बिहार : महागठबंधन का ‘राग विग्रह’
विधानसभा का चुनाव ठीक मुहाने पर है और एनडीए को चुनौती देने वाला महागठबंधन चुनावी घोषणा के पूर्व ही बिखराव का शिकार हो गया है।
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राष्ट्रीय लोक समता पार्टी (रालोसपा), हिन्दुस्तानी अवाम मोर्चा (से) और विकासशील इंसान पार्टी (वीआईपी) की आपसी बैठक ने मनभेद का खुलासा तो कर ही डाला, साथ ही महागठबंधन के नेतृत्व पर सवाल भी उठा दिया है। हम (से) के राष्ट्रीय अध्यक्ष एवं पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी ने संवाददाता सम्मेलन करके राजद नेतृत्व को नकार-सा दिया है। वैसे भी मांझी राजद नेता तेजस्वी यादव के खुद महागठबंधन का नेता बनने की पहल से नाराज चल रहे थे। उन्होंने साफ कहा कि तेजस्वी में नेता बनने के गुण जरूर हैं, पर महागठबंधन का नेतृत्व करने वाले का चयन इसमें शामिल सभी दलों की बैठक में किया जाए।
सच्चाई यह है कि महागठबंधन में शामिल दलों के बीच वह अंडरस्टैंडिंग भी नहीं है, जो एनडीए के आपसी प्रयास में दिखती है। 2015 में हुए विधानसभा चुनाव के दौरान हम (से) और रालोसपा ने भाजपा-नीत एनडीए के समक्ष अपनी डिमांड की चाहे जो भी फेहरिस्त रखी हो, लेकिन उन्हें मिला उतना ही, जितना भाजपा नेतृत्व ने तय किया। हालांकि वर्ष 2015 का चुनाव जदयू ने राजद के साथ लड़ा था, मगर जब राजद से मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का मोह भंग हुआ, तो वे फिर भाजपा के साथ आ गए और नेतृत्व के नाम पर फिर नीतीश के नाम पर ही मुहर लगी। लेकिन इस बार होने वाले विधानसभा चुनाव के पहले महागठबंधन के भीतर नेतृत्व के नाम पर मतभेद बरकरार हैं, तो उसके कारण भी हैं। रालोसपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष उपेन्द्र कुशवाहा का राजग से अलग हट कर नीतीश कुमार से बगावत करने का एकमात्र मकसद बिहार की राजनीति में विपक्ष का चेहरा बनना था।
जहां तक हम (से) के नेता जीतनराम मांझी का सवाल है, तो वे भी दलित के नाम पर अपने बेटे के लिए उपमुख्यमंत्री पद का आश्वासन चाहते हैं। निषाद के वोट बैंक के आधार पर उपमुख्यमंत्री की कुर्सी वीआईपी भी चाहती है। यह दीगर है कि गत लोक सभा चुनाव में महागठबंधन में शामिल इन तीनों दलों के वोट बैंक का पता चल चुका है।
दरअसल, एनडीए के विरुद्ध महागठबंधन के नाम पर विपक्षी दल एकजुट तो हुए पर वे प्रतिस्पर्धा की राजनीति से खुद को अलग नहीं कर सके। व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षा भी लगातार महागठबंधन की ताकत को क्षीण करती रही है। बड़ी पार्टी होकर भाजपा नेतृत्व के द्वारा खुद को अंडरएस्टीमेट कर बिहार के बारे में सोचने की उसकी प्रवृत्ति ने खास जनमानस के भीतर अपनी एक जगह बनाई और एनडीए को शक्तिशाली बनाया। यह आधार गत तीन दशकों के चुनाव में भी विपक्ष पर हावी रहा। अपवादस्वरूप वर्ष 2015 का विधानसभा चुनाव रहा, जब जदयू, राजद और कांग्रेस का समीकरण बना था, मगर नेतृत्व के नाम पर नीतीश का ही चेहरा सामने रखा गया। तब महागठबंधन को जीत भी मिली लेकिन कुछ वर्षो में ही जब नीतीश ने सरकार से खुद को अलग किया तो एनडीए फिर अपने पुराने तेवर में लौटा ओैर नेतृत्व के नाम पर कोई तकरार सामने नहीं आई।
पिछले कुछ दशकों से बिहार में लोक सभा का चुनाव जहां देश के मसले पर लड़ा गया, वहीं विधानसभा में क्षेत्रीयता का मुद्दा हावी रहा और इस नाम पर जातीय समीकरण बनाने और बिगाड़ने का खेल भी चलता रहा। ऐसे में जाति-आधारित छोटी-छोटी पार्टियों की महत्त्वाकांक्षा बढ़ना स्वाभाविक है। खासकर तब, जब समाजवादी विचारधारा के नेता एक नई पार्टी का गठन कर नेतृत्व की बागडोर संभालने की मिसाल पेश करते रहे हैं। इसे समाजवादी नेता लालू प्रसाद के 90 के दशक की जोड़-तोड़ की राजनीति के बरक्स समझा जा सकता है, जब लालू प्रसाद ने भाजपा और वाम दलों तक को तोड़ा और अपनी सरकार बनाकर 15 वर्षो तक राज करने की नींव डाली। वहीं वर्ष 1995 में सात विधानसभा सीटों पर (6 सीटें नालंदा) परचम लहराने वाले तथा कभी सात दिनों की सरकार चलाने वाले नीतीश कुमार ने वर्ष 2005 से लगातार 15 वर्षो तक मुख्यमंत्री बनने का सफर न सिर्फ पूरा किया है, बल्कि इसे आगे भी जारी रखने का संकेत दे डाला है।
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