मुद्दा : दोहरी आग में झुलसने की नियति

Last Updated 10 Dec 2019 06:43:44 AM IST

बिहार, उत्तर प्रदेश समेत देश के ज्यादातर पिछड़े राज्यों की नौजवान आबादी को जो थोड़े-बहुत रोजगार हासिल हैं, वे ऊपर से चमचमाते और विकास की कथित कहानी कहते दिल्ली, मुंबई, हैदराबाद, लुधियाना, कानपुर आदि चंद शहरों की बदौलत उन्हें मिले हैं पर अपना गांव-देहात छोड़कर सैकड़ों किमी. दूर स्थित इन शहरों की जूता-चप्पल, खिलौने, कपड़े, पटाखे, प्लास्टिक के सामान बनाने वाली फैक्टरियों में काम करने के माहौल से लेकर आग आदि से सुरक्षा के क्या इंतजाम हैं, इसकी पोल फिर राजधानी दिल्ली के फिल्मिस्तान इलाके में स्थित अनाजमंडी में भीषण अग्निकांड से खुल गई।


मुद्दा : दोहरी आग में झुलसने की नियति

इस अग्निकांड का त्रासद पहलू यही है कि मरने वाले ज्यादातर मजदूर उत्तर प्रदेश-बिहार से सिर्फ  जिंदगी चलाने की जद्दोजहद में यहां काम करने आए थे।

आग से हादसों पर नजर डालें तो पता चल जाएगा कि आग की भयावहता से बेखबर सिविक एजेंसियों की लापरवाही प्रवासी मजदूरों की जिंदगी पर कैसा कहर ढा रही है। 2018 में दिल्ली के बवाना इंडस्ट्रियल इलाके में एक अवैध फैक्टरी ने दर्जनों मजदूरों की जिंदगी छीन ली थी, तो सुल्तानपुरी के रिहाइशी इलाके में स्थित अवैध जूता फैक्टरी में अग्निकांड का कहर भी मजदूरों पर टूटा था। इसी साल दिल्ली के मोतीनगर के सुदर्शन पाक इलाके में स्थित एक फैक्टरी में लगी आग 6 मजदूरों की मौत की वजह बनी थी। नारायणा इंडस्ट्रियल एरिया की केमिकल फैक्टरी में 29 अप्रैल को, झिलमिल इलाके में स्थित फैक्टरी में 13 जुलाई को, तीन नवम्बर को पीरागढ़ी की दो फैक्टरियों और 16 नवम्बर को नरेला स्थित जूता फैक्टरी में अग्निकांडों में सबसे ज्यादा नुकसान दिहाड़ी पर काम करने वाले उन नौजवान कर्मचारियों-मजदूरों को उठाना पड़ा, जिनकी आंखों में कोई बड़ा सपना नहीं, बल्कि किसी तरह घर खर्च चलाना या भाई-बहनों की शादी का खर्च वहन करना था।

ये सारे उदाहरण बेशक, देश की राजधानी दिल्ली के हों पर देश के अन्य उन शहरों में हालात इससे तनिक भी बेहतर नहीं हैं, जो नौजवानों को मामूली-से रोजगार भी देते हैं। लेकिन इसके बदले देश की युवा आबादी के सामने कैसे भयानक खतरे पैदा करते हैं, इसकी तस्वीर संस्था-एक्सिडेंटल डेथ्स एंड सुसाइड इन इंडिया (एडीएसआई) ने अपने आकलन के आधार पर पेश की है। एडीएसआई के  2015 के आंकड़ों के मुताबिक आग लगने की 81 प्रतिशत घटनाएं देश के 20 शहरों में हुई। सबसे ज्यादा असर दिल्ली-मुंबई के अलावा कानपुर, अहमदाबाद, बेंगलुरू  जैसे शहरों में भी दिखा, जहां 2015 में क्रमश: 147, 134 और 132 मौतें हुई थीं। संस्था कहती है कि आग की घटनाओं को लेकर सरकार की तरफ से कोई गंभीरता नहीं दिख रही है। शायद यही वजह है कि 2012 के बाद से सरकारों ने इन मामलों में आधिकारिक आंकड़े जारी नहीं किए हैं।

अग्निकांड दो मूल कारणों से भयावह हो गए हैं। एक-आग से सुरक्षा को लेकर सरकारों और संबंधित एजेंसियों की सरासर अनदेखी; और दूसरा-आंतरिक आप्रवासन की मजबूरी। पहली वजह के पीछे के कारण बहुत स्पष्ट हैं। चूंकि अग्निकांडों में मरने वाले ज्यादातर उत्तर प्रदेश-बिहार आदि पिछड़े राज्यों के मजदूर होते हैं, इसलिए सरकारें भी ज्यादा फिक्रमंद नहीं होतीं। हादसे के बाद थोड़ा-बहुत मुआवजा देकर निश्चिंत हो जाती हैं। 

कहने को तो देश के किसी भी हिस्से में कोई संस्था, फैक्ट्री इत्यादि अग्निशमन विभाग के नो ऑब्जेक्शन र्सटििफकेट (एनओसी) के बिना नहीं चल सकती। लेकिन इस प्रावधान की अनदेखी होती है। दूसरे कारण पर नजर डालने से पता चलता है कि देश में साढ़े पांच करोड़ से ज्यादा लोग रोजी-रोजगार के लिए पलायन करके अपने मूल निवास से दूर चले गए हैं। 2011 की जनगणना के मुताबिक शिक्षा, रोजी-रोटी के लिए उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान और मध्य प्रदेश से सबसे ज्यादा पलायन हुआ है। इनमें से ज्यादातर लोग दिल्ली, महाराष्ट्र और गुजरात में पहुंचे हैं।

विकास के नाम पर इस पलायन को जायज ठहराया जा सकता है पर इसकी बड़ी विडंबना यह है कि अपने संसाधनों पर इस आबादी के कारण बेइंतहा दबावों की बात करने वाली सरकारें रोजगार की भट्टियों में सुलगती जिंदगियों को महफूज बनाने की जिम्मेदारी को हरगिज नहीं स्वीकारतीं। कोई नहीं जानता कि यह विडंबना और सिविक एजेंसियों की सतत लापरवाही अभी और कितनी जिंदगियां लीलेगी क्योंकि पेट की आग से जुड़ी विवशता इन हादसों की भयावहता के खिलाफ सरकारों को मजबूर करने वाले आंदोलन भी छेड़ने नहीं देती है।

अभिषेक कुमार


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