हिमालय : ये आत्मघाती हमला बंद हो!
हाल के वर्षो में देश के विभिन्न हिस्सों में पर्वतों का स्खलन एक भयावह स्तर तक पहुंच चुका है। पहले ऐसी दुर्घटनाएं केवल भारी वष्रा के बाद ही होती थीं। पर आश्चर्यजनक रूप से अब वे गर्मी में भी होने लग गई हैं।
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अभी पिछले हफ्ते ही दक्षिण की ओर जा रही एक रेलगाड़ी के पांच डिब्बे भूस्खलन के कारण पटरी से उतर गए। प्रभुकृपा से इस अप्रत्याशित दुर्घटना में कोई हताहत नहीं हुआ। पर हिमाचल प्रदेश व उत्तराखंड में तो भूस्खलन से भीषण तबाही होती आ रही है। जून 2013 की केदारनाथ की महापल्रय कोई आज तक भूला नहीं है। पर्वतों पर हुए भारी मात्रा में पेड़ों के कटान और बारूद लगाकर लगातार पहाड़ तोड़ने के कारण ये सब हो रहा है। फिर भी न तो हम जाग रहे हैं न हमारी सरकारें।
महत्त्वपूर्ण बात यह है कि विश्व की सभी पर्वत श्रृंखलाओं में हिमालय सबसे युवा पर्वतमाला है। इसलिए इसके प्रति और भी संवेदनशील रहने की जरूरत है। बावजूद इन सब अनुभवों के उत्तराखंड में 899 किलोमीटर का प्रस्तावित चारधाम सड़क परियोजना का काम सरकार आगे बढ़ाना चाहती है, जबकि यह परियोजना काफी समय से विवादों में है। पर्यावरण और विकास के बीच टकराव नया नहीं है। आजादी के बाद से सभी सरकारें हमेशा ‘विकास’ का हवाला देकर पर्यावरण के नुकसान को अनदेखा करती आई है। इस परियोजना को लेकर देश की रक्षा जरूरतों और पर्यावरण संबंधी चिंताओं के बीच एक गंभीर बहस पैदा हो गई है।
सरकार का कहना है कि देश की सेना हर वक्त बॉर्डर पर तैनात रहती है। कठिन परिस्थितियों के चलते सेना द्वारा सीमाओं की सुरक्षा करना काफी चुनौतीपूर्ण हो जाता है। इसी के चलते उत्तराखंड में केंद्र सरकार द्वारा ‘ऑल वेदर रोड प्रोजेक्ट’ को 2016 में शुरू किया गया। बाद में इसका नाम बदल कर ‘चारधाम परियोजना’ किया गया। इस प्रोजेक्ट में सड़कें चौड़ी करने के लिए अनेक पहाड़ों और हजारों पेड़ों को काटना पड़ेगा। इसीलिए देश के पर्यावरणविद् इस प्रोजेक्ट का कड़ा विरोध कर रहे हैं। फिलहाल ये मामला 2018 से सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है। दोनों पक्षों की सुनवाई के बाद कोर्ट ने अपना फैसला सुरक्षित रख लिया है। इस फैसले से यह साफ हो जाएगा कि सीमा सुरक्षा के लिए उत्तराखंड में सड़कों को चौड़ा करने की इजाजत मिलेगी या नहीं। कोर्ट में सुनवाई के दौरान सरकार की तरफ से अटार्नी जनरल ने यह भी बताया कि इस प्रोजेक्ट से युद्ध की स्थिति में, जरूरत पड़ने पर 42 फीट लंबी ब्रह्मोस जैसी मिसाइल को भी सीमा तक ले जाया जा सकता है। सरकार की मानें तो चीन के साथ बढ़ते तनाव के बीच यह सामरिक दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण परियोजना है। ऐसे में इस सड़क का 5 मीटर से 10 मीटर चौड़ा होना अनिवार्य है और यदि भूस्खलन होता भी है तो सेना उससे निपट सकती है। वहीं पर्यावरण के लिए काम करने वाले एक एनजीओ ‘सिटिजंस ऑफ ग्रीन दून’ ने कहा है कि इस प्रोजेक्ट की वजह से उत्तराखंड की भौगोलिक परिस्थियों को जबरदस्त नुकसान पहुंचेगा, जिससे भूस्खलन व बाढ़ का खतरा बढ़ जाएगा और वन्य व जलीय जीवों को भी नुकसान पहुंचेगा।
