जेल में बंद कैदी : कुछ सवाल हैं अधूरे

Last Updated 19 Feb 2021 02:03:06 AM IST

बीते 10 फरवरी को केंद्रीय गृह राज्य मंत्री जी. किशन रेड्डी ने राज्य सभा में भारतीय जेलों में बंद कैदियों के बारे में लिखित जानकारी दी।


जेल में बंद कैदी : कुछ सवाल हैं अधूरे

यह जानकारी उन्होंने राज्य सभा सदस्य सैयद नासिर हुसैन द्वारा पूछे गए अतारांकित प्रश्न (प्रश्न संख्या 1014) के जवाब में दी। जो आंकड़े सामने आए हैं, उनसे अनेक सवाल खड़े होते हैं। सबसे अहम सवाल तो यह कि जेलों में सबसे अधिक करीब 65 फीसद कैदी दलित, आदिवासी और पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के क्यों हैं?
दरअसल, सैयद नासिर हुसैन ने सवाल किया था कि भारत के जेलों में क्या अधिकतर दलित और मुसलमान हैं और दूसरा सवाल कि अधिकतर पिछड़े और अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों को जेल में डाले जाने के पीछे क्या कारण है? इसके साथ ही, उन्होंने आंकड़े के रूप में यह मुहैया कराने की मांग की थी कि अनुसूचित जातियों/अनुसूचित जनजातियों/ अन्य पिछड़े वगरे/मुस्लिम पृष्ठभूमि के कुल कैदियों का महिला-पुरुषवार राज्यवार ब्योरा क्या है? उनके सवाल के जवाब में केंद्रीय गृह मंत्री ने बताया कि 30 दिसम्बर, 2019 तक जेलों में बंद कैदियों में 3,21,155 (करीब 67.10 फीसद) हिंदू , 85,307 (करीब 17.82 फीसद) मुसलमान, 18,001 (करीब 3.76 फीसद) सिख, 13,782 (करीब 2.87 फीसद) ईसाई और 3,557 (करीब 0.74 फीसद) अन्य थे। साथ ही उन्होंने कैदियों के सामाजिक आधार पर आंकड़े भी दिए। मसलन, जेलों में बंद 4,78,600 कैदियों में से 3,15,409 (करीब 65.90 फीसद) अनुसूचित जाति (एससी), अनुसूचित जनजाति (एसटी) और ओबीसी से संबंधित हैं।

सबसे अधिक 1,62,800 (करीब 34.01 फीसद) कैदी ओबीसी, 99,273 (करीब 20.74 फीसद) एससी और 53,336 (करीब 11.14 फीसद) एसटी समुदाय से संबंध रखते हैं। केंद्रीय गृह राज्य मंत्री के जवाब के पहले इसी वर्ष नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) द्वारा जारी रिपोर्ट में बताया गया कि देश की 1,400 जेलों में बंद 4.33 लाख कैदियों में से 67 प्रतिशत कैदी विचाराधीन हैं। इसके अलावा 1,942 बच्चे भी हैं, जो अपनी माताओं के साथ जेल में रह रहे हैं। अब मूल सवाल पर लौटते हैं, जो प्रश्नकर्ता सदस्य ने पूछा था कि भारत के जेलों में क्या अधिकतर दलित और मुसलमान हैं और दूसरा सवाल कि अधिकतर पिछड़े और अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों को जेल में डाले जाने के पीछे क्या कारण हैं? इसके जवाब में सरकार ने आंकड़े गिना दिए जो कि पहले से ही एनसीआरबी द्वारा जारी किए जा चुके थे। प्रश्न और मंत्रालय द्वारा दिए गए उत्तर के संबंध में पूछने पर प्रश्नकर्ता सदस्य सैयद नासिर हुसैन के मुताबिक ‘सरकार ने केवल आंकड़े दिए हैं, जबकि मूल सवाल यह था कि आखिर वे कारण कौन-कौन से हैं कि कैदियों में सबसे अधिक दलित, आदिवासी, पिछड़ा वर्ग और मुसलमान हैं? क्या कोई सामाजिक कारण है? क्या शिक्षा का प्रसार नहीं होना इसके पीछे कारण है? या कहीं ऐसा तो नहीं है कि कानूनों के संबंध में उन्हें जानकारियां नहीं हैं? या फिर यह कि वे इतने गरीब हैं कि अपने लिए वकील नहीं कर पाते हैं?’
सैयद नासिर हुसैन कहते हैं कि मंत्रालय ने इन सवालों के जवाब नहीं दिए हैं, जबकि यही महत्त्वपूर्ण था। यदि यह जानकारी सामने आती तो निश्चित तौर पर मूल कारण सामने आते। प्रश्नकर्ता सदस्य के सवाल गैरवाजिब नहीं हैं। वजह यह कि देश में संसाधनों का बंटवारा विषम है। स्वयं सरकारी दस्तावेज मसलन, मंडल आयोग की रिपोर्ट में यह विस्तार से बताया गया है कि अर्थव्यवस्था के विभिन्न आयामों में दलितों, आदिवासियों और पिछड़े वगरे की हिस्सेदारी कम है। जमीन पर अधिकार के मामले में भी असमानता है। इसके अलावा कानूनी प्रक्रिया महंगी होने के कारण भी वे जेलों में विचाराधीन कैदी के रूप में पड़े रहते हैं और बाट जोहते हैं कि अदालतें कभी तो उनके बारे में संज्ञान लेंगी। हालात का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि 2014 में विचाराधीन कैदियों की संख्या 2,82,879 थी जो 2016 में बढ़कर 2,93,058 हो गई। 2014 से 2016 के बीच इन कैदियों की संख्या में 3.6 प्रतिशत की वृद्धि हुई।
खास बात यह कि इस मामले में हिन्दी पट्टी के राज्य अग्रणी हैं। मसलन, उत्तर प्रदेश की जेलों में सर्वाधिक 68,432 विचाराधीन कैदी हैं, जो कुल संख्या का 23.4 प्रतिशत है। इसके बाद बिहार का स्थान है जहां 27,753 विचाराधीन कैदी (9.5 प्रतिशत) हैं। तीसरे स्थान पर महाराष्ट्र है। वहां 22,693 विचाराधीन कैदी (7.7 प्रतिशत) हैं। सनद रहे कि ये आंकड़े 2016 के अंत तक के हैं। यह हालात तब है जब भारत सरकार और विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा गरीब लोगों को निशुल्क कानूनी सहायता पहुंचाने संबंधी योजनाएं चलाई जा रही हैं। इसके लिए भारतीय संविधान में 39-ए के तहत प्रावधान किया गया है कि सरकार कमजोर और वंचित समूहों के लोगों को निशुल्क कानूनी सहायता उपलब्ध कराए। यह कानून 1989 में बनाया गया था और इसके लिए ताल्लुका स्तर तक प्राधिकार के गठन का प्रावधान है। परंतु, इस सच्चाई से इनकार नहीं किया जा सकता है कि अभी भी बड़ी संख्या में विचाराधीन कैदी जेलों में हैं और इसकी एक वजह यह भी है कि भारतीय न्यायालयों में मामले लंबित हैं।
इस संबंध में सर्वोच्च अदालत के मुख्य न्यायाधीश तक सवाल उठा चुके हैं कि जजों की भारी कमी है। केंद्रीय विधि एवं न्याय मंत्रालय द्वारा संसद में इस बाबत जानकारी दी गई है कि 1 फरवरी, 2020 तक भारत में लंबित मामलों की संख्या 3 करोड़ 65 है। बहरहाल, ऐसे हालातों में अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है कि जेलों में इतने अधिक कैदी क्यों हैं और यह भी उनमें से अधिकांश दलित, पिछड़े और आदिवासी व अल्पसंख्यक क्यों हैं? परंतु लाख टके का सवाल यह है कि क्या आंकड़ों को निहारने से उनके जीवन में कोई बदलाव आएगा जो जेलों में बंद हैं? यह सवाल इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है क्योंकि अधिकांश विचाराधीन   कैदी अपने परिवार में आय अर्जित करने वाले होते हैं।

नवल किशोर कुमार


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