विश्लेषण : नेहरू कांग्रेस को सर्वग्राही मंच बना पाए!
यह देश की आजादी का अमृत महोत्सव वर्ष है। हाल में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की 132वीं जयंती पूरी हुई। आजादी के बाद के भारत की तस्वीर कैसी होगी-इसका तानाबाना नेहरू को ही तैयार करना था।
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नेहरू के सामने भारत के स्वाधीनता संग्राम से प्राप्त विरासत को संभालने, संवारने और आगे बढ़ाने की भी जवाबदेही थी। अर्थव्यवस्था से लेकर भारत की गौरवशाली संस्कृति को सहेजने और दिशा देने का नैतिक दायित्व भी था। देशी रियासतों के साथ-साथ जम्मू-कश्मीर के सवाल को भी हल करना था। ब्रिटिश हुकूमत के साथ भारत के भविष्य के रिश्ते कैसे होंगे, इसे भी तय करना था।
देश की हिंदुत्ववादी राजनीति के उभार और विघटनकारी राजनीति को तो संभालना ही था-देश विभाजन से पैदा हुई हिंदू-मुस्लिम की चौड़ी होती खाई को पाटने के अलावा दोनों समुदायों के घावों पर मरहम भी लगाना था। देश में कांग्रेस की कोख से पैदा हुई समाजवादी राजनीति और उस गुट से संबंधित तब के प्रतिभाशाली नेताओं को साध कर देश के नवजात लोकतंत्र को सही राह पर ले जाने की भी महती जिम्मेदारी नेहरू पर थी। क्या नेहरू इन सवालों से टकराते हुए उस दिशा में खासकर गांधी जी हत्या के बाद ऐसी पहल कर सगुण रूप में आगे बढ़ते हुए खुद कांग्रेस को ऐसा सर्वग्राही मंच बना पाए, जो आजादी के पहले कांग्रेस सचमुच थी?
इन सवालों की रोशनी में आज भी कांग्रेस समेत देश की तमाम दूसरे राजनीतिक दलों की तस्वीर भी धुंधली ही दिखती है। 1929 में नेहरू लाहौर अधिवेशन में कांग्रेस के अध्यक्ष हुए। कांग्रेस अध्यक्ष होने के बाद भी नेहरू से एक ऐसी गलती हुई कि भारत विभाजन की नींव और पुख्ता हो गई। हुआ यह कि मुस्लिम लीग पहले कैबिनेट मिशन योजना के तहत अंतरिम सरकार में शामिल होने को राजी थी। पर 10 जुलाई 1946 को बंबई में जवाहर लाल नेहरू के इस बयान के बाद कि-कांग्रेस संविधान सभा में शामिल हुई है। पर जरूरी हुआ तो कांग्रेस कैबिनेट योजना में आवश्यक फेर बदल भी कर सकती है। इस बयान ने मुहम्मद अली जिन्ना की जैसे मुंहमांगी मुराद पूरी हो गई। अब तक कैबिनेट मिशन के प्रस्तावों पर खामोश जिन्ना अपने पुराने हठ को पूरा करने लगे कि अंग्रेजों के रहते ही भारत का विभाजन हो जाए।
16 अगस्त, 1946 को जिन्ना ने ‘डायरेक्ट एक्शन डे’ की घोषणा किया। नतीजतन, कलकत्ता समेत देश के कई हिस्सों में सांप्रदायिक दंगों की बाढ़ आ गई। गांधी घूम- घूम कर हिंसक-उन्मादी-पगलाई भीड़ को समझाते रहे। पर उनको सुनने और मानने वाले भी उनकी बातें नहीं सुन रहे थे। एक और गलती जिसके प्रति नेहरू और कांग्रेस की एक अरसे से प्रतिबद्धता थी कि-आजादी के बाद भारत का राष्ट्रमंडल में शामिल नहीं होने की। इस मुद्दे पर हाल में के एल पचौरी प्रकाशन से आचार्य नरेन्द्र देव की आठ खंडों में प्रकाशित पुस्तक में आचार्य जी ने अपनी शिकायत दर्ज कराई है।
यह बात इस संकलन के खंड 5 में दर्ज है। आचार्य नरेंद्र देव ने जून, 1949 में कहा कि ‘मुझे अफसोस है कि नेहरू इतने महत्त्वपूर्ण प्रश्न को जरा-सी बात में खत्म कर देना चाहते हैं। क्या वे नहीं जानते कि इसी सवाल को लेकर हिंदुस्तान में 22 सालों से विवाद चल रहा है। 1907 में जिन प्रश्नों पर कांग्रेस पड़ी, और वह मतभेद 1916 तक बना रहा। इस प्रश्न को लेकर ही 1928 में नेहरू ने अन्य लोगों के सहयोग से ‘इंडिपेंडेंस आफ इंडिया लीग’ की स्थापना की। क्या ही अच्छा होता कि हमारे प्रधानमंत्री राष्ट्रमंडल के फंदे से बाहर निकल कर विश्व को एक नये दृष्टिकोण से देखते।’ आचार्य जी का मानना था कि ‘ब्रिटिश’ नाम हटा देने से कॉमनवेल्थ के स्वरूप में अंतर नहीं आ जाता। ऐसे कई सवाल हैं-जिन पर नेहरू के वैचारिक विचलन और प्रतिबद्धता पर अक्सर सवाल उठता है।
कश्मीर का मुद्दा भी एक ऐसा ही मुद्दा है-जो आज भी देश के गले में फंसा है। आकाशवाणी से बोलते हुए गांधी जी ने न सिर्फ कश्मीर में कबायली हमले के समय सेना भेजे जाने की कार्रवाई का समर्थन किया था, बल्कि कश्मीर मामले को नेहरू द्वारा संयुक्त राष्ट्र संघ को सौंपे जाने पर भी उन्होंने दुख प्रकट किया था। कहा था कि ‘कश्मीर मुद्दे पर देशों का रुख अंतरराष्ट्रीय सत्तागत राजनीति के आधार पर निश्चित होगा, न्याय पर नहीं।’ कहना न होगा कि आज भी इस मुद्दे को इसी दृष्टिकोण से नहीं देखने का ही नतीजा है कि कश्मीर का मुद्दा आज तक पूरी तरह सुलझ नहीं सका है।
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