तीन तलाक : कुछ चेहरे हुए बेनकाब
आजाद भारत के विधायी इतिहास में जुलाई, 2019 अनेक खराब कानूनों के लिए जानी जाएगी बल्कि अभी कुछ और भी खराब कानून बनाए जाने हैं।
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इनमें से अधिकांश विधेयकों को जल्दबाजी में दोनों सदनों में पारित किया गया जहां विपक्ष संख्यात्मक रूप में कम और कमजोर है। इन कानूनों में आरटीआई अमेंडमेंट एक्ट, अनलॉफुल एक्टिविटीज (प्रिवेंशन) अमेंडमेंट बिल तथा मुस्लिम वीमैन (प्रोटेक्शन ऑफ राइट्स ऑन मैरिज) एक्ट तो खास तौर पर प्रतीत होते हैं कि बदले की भावना या प्रतिशोधवश पारित किए गए हैं।
आखिर वाला कानून तीन तलाक को अवैध ठहराता है, और तीन तलाक देने (आईटीटी) के आरोपित मुस्लिम को दोषी पाए जाने पर तीन साल कैद की बात कहता है। आरटीआई में किए गए संशोधनों से नागरिकों को उन तरीकों से वंचित होना पड़ेगा जिनसे उनका सशक्तिकरण हुआ और सरकारों को जवाबदेह बनाया जा सकता था। कहने की जरूरत नहीं कि सरकार को जनोन्मुखी मुद्दे उठाने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं के खिलाफ अपने अधिकार का दुरुपयोग करने में अब आसानी होगी।
आईटीटी संबंधी किए गए प्रावधान तो हास्यास्पद हैं क्योंकि कानून की दृष्टि में आईटीटी पहले से ही अवैध है। अब मुद्दा तो यह है कि जब एक ‘अपराध’ हुआ ही नहीं दिख रहा तो तीन साल की सजा देने को कैसे तार्किक ठहराया जा सकेगा? इस प्रकार के कानून और न्यायिक व्यवस्था पर समूचा विश्व हमें मजाक समझेगा। आईटीटी मुस्लिमों के केवल एक खत्थे (मसलक) हनफी में ही प्रचलित है। हनफी सुन्नी मुस्लिम होते हैं।
हालांकि वे भारतीय मुसलमानों में अक्सरियत में हैं। नेहरू-नीत सरकार ने हिंदू विवाह अधिनियम, 1956 में बनाया तो तभी से एक वर्ग को कहीं गहरे मलाल रहा कि मुस्लिमों को लैंगिक समानता संबंधी सुधार प्रक्रिया से बाहर क्यों रखा गया? 1986 में जब राजीव गांधी-नीत सरकार ने शाह बानो (1916-1992) मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा शाह बानो के पक्ष में दिए गए फैसले को कानून बनाकर पलटा और गुजारा भत्ता उन्हें वंचित कर दिया तब मलाल की गिरफ्त में चले आ रहे वर्ग की पीड़ा और गहरा गई। राजीव सरकार ने यह सब मुल्ला-मौलवियों के दबाव में किया था। उल्लेखनीय ये दुखी केवल हिंदू दक्षिणपंथी ही नहीं थे। यहां ध्यान दिलाया जाना आवश्यक है कि अली मियां नदवी (1914-1999), ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के तत्कालीन सदरए ने उर्दू में लिखे अपने संस्मरण कारवां-ए-जिंदगी (1988)-के वॉल्यूम 3, अध्याय 4, पृष्ठ संख्या 134-135 और 157 पर स्पष्ट बताया या कहें कि कबूल किया कि उन्होंने कैसे तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी को गुमराह करते हुए सुप्रीम कोर्ट के फैसले को अप्रभावी करने की गरज से कानून में संशोधन करने के लिए तत्पर किया। नदवी के साथ ही निकोलस नुजेंट की पुस्तक ‘राजीव गांधी : सन ऑफ अ डायनेस्टी (बीबीसी बुक्स, 1990, पृष्ठ 187) का संदर्भ भी लिया जा सकता है, जिसमें रहस्योद्घाटन किया गया है, ‘..कांग्रेस हाई कमान ने 1986 के शुरुआती समय में उसी तरह से ‘हिंदू कार्ड खेलने’ का फैसला कर लिया था, जैसे मुस्लिम वीमैन बिल को ‘मुस्लिम कार्ड खेलने’ के लिए इस्तेमाल किया गया था।’ ..अयोध्या का पैकेज डील होना था..मुस्लिम वीमैन बिल के जवाब के तौर पर.. पैकेज डील में हिंदुओं का रुख करने में राजीव महत्त्वपूर्ण भूमिका में थे। ताले खुले धर्मस्थल पर पूजा-अर्चना करते हिंदुओं को दूरदर्शन पर दिखाया जाना था।’ शाह बानो, जिनका विवाह 1932 में हुआ था, इंदौर के धनाढ्य वकील की परित्यक्ता (1975 में) पत्नी थीं। वह 62 वर्ष की आयु में गुजारा भत्ता दिलाने की याचिका के साथ सुप्रीम कोर्ट पहुंची (अप्रैल, 1978 में) थीं। बहुतों को यह प्रासंगिक तथ्य शायद पता न हो कि शाह बानो को तीन तलाक इंदौर की कोर्ट में दी गई थी। मामले की सुनवाई कर रहे जज के यह कहने पर कि मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत भी शाह बानो गुजारा भत्ता की हकदार थीं। इस पर उनके पति ने तीन बार तलाक बोला था। 2019 में बने इस कानून की त्रासदी यह है कि इसमें गुजारा भत्ता की बाबत एक भी शब्द नहीं है। महिला तो सदा ही असहाय है, जैसा कि शाह बानो थीं। वैसे ही, जैसे कि अनेक हिंदू महिलाओं को भी पतियों द्वारा छोड़ दिया जाता है।
असद्दुदीन औवेसी ने इस कानून की तमाम खामियों की तरफ अच्छे से ध्यान दिलाया है। पर लोक सभा में इसकी खामियां गिनाते हुए वह भी गुजारा भत्ते की बात भूल गए। जैसे कि वह मौलवियों को लुभार रहे थे। फरवरी, 2018 में औवेसी ने हैदराबाद में ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के 26वें सत्र की मेजबानी की थी। एक हफ्ते पहले ही बोर्ड के प्रवक्ता ने लखनऊ में वादा किया था कि वह एक मॉडल निकाहनामा लाने वाले हैं, जिसमें दूल्हा तीन तलाक नहीं कहने की शपथ लेगा। अब बड़ी बेशर्मी से बोर्ड अपनी बात से फिर गया है। बोर्ड ने शायरा बानो मामले में सुप्रीम कोर्ट में स्वयं को एक पक्ष बनाया था। कोर्ट ने मामले में अगस्त, 2017 में फैसला सुनाया। बोर्ड ने शपथ लेकर कहा था कि अदालत के बजाय मामला संसद में सुलझना चाहिए। लेकिन बोर्ड ने इस बाबत एक मसौदा तक तैयार नहीं किया। बजाय इसके उसने सड़कों पर उतरने को तरजीह दी।
1980 के दशक के बाद से भारतीय समाज और राजनीति का तेजी से सांप्रदायिकरण हुआ है। बहुसंख्यकवाद को इससे खुराक मिली और इन उदार-मध्यमार्गियों ने अपने कृत्यों से भारतीय ‘धर्मनिरपेक्षतावाद’ की छवि को धूमिल किया। माना कि मुस्लिम दकियानूसी ताकतों का यह पक्ष लेता है। दुखद यह है कि आधुनिक शिक्षा के एएमयू और जेएमआई जैसे इदारे भी मुस्लिमों तक पहुंचने में बुरी तरह नाकाम रहे ताकि उन्हें धार्मिक प्रतिक्रियावादियों से महफूज रखा जा सके। अब तो हाशिये पर पड़े मुस्लिमों में पढ़ा-लिखा मध्य वर्ग उभर आया है। उन्हें अपनी भूमिका निभानी होगी। और यह कार्य बिना देर किए तुरंत शुरू कर देना होगा। मीडिया के बंधुओं से भी एक आग्रह यह कि आरटीआई में संशोधन की वाहवाही करने से पूर्व इतना जरूर सोचें कि आरटीआई एक्ट को कमजोर कर दिया गया है। सांप्रदायिक हिंसा और मॉब लिंचिंग जैसी घटनाओं के लिए कोई कानून बनता नहीं दिख रहा। इससे सरकार की बदनीयती का पता चलता है। आखिर में कहना चाहूंगा कि कुछ भी गलत किया गया कभी भी सही नहीं हो सकता।
(लेखक एएमयू में प्रोफेसर हैं)
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