गौरतलब : जलवायु नीति में मौलिक बदलाव जरूरी
राष्ट्रीय जल नीति 2012 में लाया गया, लेकिन नीति का अध्ययन करें तो पाते हैं कि जो तत्कालीन समस्याएं हैं, उसमें उनको स्थान नहीं मिला है।
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इस नीति में जल का उपयोग, जल को उपयोग में लाने वाले कार्यक्रम, जल का उपयोग की क्षमता, मांग प्रबंधन, जल मूल्य (वाटर प्राइसिंग) और उसके संरक्षण के बारे में जिक्र है। लेकिन तत्कालीन चुनौतियां जैसे जलवायु परिवर्तन, जल मार्ग, गंगा स्वच्छता अभियान आदि के साथ-साथ अन्य नदियों के प्रबंधन आदि पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया है। अत: इसके मूलभूत परिवर्तन की आवश्यकता है। वैश्विक संदर्भ में भारत की जनसंख्या करीब 18 फीसद है, अगर भौगोलिक क्षेत्रफल 2.4 फीसद है। जब हम विश्व के जल प्रतिशत को भारत के संदर्भ में देखें तो यह 4 फीसद ही है। अत: जल के सतत विकास के मूल धाराओं को हमें वर्तमान परिप्रेक्ष्य में देखना होगा।
भारत अभी अपना 6 फीसद वाषिर्क वष्रा जो 253 बिलियन क्यूबिक मीटर के बराबर है, का जल संग्रहित करता है। परंतु विकसित देशों के परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो यह बहुत ही कम है। हमारा जलसंसाधन काफी समुद्र में बेकार चला जाता है, जो 1200 बिलियन क्यूबिक मीटर के बराबर है। अत: भारत की खाद्य सुरक्षा हम तभी प्राप्त कर सकते हैं, जब जल सुरक्षा पर ध्यान दिया जाए। अपने देश की ऊर्जा सुरक्षा भी इस पर निर्भर है। हमारे देश में वष्रा जल की जो प्राप्ति और भूमिगत जल के रिचार्ज में बहुत ही अंतर है। हम इसकी पूर्ण संभावनाओं को संग्रहित नहीं कर पाते। यह बहुत जरूरी हो गया है कि हर पंचायत के स्तर से लेकर जिला स्तर तक जो पानी का प्रवाह है, उसे हम समुद्र में जाने से रोकें। और सिंचाई आदि के लिए, जो हमारे जल के साधनों को क्वालिटी मॉनिटरिंग की बहुत आवश्यकता है, जिससे पानी को दूषित होने से बचाया जा सके।
यह कहना बहुत ही आवश्यक हो जाता है कि जल राज्य का विषय है। और इसके लिए राज्य के और निचले स्तर पर नीति निर्धारण की आवश्यकता है। अत: जो हमारी वर्तमान संरचना है, उसको पुनर्निर्धारित करने की जरूरत है। यदि हम वाटरशेड मैनेजमेंट की बात करें तो यह 130 मिलियन हेक्टेयर है, मगर उसमें 40-50 मिलियन हेक्टेयर तक ही सरकार का ध्यान गया है। इसमें लोगों की भागीदारी बहुत नगण्य है। अभी करीब 54 मिलियन हेक्टेयर वर्तमान में सिंचित क्षेत्र है, जो एक अनुमान के अनुसार 65 मिलियन हेक्टेयर 2020 तक और 85 मिलियन हेक्टेयर आने वाले 50 सालों में सिंचित होगा। यह तभी संभव हो सकता है, जब हम नदी घाटी परियोजनाओं को जलवायु संसाधनों का समेकित नियोजित और प्रबंधन करें। भारत के कुछ क्षेत्रों में सामुदायिक संस्थाएं जैसे वाटरशेड मैनेजमेंट संस्थाएं, सूखा क्षेत्रों में, सिंचित क्षेत्र में जल उपयोग संगठन, वन क्षेत्रों में संयुक्त वन प्रबंधन और शहरी क्षेत्रों में रेजिडेंट वेलफेयर एसोसिएशन (आरडब्ल्यूए) की मुख्य भूमिका हो सकती है।
यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि जहां भी जल का प्रबंधन अच्छे ढंग से हुआ है, वहां गरीबी दूर करने में मदद मिली है। पंजाब और हरियाणा इसके मुख्य उदाहरण हैं। हमें सूखा और बाढ़ के क्षेत्रों को एक साथ प्रबंधन करने पड़ेंगे। भारत के उत्तर में स्थित हिमालय में प्रति इकाई जल की सबसे अधिक मात्रा मिलती है। इस कारण से हम हिमालय को ‘पृथ्वी का वाटर टॉवर’ की भी संज्ञा देते हैं। जबकि भारत के 200 से अधिक जिले सूखा पीड़ित हैं। इसके लिए ‘इंटरलॉकिंग ऑफ रिवर्स’ आदि योजनाओं की शुरुआत कुछ वर्ष पहले की गई थी। इस संदर्भ में हम बहुस्तरीय योजना की संकल्पना लाना चाहेंगे। पूरे भारत के स्तर पर यह बहुत ही खर्चीली योजना है। इसके लिए हम कुछ प्रागमैटिक सोल्यूशन बताना चाहेंगे। हरेक राज्य में सूखा क्षेत्र है और बाढ़ का क्षेत्र है। यदि हम राज्य के अंदर ही बाढ़ और सूखा क्षेत्रों को जोड़ दें तो इसमें कम खर्च लगेंगे। आगे हम इसे अंतरराज्यीय बना सकते हैं।
