वैश्विकी : खतरे में अविकसित देश

Last Updated 10 May 2020 03:53:18 AM IST

कोरोना वायरस महामारी की चपेट में शुरुआती दौर में विकसित और अपेक्षाकृत अमीर देश आए।ैअब स्वास्थ्य विशेषज्ञ यह आशंका व्यक्त कर रहे हैं कि महामारी विकासशील या अविकसित देशों कीैओर रुख कर रही है।


वैश्विकी : खतरे में अविकसित देश

सबसे अधिक चिंता दक्षिण एशिया और अफ्रीका महाद्वीप को लेकर है। इन  देशों में स्वास्थ्य संबंधी आधारभूत ढांचा कमजोर है तथा सामान्य रूप से संक्रामक रोग फैलते रहते हैं। अफ्रीका के 55 देशों में से 10 देश ऐसे हैं, जहां वेंटिलेटर नहीं है। अफ्रीकी देशों में करोड़ों की आबादी के बीच केवल 2 हजार वेंटिलेंटर है। नई महामारी को एक तरफ रख दिया जाए तो भी तीसरी दुनिया के देशों में संक्रामक रोग से हर रोज हजारों मौतें होती हैं। नई महामारी से इन देशों के लिए कई तरह के खतरे सामने आ गए हैं। विशेषज्ञों को आशंका है कि कोरोना वायरस महामारी से इन देशो में जितनी मौतें होंगी, उतना ही नुकसान अन्य बीमारियों से हो सकता है। कोरोना महामारी संक्रमण से चिकित्साकर्मियों के साथ-साथ अस्पतालों और उपचार केंद्रों में भी संक्रमण फैलने का खतरा है। इसके कारण अन्य रोगों के लिए भी लोगों को चिकित्सा सुविधा नहीं मिल पाएगी।
महमारी से निपटने के लिए लॉक-डाउन जैसे उपायों का आर्थिक बोझ गरीब देश लंबे समय तक उठाने में सक्षम नहीं हैं। आर्थिक गतिविधियों के ठप होने का मुकाबला विकसित और अमीर देश तो कर सकते हैं, लेकिन गरीब देशों में इतनी सामर्थ नहीं है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इसी तथ्य को आम भाषा में व्यक्त करते हुए कहा था कि ‘जान भी और जहान भी’। अर्थात दोनों की समान रूप से रक्षा करनी है।  आर्थिक गतिविधियों के रुकने या सीमित होने का सिलसिला लंबे समय तक चलने वाला है।

गरीब देशों के कामगारों के लिए जीविकोपार्जन दूभर हो सकता है। महामारी से यदि उनकी रक्षा होती है तो भी जीविकोपार्जन के साधन न होने के कारण जीवन-यापन बड़ी चुनौती होगी। अर्थशास्त्र के लिए नोबेल पुरस्कार विजेता अभिजीत बनर्जी ने महामारी से लोगों को आर्थिक सुरक्षा दिलाने के लिए न्यूनतम आय का सुझाव दिया है। भारत में भी पिछले आम चुनावों के दौरान  सभी जरूरतमंद लोगों को न्यूनतम आय प्रदान करने का विचार सामने आया था। अभिजीत बनर्जी और उनकी पत्नी एस्थर डुफलो ने सद्य प्रकाशित पुस्तक ‘गुड इकोनॉमिक्स फॉर हार्ड टाइम्स’ (विषम काल में अच्छा अर्थशास्त्र) में कोरोना महामारी जैसी स्थिति पैदा होने पर सरकार के संभावित प्रयासों का सुझाव दिया था। इस पुस्तक में उन्होंने ‘यूनिवर्सल अल्ट्रा बेसिक इनकम’ (यूयूबीआई) का सुझाव दिया है, जिसके तहत लोगों के खाते में निश्चित धनराशि जमा कराई जाए। महामारी के वर्तमान चक्र से लगता है कि इसका असर महीनों या कई साल तक रह सकता है। न्यनतम आय लोगों की जान और जहान  दोनों को बचाने का एक रामबाण सिद्ध हो सकता है।
विश्व अर्थव्यवस्था में आई इस भारी तबाही का सामना गरीब देश कैसे कर पाएंगे, वे बड़ी जनसंख्या के लिए कैसे न्यूनतम आय सुनिश्चित करेंगे, यह कठिन सवाल है। इसके लिए जरूरी है कि दुनिया के अमीर देश आपस में मिलकर गरीब देशों को उदारतापूर्वक आर्थिक सहायता प्रदान करें और उनके कर्ज माफ करें। ऐसा हो पाएगा कहना मुश्किल है। चिकित्सा उपकरणों और सहायक औषधियों को हासिल करने में अमीर देशों ने स्वार्थी रुख अपनाया। चीन से अफ्रीकी देशों को भेजे जाने वाली चिकित्सा सामग्री को अमेरिका ने ऊंची कीमत देकर हथिया लिया। चिकित्सा विशेषज्ञ यह आशंका व्यक्त कर रहे हैं कि इस साल के अंत तक यदि कोई  वैक्सीन विकसित होती है तो क्या वह सभी देशों को सर्वसुलभ हो सकेगा, बिना भेदभाव के मिल सकेगा?
यदि अमेरिका में सबसे पहले वैक्सीन बनती है तो वह इसे अपने नागरिकों और मित्र देशों को ही देगा। नई वैक्सीन के साथ बौद्धिक संपदा अधिकार मामला भी जुड़ा रहेगा। इससे वैक्सीन की कीमत पर भी असर पड़ेगा। वैक्सीन निर्माता कंपनियां पूरा पैसा वसूल करती है या मानवतावादी रुख अपना कर कीमत कम रखती हैं यह देखने वाली बात होगी। कोरोना महामारी का एक सार्थक संदेश यह हो सकता है कि सीमाओं केैआर-पार फैलने वाले संकट का मुकाबला भी सीमाओं से ऊपर उठकर करना होगा। यदि इस संदेश पर अमल हो तो गरीब देश इस महामारी की दोहरी मार से बच सकते हैं।

डॉ. दिलीप चौबे


Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment