मीडिया : गालियों का समाजशास्त्र और मीडिया

Last Updated 12 May 2019 06:41:15 AM IST

जितनी गालियां इस चुनाव में बरसी हैं, उतनी कभी नहीं बरसीं। मीडिया तो मानों गालियों की तलाश में ही रहता है।


मीडिया : गालियों का समाजशास्त्र और मीडिया

एक ‘बाइट’ यानी एक बढ़िया सी गाली मिली और उसकी टीआरपी बढ़ी और उसकी कमाई हुई। वह उसे पूरे दिन बजाता है। और एक छद्म नैतिक विमर्श खड़ाकर पूछता है कि क्या गाली देना उचित है? जिस गाली को बजा-बजाकर वह कमाई करता है उसे वह बंद नहीं करना चाहता बल्कि बजा-बजाकर प्रेरणा ही देता है कि गाली दोगे तो खबर बनोगे। यह बात नेताओं ने अच्छी तरह समझ ली है और जनता तो इस बात को पहले से ही समझती है। शाप क्या है? गाली क्या है? कटुक्ति क्या है?
शाप या गालियां या कटुक्तियां समाज में ताकतवर और कमजोर के बीच असमान संबंधों को बताती हैं। वे मूलत: ‘कमजोर’ की अभिव्यक्ति होती हैं जो ताकतवर की ताकत को ‘हीन’ करना चाहती हैं। कमजोर के लिए गाली एक प्रकार की ‘क्षतिपूर्ति’ की तरह  होती हैं। सार्वजनिक विमर्श में गालियों का होना बताता है कि कोई कमजोर व्यक्ति या वर्ग किसी ताकतवर व्यक्ति या वर्ग से परेशान है और अपनी गाली से उसे कमजोर करना चाहता है। वह उसका उपहास उड़ाकर ताकतवर के रु तबे से मुक्त होना चाहता है। यों तो ताकतवर भी गालियां देते हैं, लेकिन वे कमजोर को और कमजोर करने  के लिए दिया करते हैं। इन दिनों मीडिया में होती गालियों की बरसात को देख कुछ कथित ‘शिष्ट’; एलीट लोग ऐसे मुंह सिकोड़ते हैं मानो किसी देवलोक से आए हों। जबकि सच यह है कि ये शिष्टजन भी आपस में जमके गालियां देते-लेते हैं। अपने यहां गालियां एक ‘संस्कृति’ भी है।

जो काम लंबा भाषण नहीं कर सकता वह काम एक छोटी-सी गाली कर सकती है। इस बात को हमारे नेता और मीडिया दोनों ही जानते हैं। सोशल मीडिया तो गालियों और कटुक्तियों का खुला अखाड़ा ही है। यहां  शिष्टता नहीं,अशिष्टता ही मूल्य है। नए वृद्ध पूंजीवाद और मीडिया जन्य निरे व्यक्तिवाद ने आदमी को सामाजिकता से मुक्त कर निरे फूले हुए ‘ईगो’ में बदल दिया है। आदमी ‘ईगो’ का पर्याय हो गया है। इसीलिए इन दिनों हर एक का ईगो; अहं/अहंकार दूसरे के ईगो टकराता है और एक से एक घृणा भरी कटुक्ति या गाली निकलने लगती है। जब से हमारी राजनीति से ‘सामाजिक तत्व’ बाहर हुआ है तब से नेताओं का ईगो और उन्मत्त हुआ है। ईगो ही आज के आदमी की ‘देह भाषा’ बन गया है। और ये दौर ‘पर्सनल इज पॉलिटिकल’ का दौर है, जहां नेता का ‘निजी’ ही ‘राजनीतिक’ हो उठता है। यहां व्यक्ति ही सर्वेसर्वा है, समाज या संगठन नहीं। इसीलिए ‘व्यक्ति नेता’ ही सबसे तीखी प्रतिक्रियाएं पैदा करता है। सोशल मीडिया तो जैसे ‘निजी की राजनीति’ के लिए ही बना है। टीवी में आती गालियां इस सोशल मीडिया का ही विस्तार हैं। और अपने नेता? वे तो पूरे ‘साइबर सूरमा’ हैं। नेता बेहतर जानते हैं कि जब तक वे कड़वी बात न कहेंगे, गाली न देंगे, किसी को नीचा नहीं दिखाएंगे तब तक कोई ध्यान नहीं देगा, न कोई देखेगा। और देखेगा नहीं तो पूछेगा कौन? हमारे  ज्यादातर नेता ‘खबर बनने’ के लिए गाली देते हैं।
रीयल टाइम में, चौबीस बाई सात के हिसाब से काम करता मीडिया ऐसी ही बाइटों की मांग करता है, जो जरा से में बहुत कुछ कह दें। गाली थोड़े में बहुत कह देती है। यही नहीं गाली हमारे अवचेतन में बैठी दमित कुंठाओं और दमित कामनाओं का इजहार भी है। किसी रेली में जब कोई नेता किसी पर कटुक्ति का प्रहार करता है तो जनता इसलिए ताली बजाती है क्योंकि उस प्रहार में वह स्वयं भी प्रहार करती हुई महसूस करती है। गाली ऐसा ही तादात्म्य पैदा करती है। इसीलिए हिट होती है। नेताओं द्वारा दी जातीं ऐसी गालियों या उपहास को सुनकर जनता इसीलिए ताली बजाती है क्योंकि ताकतवर के प्रति गाली सुनकर उसका मन हल्का हो जाता है।
गालियों में एक प्रकार के ‘सैडिस्ट प्लेजर’; सताने का सुख काम करता है। हम सताने वाले को ‘सता हुआ’ पाकर सुख प्राप्त करते हैं। ताकतवर को रोता देखकर कमजोर को बड़ी तसल्ली मिलती है।  गाली में आततायी के प्रति घृणा ही व्यक्त नहीं होती उससे बदला लेने की भावना भी काम करती है। आम जनता को यह बदलेखोरी इसलिए पसंद आती है क्योंकि वह भी ताकतवर की सत्ता की निरंकुशता और उसके आततायी रूप से परेशान रहती है। आम जनता गाली के जरिए सत्ता के मुकाबले अपनी क्षणिक प्रति-सत्ता स्थापित करती है। वह हर उस बात को पसंद करती है जो सत्तावान की ताकत की हवा निकालती हो। जाहिर है कि गालियां ताकतवर और कमजोर के बीच सत्ता के असमान वितरण के उदाहरण हैं।

सुधीश पचौरी


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