सामयिक : शांति दूत अवतार में मोदी
विश्व मंच पर किसी देश के नेता जो कुछ बोलते हैं, और जिस तरह बोलते हैं, उसी से उस देश की नीति और लक्ष्य का विश्व समुदाय अनुमान लगाता है और देश एवं नेता की छवि भी उसी अनुसार निर्मिंत होती है।
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तो प्रश्न उठता है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने संयुक्त राष्ट्र में जो भाषण दिया उससे उनकी और देश की कैसी छवि निर्मिंत हुई? क्या उनका भाषण वाकई ऐसा था, जिसने भारत के कद को ऊंचा किया और विरोधी देशों द्वारा जो कुछ भ्रम और गलतफहमी पैदा की गई थी, उसे दूर करने में सफल हुआ? कूटनीति का श्रेष्ठ तरीका यही माना जाता है कि कोई विरोधी देश जरूरत से ज्यादा बदनाम कर रहा हो तो भी उसका जवाब दिए और नाम लिए बिना आप अपने देश की भूमिका और सोच को सकारात्मक तरीके से अभिव्यक्त करने तक सीमित रहिए। इससे बिना कहे दुश्मन को जवाब मिल जाता है। सफलता का एक सूत्र है कि आप किसी को छोटा करने में परिश्रम की बजाय स्वयं को बड़ा बनाने में अपनी क्षमता लगाइए।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने यही किया है। निर्धारित 15 मिनट से एक मिनट अधिक के उद्बोधन में भारत के कद को इतना ऊंचा उठा दिया कि उसके सामने पाकिस्तान तो क्या अनेक देश नहीं ठहरते। भारत की ओर से विश्व कल्याण का जो भाव प्रकट किया गया, संयुक्त राष्ट्र जैसी वैश्विक संस्थाओं में परिवर्तन की जिस दृष्टिकोण से वकालत की गई वैसा किसी नेता की ओर से नहीं किया गया। इतने संक्षिप्त भाषण में भारत राष्ट्र की संपूर्ण विदृष्टि या यों कहें ब्रह्माण्डीय दृष्टि उन्होंने रख दी। विश्व मंच पर हजारों वर्ष पुरानी सभ्यता-संस्कृति वाले देश के नेता से ऐसी ही पूरे विश्व समुदाय को प्रेरणा देने वाली, भारत राष्ट्र का व्यापक लक्ष्य स्पष्ट करने वाली और संपूर्ण विश्व कल्याण के भाव से काम काम करने की भावना वाले उद्बोधन की अपेक्षा थी। पांच वर्ष पहले भी जब मोदी ने महासभा को संबोधित किया था तो इसी तरह वसुधैव कुटुम्बकम और सर्वे भवंतु सुखिन: की बात रखते हुए संयुक्त राष्ट्र के इतिहास में नया अध्याय जोड़ा था और फिर उन्होंने वर्तमान उद्बोधन से एक और अध्याय उसमें जोड़ दिया। उद्बोधन का ही प्रभाव था कि जब मोदी ने योग दिवस का प्रस्ताव रखा तो 177 देशों के समर्थन से वह पारित हो गया। इस बार उन्होंने कोई नया प्रस्ताव नहीं रखा लेकिन स्वयं भारत, विश्व समुदाय और संयुक्त राष्ट्र के लिए करने का कुछ स्पष्ट सूत्र दे दिया। उदाहरण के लिए उन्होंने कहा कि दुनिया का स्वरूप बदल रहा है। आधुनिक टेक्नोलॉजी, समाज जीवन, निजी जीवन, अर्थव्यवस्था, सुरक्षा, कनेक्टिविटी और अंतरराष्ट्रीय संबंधों में सामूहिक परिवर्तन आ रहे हैं। इन परिस्थितियों में अपनी सीमाओं के भीतर सिमट जाने का विकल्प नहीं है। हमें बहुपक्षीय होना होगा और संयुक्त राष्ट्र को नई शक्ति और नई दिशा देनी ही होगी।
एक ओर तो दुनिया की दूरियां सिमट रही हैं, संपूर्ण व्यवस्था पर इसका असर है, लेकिन ज्यादातर राष्ट्र अपनी सीमाओं के अंदर संकुचित रहते हुए नीतियों का अनुसरण करते हैं। इससे विश्व की केवल क्षति ही होनी है। इसलिए सभी का हित इसी में है कि सब अपना दायरा व्यापक करें, यह समझें कि परस्परालंबन ही एकमात्र रास्ता है। ऐसा कहने के पहले मोदी ने हर व्यक्ति के समझने लायक सरल भाषा में समझाया था कि भारत हमेशा विश्व कल्याण के भाव से ही अपनी भूमिका निभाता रहा है। हर जीव में शिव देखना यानी पूरे ब्रहांड में जो कुछ है, सबमें एक ही आत्मत्व यानी ईश्वर का दशर्न करना हमारी संस्कृति