दाखिला प्रक्रिया : इसलिए बदलने चाहिए नियम

Last Updated 13 May 2019 06:06:56 AM IST

केंद्र और लगभग सभी राज्यों के माध्यमिक शिक्षा बोर्ड के परीक्षा परिणाम आ चुके हैं। बच्चे अब उच्च कक्षा में दाखिला के लिए भाग दौड़ करने लगे हैं।


दाखिला प्रक्रिया : इसलिए बदलने चाहिए नियम

देश में हर विश्वविद्यालय की अपनी अपनी दाखिला प्रक्रिया है। सामान्य तौर पर प्रवेश परीक्षा और मेरिट आधारित प्रवेश, हमारे यहां प्रचलित दाखिला प्रक्रिया है। कहीं-कहीं ‘पहले आओ और पहले पाओ’ के आधार पर भी नामांकन हो रहे हैं। किसी भी शैक्षिक संस्थान के लिए दाखिला प्रक्रिया एक गंभीर और सजग प्रक्रिया होती है। इसके आधार पर ही, शैक्षिक संस्थाएं, अपने और शिक्षार्थी के शैक्षिक सामथ्र्य के मध्य एकरूपता स्थापित कर बेहतर शैक्षिक निष्पादन को तय करती हैं।
शिक्षा के-प्राथमिक, माध्यमिक और उच्च-सभी स्तरों पर शिक्षार्थी की बौद्धिक एकरूपता, शिक्षक, पाठ्यक्रम और शिक्षार्थी, तीनों की अधिकतम उपयोगिता को सुनिश्चित करती है। भारतीय परिप्रेक्ष्य में जहां एक तरफ ‘पहले आओ और पहले पाओ’ के आधार पर नामांकन से शैक्षिक गुणवत्ता में कमी महसूस की जा सकती है। वहीं दूसरी तरफ, शैक्षिक मेरिट के आधार पर दाखिले द्वारा, शिक्षार्थी एकरूपता को तब तक नहीं देखा जा सकता, जब तक उत्तर प्रदेश, बिहार जैसे कुछ प्रांतीय शिक्षा बोर्ड की परीक्षा प्रणाली की सुचिता, पारदर्शिता, परीक्षा अनुशासन और अंक प्रणाली को दुरूस्त और निर्विवाद न बना लिया जाए। इन विसंगतियों के दूर होने तक केवल प्रवेश परीक्षा के आधार पर दाखिला ही एक मात्र समाधान है, जिससे शैक्षिक गुणवत्ता संवर्धन के साथ साथ शिक्षार्थियों को न्यायपूर्ण समान अवसर मुहैया कराया जा सकता है।

वैसे तो अपने देश में ज्यादातर ऐसे विश्वविद्यालय हैं, जहां शैक्षिक मेरिट ही दाखिला का आधार हैं, लेकिन भारत के शीर्ष दस विश्वविद्यालयों में शुमार दिल्ली विश्वविद्यालय (डीयू), एकमात्र ऐसा विश्वविद्यालय है, जो अपने कुछ कोर्सेज को छोड़कर ज्यादातर कोर्सेज में शैक्षिक मेरिट के आधार पर दाखिला लेता है। यानी परास्नातक कोर्स के लिए इंटरमीडिएट परीक्षा में प्राप्त अंक। देश की राजधानी में स्थित होने के कारण इस विश्वविद्यालय में, देश के सभी हिस्सों से, बच्चे दाखिला लेते हैं। शैक्षिक मूल्यांकन प्रक्रिया को लचीला बनाते हुए विभिन्न प्रांतीय शिक्षा बोर्ड भी (सी.बी.एस.ई. और आई.सी.एस.ई.) इनकी तर्ज पर, अंक प्रदान करने लगे हैं, जबकि ये प्रांतीय बोर्ड, विद्यालयी ढांचा, संसाधन, शैक्षिक तकनीक, प्रशिक्षित शिक्षक इत्यादि के स्तर पर केंद्रीय बोर्ड से मीलों पीछे हैं। लिहाजा इनके बच्चों के शैक्षिक प्राप्तांक और गुणवत्ता में बड़ा फर्क देखा जा सकता है। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या दिल्ली विश्वविद्यालय, विसनीय और संदेहास्पद सभी प्रकार के बोर्ड से उत्तीर्ण शिक्षार्थियों को एक साथ कक्षा में बैठाकर शैक्षिक गुणवत्ता को बरकरार रख पाएगा? कक्षा में विविध बौद्धिक पृष्ठभूमि के बच्चों के एक साथ बैठने से शिक्षा के तीनों ध्रुव शिक्षक, पाठ्यक्रम और शिक्षार्थी के सामने चुनौतियों की भरमार है।
शिक्षक के सामने शिक्षार्थियों के इस विविधता भरे समूह में सामंजस्य स्थापित करने के साथ पाठ्यक्रम को सही तरीके से निश्चित समयावधि के अंतर्गत पूर्ण करने की चुनौती होगी। तो कक्षा की मुख्यधारा में ठीक से न चल पाने की स्थिति में कक्षा के अंदर क्षेत्रीयता के आधार पर शिक्षार्थियों का अलग उपसमूहों में बंटने का खतरा कालांतर में इन उपसमूहों को अपना एजेंट बनाकर, राजनैतिक शक्तियां, विश्वविद्यालयी अनुशासन को प्रभावित करने लगती है। दिल्ली विश्वविद्यालय के लिए इस तथ्य को समझना इसलिए मुश्किल नहीं है कि विश्वविद्यालयी प्रशासन, स्वयं के परिसर में ही प्रवेश परीक्षा के आधार पर प्रवेशित और मेरिट के आधार पर दाखिल शिक्षार्थियों के अनुशासन में एक बड़ा फासला देख सकता है।
समय रहते विश्वविद्यालयी प्रशासन, अपने नामांकन प्रक्रिया में समसामयिक संशोधन नहीं करेगा तो 97 वर्ष पुरानी इस संस्था की शैक्षिक, सामाजिक सार्थकता और विश्वसनीयता को खतरा है। शायद यही कारण है कि देश की राजधानी में होने के बावजूद यह विश्वविद्यालय देश का शीषर्तम विश्वविद्यालय बनने के साथ-साथ विश्व के शीर्ष विश्वविद्यालयों में शुमार होने का अवसर खोता रहा है। राजधानी के इस विश्वविद्यालय का नैतिक दायित्व है कि वो देश के अन्य विश्वविद्यालयों के समक्ष एक न्यायपूर्ण, निष्पक्ष और सार्थक नामांकन प्रक्रिया का माडल प्रस्तुत करे।

धनंजय राय


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