मीडिया : डर के सिवा कोई डर नहीं

Last Updated 10 May 2020 03:55:34 AM IST

कभी-कभी मन करता है कि टीवी की खबरें न देखी जाएं। फिर मन करता है कि देख लें कोरोना कहां तक पहुंंचा? क्या पता टीका बन गया हो या इलाज आ गया हो?


मीडिया : डर के सिवा कोई डर नहीं

कोई खबर धीरज बंधाने वाली हो जो कहती हो कि बस कुछ दिन और दिन ‘लॉक-डाउन’ में रहें। पिछले चालीस पैंतालीस दिनों में कोरोना की कृपा से हमारे मीडिया ने हम तक नितांत नया शब्दकोश पहुंचाया है, जिसके कुछ सर्वाधिक बोले-सुने और लिखे गए शब्द हैं : कोरोना वायरस, कोविड 19, संक्रमण, संक्रमित, केस, वुहान, चीन, लॉक-डाउन, क्वारंटाइन, सेल्फ क्वारंटाइन, आइसोलेशन, घर में बंद रहना, बाहर न निकलना, बाहर निकलना तो मास्क लगाकर निकलना, सोशल डिस्टेंसिंग रखना, बाहर से आने पर बीस सेकेंड तक साबुन से हाथ धोना, सेनीटाइजर का इस्तेमाल, टेस्टिंग किट, डाक्टर, वायरोलोजिस्ट, ऐपीडेमोलोजिस्ट, न्यू नारमल यानी जीने के नये नियम आदि-इत्यादि।
कहने की जरूरत नहीं कि इन बीस-बाइस शब्दों के पीछे एक ही केंद्रीय शब्द काम करता है। वह है  कोरोना का खतरा, कोरोना का डर, सिर्फ  ‘डर’। हमारा मीडिया और विशेषज्ञ हर पल समझाते रहते हैं कि सुरक्षित रहना है तो ये करें और वो करें या ये न करें और वो न करें। हर काम में सावधानी बरतें। जैसा बताया गया है वैसा करते रहें तो आप बचे रहेंगे वरना..यानी सावधानी हटी तो दुर्घटना घटी। जो समाज सदियों से एक सरल सा, केजुअल सा, लापरवाह सा जीवन जीने का आदी था, उसे पिछले चालीस-पैंतालीस दिनों में मीडिया ने सिखा दिया है कि आपने अपेक्षित सावधानियां न बरतीं तो आप संक्रमित हो सकते हैं। आप बुजुर्ग या बीमार हैं तो अपना खास खयाल रखें अन्यथा..ऐसे संदेशों से साफ है कि सरकारें कुछ हद तक ही मदद कर सकती हैं। बाकी करना सब कुछ आपको ही है। यानी अंतत: आप अकेले ही हैं।

24 मार्च से देश ‘लॉक-डाउन’ में है। लोग घरों  में बंद हैं। लेकिन हमेशा तो बंद नहीं रह सकते। फिर, जिनके घर नहीं हैं या बहुत छोटे हैं, डिस्टेसिंग कैसे रख सकते हैं? जिनके पास पर्याप्त पानी नहीं, बीस सेकेंड  तक हाथ कैसे धो सकते हैं? ये सवाल अनुत्तरित हैं। और, अब जब लॉक-डाउन के तीसरे चरण का सत्रह मई को अंत होने वाला है, तो सबके मन में असमंजस है कि ‘लॉक-डाउन’ हटेगा कि नहीं? हटेगा तो कैसे हटेगा और कि कब सब नार्मल होगा? और इसी बीच एक बड़ा डॉक्टर कह जाता है कि सबसे बुरा दौर अभी गुजरा नहीं है। इस संक्रमण का ‘चरम बिंदु’ आगे जून-जुलाई में आना है। इसे सुनते ही आप और अधिक डर जाते हैं कि चालीस-पैंतालीस दिन बंद रहने के बाद भी कोरोना से पीछा नहीं छूटना है। जो है उससे भी बुरा तो अभी आना है। इतनी बुरी और नकारात्मक खबरों के बाद आप में क्या बचता है? सिर्फ  झुंझलाहट और लाचारी भरा गुस्सा कि चालीस-पैंतालीस के दंड के बाद भी पुराने दिन जल्दी नहीं लौटने।
तभी कोई टीवी में आकर फिर डरा जाता है कि ‘लॉक-डाउन’ के बाद भी कोरोना को रहना है और हमको कोरोना के साथ जीना है। इसलिए जो सावधानियां बताई जा रही हैं, उनको हमेशा बरतना है। यानी अब हमेशा ‘नये नारमल’ में रहना है। नई जीवन शैली को अपनाना है : मास्क लगाए रखना है, भीड़ से बचना है, एक-दूसरे से छह मीटर की दूरी बनाए रखनी है, बीस सेकेंड तक हाथ धोते रहना है। जो बताया गया है, वो करना है, नहीं तो कोरोना आ जाएगा और खा जाएगा। डर की इस विकराल व्याप्ति को देख हमें 1933 में अमेरिकी प्रेसिडेंट रूजवेल्ट के शपथ ग्रहण के दौरान दिए गए भाषण का वो अमर वाक्य याद आता है, जो कहता है कि ‘डर के सिवा किसी से डर नहीं’ यानी वो डर जो ‘नाम रहित’, ‘तर्क रहित’ और ‘औचित्य रहित’ है जो हमें आगे बढ़ने को रोकता है। जब रूजवेल्ट ने हिम्मत बढ़ाने वाला यह अमर वाक्य कहा तब अमेरिका महामंदी की चपेट में था। सब कुछ ठप था। हमारे यहां भी ‘लॉक-डाउन’ के कारण सब कुछ ठप है। मंदी है। इसलिए हमें भी ‘डर के सिवा किसी का डर नहीं’। इसे समझना है और डर को भगाना है। डर भागेगा तो कोरोना भागेगा।
कुछ ऐसी ही बात राहुल गांधी ने अपनी शुक्रवारी प्रेस कांफ्रेंस में कही। लॉक-डाउन से निकलना है और फिर से सामान्य जीवन की ओर लौटना है, तो सबसे पहले कोरोना के मिथकीय ‘डर’ से निकलना है। इसके लिए कुछ जरूरी सावधानियां बरतनी हैं, तो बरतनी हैं। कोरोना से निपटने का मतलब उस ‘डर’ से निपटना है, जो पिछले दिनों से चाहे अनचाहे मीडिया के जरिए हमारे मन में बिठाया गया है। मीडिया को भी इसके लिए अपनी भाषा बदलनी होगी।

सुधीश पचौरी


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