मीडिया : अन्नदाता और मीडिया का छल

Last Updated 29 Nov 2020 03:06:57 AM IST

मीडिया अक्सर अपनी ‘स्टीरियो टाइप छवियों’, ‘प्रतीकों’ या ‘चिह्नों’ के जरिए संप्रेषण किया करता है। समकालीन किसान आंदोलन को भी वह इसी तरीके से बना और बता रहा है।




मीडिया : अन्नदाता और मीडिया का छल

पहले आंदोलन के कुछ स्टाक शॉट लो, फिर उनको बार-बार दिखाओ और इस तरह उसको ‘एक जैसी छवि’ में ‘फिक्स’ करो और इस तरह उसके ‘आशयों’ को कंट्रोल करो! इसके उदाहरण के रूप में हम मीडिया में बार-बार दुहराए जाते ‘स्टाक शॉटों’ को याद कर सकते हैं:
एक वह, जिनमें किसान दिल्ली पहुंचना चाहते हैं लेकिन पुलिस बेरीकेड लगा देती है। उनकी भीड़  उन बेरीकेडों को उठाकर पुल के नीचे फेंक देती है यानी ‘ये किसान ‘उपद्रवी’ हैं!’
दूसरा स्टाक शॉट उनके ट्रैक्टरों और ट्रॉलियों का है, जिनमें उनका छह महीने का दाल, चावल, आटा, तेल, घी रखा है, उन्हीं में वे दिल्ली आने को निकल पड़े हैं, ताकि जिस सरकार ने कानून बनाया है उसे अपनी फरियाद सुना सकें यानी ‘वे ट्रैक्टर रखने वाले खाते-पीते किसान हैं!’
तीसरा स्टाक शॉट में कुछ रिपोर्टर किसानों से पूछते हैं कि वे दिल्ली क्यों जाना चाहते हैं? कई सिख किसान जबाव देते हैं कि दिल्ली ने कानून बनाया है उसे बदलवाना है, जब तक नहीं बदलेंगे हम नहीं हटने वाले। हम दिल्ली को जाम करेंगे। हम सारी तैयारी करके चले हैं यानी ‘ये आंदोलन नहीं ‘राजनीति’ है!’
यों मुद्दा सिर्फ इतना है कि किसान चाहते हैं कि सरकार ‘न्यूनतम समर्थन मूल्य’ यानी ‘एमएसपी’ की लिखकर गारंटी दे दे, जबकि सरकार कहती तो है कि ‘एमएसपी’ खत्म नहीं होगी लेकिन यह बात वह लिखकर नहीं देती! चैनल इस मुददे की चर्चा अधिक नहीं करते, बल्कि आंदोलन को ‘विपक्ष का षडयंत्र’ की तरह दिखाने की कोशिश करते हैं!

यहीं हमें मीडिया का ‘छल’ नजर आता है। प्रकटत: तो लगता है कि मीडिया इस आंदोलन को ईमानदारी से कवर कर रहा है, लेकिन जैसे ही वह इस आंदोलन को राजनीतिक या उकसाया हुआ कहता है तो ‘अपनी राजनीति’ को खोल देता है। इन सबके बावजूद यही मीडिया इन्हीं किसानों  को ‘अन्नदाता’ भी बताता और लिखता रहता है: ‘भारत का अन्नदाता सड़कों पर’ ‘भारत का अन्नदाता नाराज’!
कहने की जरूरत नहीं कि इस सारे कवरेज में किसानों के लिए इस्तेमाल किया जाता सबसे मारक विशेषण है: ‘अन्नदाता’! आंदोलन के कवरेज के ‘छल’ के अलावा मीडिया का यह सबसे बड़ा ‘भाषाई छल’ है। किसान को अन्नदाता बताने का चलन एक खास प्रकार की राजनीति से निकला है, जो किसान को ‘हमारा पेट भरने वाले’ ‘हम पर हमेशा कृपालु दयालु रहने वाले’, ‘हमारा पेट पालने वाले’, ‘खुद कष्ट सहकर हमें अन्न देने वाले’ के ‘स्टीरियो टाइप’ में फिक्स कर देता है।
किसान को इस तरह ‘मिथक’ में बदलना, उसे ‘देवता’ बनाना सभी तरह से सुविधाजनक है। उसे अन्नदाता मानकर हम अपनी भूख को तो याद रखते हैं, लेकिन इस अन्नदाता की भूख-प्यास को एकदम भूल जाते हैं। उसे भी कोई समस्या हो सकती है, इसे भुला दिया जाता है। इसीलिए हमने कहा कि यह मीडिया की भाषा का ‘सबसे बड़ा छल’ है कि किसान को किसान न कहकर अन्नदाता कहा जाए और अगर वह हमारी किसी ‘करनी’ से कभी परेशान-नाराज हो तो उसे उकसाया हुआ बताया जाए! इस तर्क से यह किसान आंदोलन विपक्ष का बनाया ‘राजनीतिक षडयंत्र’ है वरना तो हमारा ‘अन्नदाता’ एकदम खुश है। यानी जो तीन कृषि कानून पास किए वो ‘अन्नदाता’ के लिए कोई समस्या नहीं हैं, बल्कि वो तो इतना खुश है कि वो हमें चुनाव में जिताए जा रहा है। समस्या है तो विपक्ष की है, जो अपनी समस्या को किसानों की बनाए दे रहा है!
कहने की जरूरत नहीं कि किसान की अन्नदाता की छवि एक खास किस्म की ‘सांस्कृतिक निर्मिति’ है, जिसे बार-बार दुहराकर पक्का किया गया है। किसान को ‘अन्नदाता’ कहने का चलन काफी पुराना है। वह राष्ट्रकवि मैथिली शरण गुप्त की ‘कृषक’ नाम की कविता से निकला है, जिसमें कृषक गरमी सर्दी बरसात में कष्ट सहकर भी अन्न उपजाते हैं लेकिन जिनको कभी भरपेट अन्न नहीं मिलता! जब कभी उनको भरपेट भोजन मिल जाता है तो समझते हैं कि ‘भरपेट भोजन पा गए तो भाग्य मानो जग गए’! कवि तो इस ‘अन्नदाता’ की समस्याएं जानता था, लेकिन अपना मीडिया और सत्ता ने उसको ऐसा ‘अन्नदाता’ बना डाला है, जिसकी कोई समस्या नहीं हो सकती! हाड़-मांस के किसान को ‘मिथक’ में बदलना स्वयं एक ‘षडयंत्र’ है!

सुधीश पचौरी


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