वैश्विकी : अमन की शर्त ईमान
अफगानिस्तान में अमेरिका की अगुवाई में चल रही शांति वार्ता के मद्देनजर भारत ने पड़ोसी देश में अपने रणनीतिक क्षेत्रों की रक्षा के लिए कूटनीतिक प्रयास तेज कर दिए हैं।
वैश्विकी : अमन की शर्त ईमान |
अमेरिका और तालिबान के बीच वार्ता सकारात्मक दिशा में आगे बढ़ रही है। लगता है कि अफगानिस्तान से अपनी सेनाएं हटाने की धुन में अमेरिका तालिबान को कुछ रियायत देने के लिए तैयार है। उसने तालिबान की इस शर्त को भी मान लिया था कि शांति वार्ता के वर्तमान दौर में काबुल की राष्ट्रीय सरकार का कोई प्रतिनिधि शामिल नहीं होगा।
भारत अशरफ गनी के नेतृत्व वाली सरकार को समर्थन देता है और तालिबान के बढ़ते प्रभाव को स्वीकार करने को तैयार नहीं है। अमेरिका तालिबान से जारी बातचीत को लेकर भारत को विश्वास में रखना चाहता है। यही कारण है कि अमेरिकी वार्ताकार जलमय खालिद जान ने कुछ दिन पूर्व भारत यात्रा के दौरान विदेश मंत्री सुषमा स्वराज और अधिकारियों को वार्ता के संबंध में अवगत कराया था। लेकिन यह सोचना आशावादिता होगा कि अमेरिका अपने शांति प्रयासों में भारतीय हितों को प्रमुखता देगा। यही कारण है कि भारत अन्य क्षेत्रीय शक्तियों के साथ मिलकर अफगानिस्तान में शांति और स्थिरता कायम करने के लिए कूटनीतिक प्रयास कर रहा है।
इसी क्रम में भारत और चीन ने इस संघषर्रत देश में शांति और स्थिरता कायम करने के लिए साझा प्रयास करने की ओर कदम बढ़ाया है। चीन के विशेष दूत डेंग झियोन ने हाल ही में अफगानिस्तान के वर्तमान हालात के बारे में भारतीय अधिकारियों से बातचीत की। दोनों देशों के अधिकारियों ने भारत और चीन के उच्च नेतृत्व द्वारा लिए गए निर्णयों के आलोक में अफगानिस्तान में संयुक्त रूप से सहयोग करने पर भी विचार किया। दरअसल, चीन, भारत, ईरान, पाकिस्तान और रूस जब तक संयुक्त रूप से अफगानिस्तान में शांति और स्थिरता के लिए आगे नहीं बढ़ेंगे तब तक वहां शांति प्रयास विफल होंगे। चीन अफगानिस्तान में जिस तरह से विशेष रुचि रख रहा है, उसका रणनीतिक दृष्टि से विशेष महत्त्व है। काबुल के साथ बीजिंग के बढ़ते कूटनीतिक और राजनीतिक रिश्तों का स्वागत किया जाना चाहिए क्योंकि लोकतांत्रिक ढंग से चुनी गई काबुल की राष्ट्रीय सरकार को इससे ताकत मिलेगी। इस सरकार को संयुक्त राष्ट्र का भी समर्थन प्राप्त है। इसीलिए भारत और चीन, दोनों संयुक्त रूप से अफगानिस्तान में शांति और स्थिरता लाने के लिए एकजुट होकर काम करते हैं, तो यहां सद्भाव कायम होने की संभावना दिखाई देती है।
अफगानिस्तान भारत और चीन, दोनों को पारंपरिक तौर पर अपने भरोसेमंद पड़ोसी के रूप में देखता है। पिछले अठारह वर्षो से देखा जा रहा है कि वैश्विक स्तर पर अफगानिस्तान में शांति और स्थिरता लाने के जो भी प्रयास किए गए उनके सकारात्मक परिणाम सामने नहीं आए। इसकी एक बड़ी वजह शांति प्रक्रिया में क्षेत्रीय ताकतों को अलग-थलग रखना भी रही है। इसके कारण इस क्षेत्र से आतंकवाद को खत्म करने के सामूहिक प्रयास विफल हुए और क्षेत्रीय अस्थिरता की खाई भी चौड़ी हुई। अफगानिस्तान के पड़ोसी होने के नाते भारत और चीन इस क्षेत्र की चुनौतियों की पहचान करने में मदद कर सकते हैं, जो अफगानिस्तान में क्षेत्रीय स्थिरता और वैश्विक शांति को बढ़ावा देने में मददगार साबित होगी। भारत और चीन समेत अन्य क्षेत्रीय शक्तियां आतंकवाद से लड़ने के लिए खुफिया जानकारियों का आदान-प्रदान कर सकती हैं, प्रशिक्षण दे सकती हैं और लॉजिस्टिक मदद भी दे सकती हैं, जिससे तालिबान और हक्कानी नेटवर्क को ध्वस्त करने में मदद मिलेगी।
क्षेत्रीय शक्तियों की ताकत से अल कायदा, इस्लामिक स्टेट, खोरासन सूबा, ईस्ट तुर्किस्तान इस्लामिक मूवमेंट, लश्कर-ए-तैयबा, तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान जैसे आतंकवादी संगठन इस क्षेत्र को अशांत किए हुए हैं। चीनी राष्ट्रपति शी जिन पिंग ने अठारहवें शंघाई सहयोग संगठन के शिखर सम्मेलन में कहा था कि 2019 से 2021 के दौरान आतंकवाद, अलगाववाद और उग्रवाद जैसी बुराइयों को उखाड़ फेंकना है। चीन अफगानिस्तान में शांति के लिए पाकिस्तान का भी इस्तेमाल कर सकता है। अगर ये सभी क्षेत्रीय शक्तियां ईमानदारी से साझा प्रयास करें तो काबुल में शांति और स्थिरता कायम हो सकती है।
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