गौरतलब है कि सर्वोच्च अदालत ने इस मामले में 2018 में पर्यावरणविद रवि चोपड़ा के नेतृत्व में एक हाई पॉवर कमेटी बनाई थी। समिति के कुछ सदस्यों के बीच इस बात को लेकर मतभेद थे कि सड़कों को कितना मीटर चौड़ा किया जाए। जांच के बाद जुलाई 2020 में इस कमेटी ने दो रिपोर्ट कोर्ट को सौंपी थी। एक में कहा गया कि सड़कों को 5.5 मीटर तक चौड़ा किया जा सकता है, जबकि दूसरी रिपोर्ट में 7 मीटर तक सड़कें चौड़ी करने की सलाह दी गई। पर्यावरणविदों की मानें तो सड़क जितनी भी चौड़ी होगी उसके लिए उतने ही पेड़ काटने, रास्ते खोदने, पहाड़ों में ब्लास्ट करने और मलबा फेंकने की जरूरत पड़ेगी। अब सर्वोच्च अदालत ने याचिकाकर्ता से इस विषय में और सुझाव मांगे हैं, जिसके बाद कोर्ट को ये तय करना है कि इस प्रोजेक्ट में सड़क की चौड़ाई बढ़ाई जा सकती है या नहीं। यदि बढ़ाई जा सकती है तो कितनी।
दरअसल, इस तरह के आत्मघाती विकास के पीछे बहुत सारे निहित स्वार्थ कार्य करते हैं, जिनमें राजनेता, अफसर और निर्माण कम्पनियां प्रमुख हैं। क्योंकि इनके लिए आर्थिक मुनाफा ही सर्वोच्च प्राथमिकता होता है। जितनी महंगी परियोजना, उतना ही ज्यादा कमीशन। यह कोई नई बात नहीं है। मुंशी प्रेमचंद अपनी कहानी ‘नमक का दरोगा’ में इस तथ्य को 100 वर्ष पहले ही रेखांकित कर गए हैं। पर कुछ काम ऐसे होते हैं, जिनमें आर्थिक लाभ की उपेक्षा कर व्यापक जनहित को महत्त्व देना होता है। पर्यावरण एक ऐसा ही मामला है जो देश की राजनैतिक सीमाओं के पार जाकर भी मानव समाज को प्रभावित करता है। इसीलिए आजकल ‘ग्लोबल वाìमग’ को लेकर सभी देश चिंतित हैं। अब देश की राजधानी को ही लें। पिछले हफ्ते दिल्ली में प्रदूषण खतरनाक सीमा तक बढ़ गया। आपातकाल जैसी स्थिति हो गई। दूसरे देशों में ‘एयर क्वालिटी इंडेक्स’ 100 पहुंचते ही आपातकाल की घोषणा कर दी जाती है, जबकि दिल्ली में पिछले शुक्रवार को ‘एयर क्वालिटी इंडेक्स’ 471 पहुंच गया। अस्पतालों में सांस के मरीजों की संख्या अचानक बढ़ने लगी। बच्चों और बुजुगरे के लिए खतरा ज्यादा हो गया।
पिछले साल लॉकडाउन के 15 दिन बाद ही पूरी दुनिया में इस बात पर हषर्, उत्सुकता और आश्चर्य व्यक्त किया गया था कि, अचानक महानगरों के आसमान साफ नीले दिखने लगे। दशकों बाद रात को तारे टिमटिमाते हुए दिखाई दिए। यमुना निर्मल जल से कल-कल बहने लगी। जालंधर से ही हिमालय की पर्वत श्रृंखला दिखने लगी। वायुमंडल इतना साफ हो गया कि सांस लेने में भी मजा आने लगा। अचानक शहरों में सैकड़ों तरह के परिंदे मंडराने लगे। तब लगा कि हम पर्यावरण की तरफ से कितने लापरवाह हो गए थे, जो कोविड ने हमें बताया। उम्मीद जगी थी कि अब भविष्य में दुनिया संभल कर चलेगी। पर जिस तरह चार शाम को जोड़ने वाली सड़क को लेकर सरकार का दुराग्रह है और जिस तरह हम सब अपने परिवेश के प्रति फिर से लापरवाह हो गए हैं, उससे तो नहीं लगता कि हमने कोविड के अनुभव से कोई सबक सीखा।
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