।
स्वतंत्रता से पूर्व भूमि का स्वामित्व केवल कुछ ही लोगों-राजाओं, नवाबों, सामंतों-के पास थे। भूमि सुधार कार्यक्रमों के कारण अनुपस्थित भू-धारियों का खात्मा हुआ। देश के भू-संसाधन का बराबर बंटवारा हुआ। किसानों का सशक्तिकरण हुआ एवं खाद्यान्न उत्पादन बढ़ा। सन् 1950 से 1960 के दशक में भू-स्वामित्व के कानून विभिन्न राज्यों में अधिनियमित किए गए, जिन्हें केंद्र सरकार द्वारा संशोधित किया गया। हम हरित क्रांति के युग में तो आ गए किंतु संस्कृति को छोड़ते गए। आधुनिकीकरण के दौरान अतिक्रमण के कारण पशु-पक्षियों, वनस्पतियों, चारागाहों, आश्रित पशुपालकों को धीरे-धीरे हम खत्म करते गए। इनकी प्रजातियां शनै:-शनै: नष्ट होती गई। युवा पीढ़ी में संस्कार, नैतिकता, शिष्टाचार, सत्य, अहिंसा, सेवा और परोपकार की भावना लुप्त होती गई। साधनों और संसाधनों का प्रयोग गलत दिशा में ज्यादा प्रयोग किया जाने लगा। समयानुसार भूमि एक लाभकारी संसाधन के रूप में विकसित होती गई। फलस्वरूप सार्वजनिक उपयोग वाली जगहों पर बेतहाशा अतिक्रमण दिनों-दिन बढ़ता गया। नतीजतन जानवर-मानव संघर्ष शुरू हो गया और बाद में मानव-मानव संघर्ष में बदल गया। सदियों से प्रकृति आधारित भू-प्रबंध प्रणाली को काफी नुकसान पहुंचा है। ऐसी स्थिति में ग्रामीण अर्थव्यवस्था का एक ऐसा वर्ग जो पशुपालन एवं अन्य गतिविधियों जैसे-जड़ी-बूटी, शहद, गोंद, फल-फूल, मछली पालन, लकड़ी इत्यादि इकट्ठा कर जीवन-यापन करते थे सभी प्रभावित हुए हैं। स्वातंयोत्तर भारत में लापरवाह व गैर-जिम्मेदार नौकराही ने शात पर्यावरण तंत्र को बर्बाद करने में नकारात्मक भूमिका निभाई है। ऐसा उसने हरित क्रांति की आड़ एवं मानवीय लालच के चलते बेहिसाब कीटनाशकों एवं रासायनिक खाद इत्यादि का प्रयोग करके किया है।
आज श्वेत क्रांति में योगदान देने वाले ग्रामीण के हाथों में मोबाइल के साथ थैली बंद दूध है। पीने का पानी दूषित होने व फ्लोराइड युक्त होने के कारण आर.ओ. वाले पानी की आपूर्ति पर निर्भर हो रहे हैं। इससे गांव स्वावलम्बी होने की बजाए विकास की उल्टी दिशा में जा रहे हैं। पर्यावरण संतुलन में वन्य जीवों की भूमिका अति महत्त्वपूर्ण होती है। आजादी के ‘अमृत महोत्सव’ में पर्यावरण संरक्षण पर बल दिया गया। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का इस संदर्भ में आग्रह है कि हमें समावेश करने की तीव्र आकांक्षा की ओर जाना चाहिए। पशु-पक्षियों के बीच संतुलन और समावेश बनाकर चलना होगा। कुछ जगहों से अतिक्रमण हटाना आज भी संभव नहीं हो पा रहा है। अत: अतिक्रमणों के प्रति प्रशासनिक सहिष्णुता लोक संस्कृति को समाप्त कर रही है। इसके साथ ही जैव विविधता का भी लोप हो रहा है। प्रशासन द्वारा भौगोलिक क्षेत्र में अतिक्रमण पर रोक लगाना होगा और प्राकृतिक संरक्षण की विविध छवियों को सार्थक दिशा में आगे बढ़ाना होगा।
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