का मूलाधार रहा है। जब सभी एक ही तत्व के अंग हैं, तो फिर किसी देश से ईष्र्या, दुश्मनी और यहां तक कि युद्ध करने की मानसिकता का कोई कारण ही नहीं है। उन्होंने युद्ध की जगह बुद्ध देने की बात की। जनकल्याण से जगकल्याण को जोड़ा। सामाजिक-आर्थिक विकास की दिशा में भारत क्या कर रहा है, इसकी चर्चा उन्होंने की, लेकिन इन सबको भी विश्व के उन देशों के लिए प्रेरणा बताया जो अपने यहां गरीबी, बीमारी, गंदगी जैसी समस्याओं से जूझ रहे हैं। आज भारत से प्रेरणा लेकर और इसके सहयोग से भी अनेक देश अपने यहां उन अभियानों को चला रहे हैं, जिन्हें भारत ने किया है।
यहीं पर प्रधानमंत्री मोदी प्रश्न करते हैं कि आखिर, हम यह सब कैसे कर पा रहे हैं? उसका जवाब देते हैं कि भारत हजारों वर्ष पुरानी महान संस्कृति है, जिसकी अपनी जीवंत परंपराए हैं, जो वैश्विक सपनों को अपने में समेटे हुए है। हमारा प्राणत्तव है, जनभागीदार से जनकल्याण। भारतीय संस्कृति इसे अपना कर्त्तव्य मानती है। ऐसा भी नहीं है कि प्रधानमंत्री मोदी ने केवल सैद्धांतिक बातें कीं। उन्होंने कुछ ठोस साकार कदमों के उदाहरण भी दिए। वैश्विक तापमान से हमारे अस्तित्व पर खतरा है। प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन के आधार पर भारत का इसमें योगदान काफी कम है, लेकिन इसके समाधान के लिए कदम उठाने वालों में भारत अग्रणी देश है। अगर भारत 450 गीगावॉट अक्षय ऊर्जा का लक्ष्य पाने के लिए काम कर रहा है, तो दूसरी ओर उसने अंतरराष्ट्रीय सौर संगठन खड़ा किया है। इसके माध्यम से उन सारे देशों को सौर ऊर्जा अपनाने को प्रेरित और सहयोग किया जा रहा है, जहां सूर्य की रोशनी बहुतायत में उपलब्ध है। धरती के तापमान से भयावह और विनाशकारी आपदाएं विश्व में पैदा हो रही हैं। भारत ने इस स्थिति को देखते हुए कोएलिशन फॉर डिजास्टर रेजिएंट इन्फ्रास्ट्रकर बनाने की पहल की है। इससे दुनिया को जोड़ने की कोशिश हो रही है ताकि प्राकृतिक आपदाओं से निपटा जा सके। तीसरे, प्रधानमंत्री का यह कहना भी सही है कि संयुक्त राष्ट्र शांति मिशन में सबसे ज्यादा बलिदान भारत ने दिया है। लेकिन शांति चाहिए तो फिर आतंकवाद के खिलाफ तो उठना ही होगा।
प्रधानमंत्री ने यहां किसी देश का नाम नहीं लिया और कहा कि हमारी आवाज में आतंक के खिलाफ दुनिया को सतर्क करने की गंभीरता भी है, और आक्रोश भी। आतंकवाद के खिलाफ मोदी कड़ा वक्तव्य दे सकते थे जिस तरह उन्होंने ह्यूस्टन में दिया लेकिन यहां एक नई थीम में ही उसे रखकर दुनिया को प्रेरित करना श्रेष्ठ दशर्न और कूटनीति कही जाएगी।
भारत का लक्ष्य शांति है। मोदी ने तीन हजार वर्ष पूर्व भारत के महान तमिल कवि कण्यन कुंगुनरनार को उद्वृत किया कि ‘यादम उरे, यादमकुडे’ यानी हम सभी स्थानों के लिए अपनेपन का भाव रखते हैं, और सभी लोग हमारे अपने हैं। यह है भारत की संस्कृति। हम गांधी जी की 150वीं जयंती मना रहे हैं, जिन्होंने सत्य और अहिंसा का उपदेश दिया। फिर मोदी ने स्वामी विवेकानंद के अमेरिका के शिकागो में धर्म संसद के उस संदेश से अपना भाषण खत्म किया कि-हारमनी एंड पीस एंड नॉट डिसेंशन यानी शांति और सद्भावना। प्रधानमंत्री मोदी को पता था कि इमरान क्या बोलने वाले हैं। बिना कहे हुए उनके सारे आरोपों का जवाब भी इस भाषण में निहित था कि हमारे देश के संस्कार में युद्ध, आतंक, वैमनस्व या किसी को पीड़ा देना हैं ही नहीं। हम तो केवल मानव कल्याण के लक्ष्य से काम करते हैं। अगर दुनिया इन दोनों भाषणों की तुलना करेगी तो पलड़ा किसके पक्ष में झुकेगा यह बताने की आवश्यकता नहीं।
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