इस संबंध में केन-बेतवा लिंक एक उपयुक्त उदाहरण है। केरल में आए बाढ़ में करीब 300 लोग मारे गए और एक मिलियन (10 लाख) से ज्यादा लोग विस्थापित हुए। इस त्रासदी में करीब 50 हजार करोड़ का नुकसान हुआ। इसका मुख्य कारण था कि दो महीने में केरल में 37 फीसद ज्यादा बारिश हुई। लेकिन बांधों का प्रबंधन ठीक तरीके से नहीं होना इसका मुख्य कारण रहा। इसके लिए बहुत से कारक जिम्मेदार हैं। उसमें प्रमुख हैं जलवायु परिवर्तन, अवैध खनन, हरे-भरे जंगलों का नष्ट होना और बांधों का मिस मैनेजमेंट। यह कहा जाता है कि बांध से पानी को छोड़ने का मुख्य कारण तात्कालिक था। अत: बांधों का प्रबंधन वैज्ञानिक ढंग से बहुत ही जरूरी है। वचरुअल वाटरशेड ही आज के संदर्भ में एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण कारक होकर उभरा है। जैसे-हमारी सार्वजनिक वितरण प्रणाली का गेहूं और चावल पूरे देश में पंजाब और हरियाणा से सप्लाई की जाती है। तो यहां के जल का उपयोग दूसरे राज्य के लोग करते हैं। यानी एक राज्य के जल का इस्तेमाल दूसरे रूप में बाकी राज्य भी करते हैं। इसका भी हमें ख्याल रखना होगा। ट्रांस बाऊंडरी रिवर (अंतरराष्ट्रीय नदी) की अवधारणा हमारे देश में बहुत ही सटीक परिलक्षित होती है। चाहे वह ब्रह्मपुत्र नदी हो जो भारत-चीन-बांग्लादेश में बहती है या गंगा नदी हो जो कई राज्यों से होकर गुजरती है या फिर सिंधु नदी है जो भारत-पाकिस्तान में बहती है। मगर एक बात थोड़ी कचोटती है। वह है पानी को लेकर राज्यों का आपस में लड़ना। दुश्मन सरीखा व्यवहार करना। इसके वास्ते हमें राज्य और अंतरराज्यीय स्तर पर रचनात्मक सहयोग की आवश्यकता होती है। हिमालय में स्थित 5.8 हजार ग्लेशियर पानी की सप्लाई करते हैं। जिस पर किसी एक राज्य का अधिकार नहीं है।
भौगोलिक शिक्षा द्वारा जनता में उत्तरदायित्व की भावना पैदा करना बेहद जरूरी हो गया है। जल के संरक्षण और क्षमता को बढ़ाने के लिए कुछ प्रमुख सुझाव विभिन्न सेक्टर (क्षेत्रों) में देना चाहेंगे। डोमेस्टिक सेक्टर (घरेलू) क्षेत्र में जल बचाओ उपकरण, सभी उपभोक्ताओं को वाटर मीटर लगाना, प्रगतिशील जल टैरिफ, वाटर बैलेंस का ऑडिटिंग, उसकी गुणवत्ता को बढ़ाने के लिए सीवेज सिस्टम में सुधार करना, औद्योगिक क्षेत्रों में वाटर रि-साइकिलिंग, वेस्ट वाटर का पुन: इस्तेमाल करना, शहरों में सीवेज वाटर आदि का ट्रीटमेंट करना, कृषि क्षेत्रों में जल की कीमतों का निर्धारण, सीवेज वाटर का उपयोग गैर कृषि उत्पादन (फूल उत्पादन) के लिए इस्तेमाल करना, ऐसे फसल लगाना जो खारे जल में पैदा होते हों, सिंचाई के तरीकों में सुधार करना जिससे पानी की बर्बादी रुके, स्प्रिंकलर और प्रत्येक बेसिन में नदी प्रबंधन के लिए मृदा संरक्षण और वनीकरण, पशुपालन, सीवेज ट्रीटमेंट (नदियों में गिरने से पहले) कृषि क्षेत्रों में प्रदूषण को कम करने के लिए बॉयो फर्टिलाइजर (जैव खाद) और जैव पेस्टीसाइड।
हमारे देश में जल नीति को लेकर परंपरागत प्रयास हुए हैं। अत: समय आ गया है कि पंचायत, ग्राम सभा और नगरपालिका के स्तर पर हम समाज में जल का उपयोग करने वाले विभिन्न घटकों में एक समझदारी भरा अभियान चलाएं।
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