बतंगड़ बेतुक : असली चेहरा क्या यह बच्चा है

Last Updated 02 Feb 2020 12:41:49 AM IST

आंदोलन की दशा और दिशा समझने को निकला झल्लन आंदोलनकारियों से बात करके पहले से कहीं ज्यादा भ्रमित हो रहा था और अपने सवालों के सही जवाब न मिलने पर पहले से ज्यादा व्यथित हो रहा था।


बतंगड़ बेतुक : असली चेहरा क्या यह बच्चा है

वह आगे बढ़ा तो देखा एक 16-17 वर्ष की बाला किसी मीडियावाले से बतिया रही थी और आंदोलन में भाग लेते हुए उसकी जो समझ बनी थी वह समझा रही थी। मीडियावाले ने जैसे झल्लन का सवाल ही उठाया और उसे अपनी तरह से दोहराया, ‘आप क्यों आंदोलन कर रही हैं और क्यों इतनी सर्दी में घर से बाहर रह रही हैं?’ बाला तपाक से बोली, ‘हमें छह साल से डरा कर रखा हुआ है मगर अब हम डरने वाले नहीं हैं, यहां से हटने वाले नहीं हैं। हमें तो ऐसे भी मरना था वैसे भी मरना है, इसलिए जो कुछ करना हैं करेंगे, मरना है तो लड़कर मरेंगे।’ मीडियावाला बोला, ‘अगर पुलिस का दस्ता आ गया तो, आपको जबरन हटाया तो?’ बाला बोली,‘तो हम डरकर पीछे नहीं हट जाएंगे। ला इलाहा इल्लल्लाह मुहम्मदुर रसूलुल्लाह कहते हुए आगे बढ़ते जाएंगे, तब देखेंगे हम पर ये कितना जुल्म ढाएंगे।’

झल्लन को बाला की वीरता सुहावनी लगी, पर उसकी बोली डरावनी लगी। वह शंकाग्रस्त हो गया कि बाला ने क्यों कहा कि हमें छह साल से डराकर रखा हुआ है जबकि सीएए या एनआरसी की बातों का श्रीगणोश तो अभी हुआ है। फिर उसके दिमाग से धुंधलका छंटने लगा और बाला का आशय उसकी समझ की परतों पर उतरने लगा। बाला कानून के आने के बहुत पहले से हैरान है यानी जब से मोदी सरकार आयी है वह तब से परेशान है। झल्लन ने अपनी स्मृति का एक-एक कोना खंगाल डाला पर उसे ऐसा कोई ठोस कारण नहीं मिला जिसने इन छह सालों में बाला को सचमुच डराया हो या इसे सिर्फ मुसलमान होने की वजह से सताया हो। उसे लगा कि बाला के मन में डर न होते हुए भी डर का फितूर बिठाया गया है और जो उसे नहीं समझना था वह उसे समझाया गया है। झल्लन आगे बढ़ा तो देखा एक आठ-नौ साल का बच्चा जोर-शोर से नारे लगा रहा है और भीड़ में जोश जगा रहा है। बच्चा बोला, ‘जो हिटलर की चाल चलेगा..’ भीड़ ने जवाब दिया,‘वह हिटलर की मौत मरेगा।’ झल्लन समझ गया कि किसे हिटलर बताया जा रहा है और किस हिटलर की मौत का फतवा दिया जा रहा है। वह सोचने लगा कि यह बच्चा क्या सचमुच जानता है कि हिटलर ने कौन सी चाल चली थी और उसे कैसी मौत मिली थी। जाहिर है कि बच्चे को यह सब कुछ रटाया गया था और उसके बचपन को आंदोलन का चेहरा बनाया गया था।
मीडियावाले ने अपनी मां की उंगली पकड़कर आये एक अन्य पांच साला बच्चे से हंसकर पूछा,‘बेटा, तुम स्कूल नहीं गये, तुम आंदोलन में क्यों आये हो, कोई खिलौना वगैरह साथ लाये हो?’ वह नन्हा बच्चा एकदम तैश में आ गया, ‘हमारे मुसलमानों को जो दो लोग सता रहे हैं मैं उन्हें मारकर रहूंगा, मुझे बंदूक दे दो।’ मीडियावाला हकबक सा बच्चे को ऊपर से नीचे तक नाप रहा था और इधर झल्लन का मन डरावनी आशंका से कांप रहा था। बच्चा जिन दो लोगों की बात कर रहा था, वे मोदी और शाह के अलावा और कौन हो सकते थे। लेकिन ये बच्चे इन दोनों से इतनी नफरत कैसे कर सकते थे? जाहिर है कि इन बच्चों के मन में नफरत का जहर भरा जा रहा था और इनकी नन्हीं जुबान के जरिए आंदोलन का भीतरी सच बाहर लाया जा रहा था। मीडियावाले ने बच्चे की मां से कहा,‘मोहतरमा, इन बच्चों के पढ़ने-खेलने की उम्र है इन्हें यह क्या सिखाया जा रहा है, आखिर इन बच्चों को आंदोलन में क्यों लाया जा रहा है?’ हिजाब के भीतर से आंखें चमकाते हुए वह महिला बोली,‘हम यहां आयी हैं तो बच्चों को अकेला कैसे छोड़कर आएंगी, बच्चे छोटे हैं तो उन्हें  साथ ही तो लाएंगी। और रही बच्चों को सिखाने की बात तो न तो कोई बच्चों को कुछ सिखा रहा है और न उनके मन में नफरत का जहर भरा जा रहा है। बच्चे तो यहां आकर जो देख रहे हैं, सुन रहे हैं, वे वही कह रहे हैं।’
मीडियावाले ने तो अपना रास्ता पकड़ लिया था मगर बच्चे और उसकी मां की बातों ने झल्लन का दिमाग जकड़ लिया था। शायद अनजाने में ही उस मोहतरमा ने एक डरावना सच उजागर कर दिया था कि बच्चे के इर्द-गिर्द जो बातें हो रही थीं वे न तो शांति की थीं, न सद्भाव कीं, न संविधान की थीं, बल्कि नफरत, गुस्से और घात-प्रतिघात की थीं। तो क्या यह बच्चा ही इस आंदोलन का असली चेहरा था जिसे संविधान का मुखौटा पहनाया जा रहा था जबकि असली मकसद कुछ और था और दिखाया कुछ और जा रहा था। झल्लन के खदबदाते दिमाग ने सोचा, ‘हे ईश्वर! हे अल्लाह! वह गलत निकले जो उसके दिमाग में आ रहा था और आंदोलन का असली चेहरा वही हो जो मंच और माइक से बताया जा रहा था।’

विभांशु दिव्याल


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