राजनीति : अथातो राहुल जिज्ञासा

Last Updated 13 May 2019 06:10:46 AM IST

फैसले की तारीख 23 मई जैसे -जैसे नजदीक आ रही है, राजनैतिक चर्चाओं के बिंदु बदलते जा रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का लगातार वाचाल होते जाना।


राजनीति : अथातो राहुल जिज्ञासा

लोक सभा चुनाव में मुद्दों की जगह भावनाओं की अधिक भागीदारी और सब मिला कर इस लोकतांत्रिक उत्सव की नीरसता, मन ही मन हर उस व्यक्ति ने चिह्नित की है, जिसने इस चुनावी उत्सव में थोड़ी भी रुचि ली। राजनैतिक-विश्लेषक यही बतला रहे हैं कि इस चुनाव में किसी किस्म की कोई लहर नहीं है, न व्यक्ति की, न मुद्दों की। कोई नहीं कह सकता कि 23  मई को क्या होगा? 
कई दफा पूर्व अनुमानों को ढहते देखा है। 2004 के चुनाव को कोई भी याद  कर सकता है। तब अटलबिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे और आज जिस तरह सर्जिकल स्ट्राइक की थोड़ी शाइनिंग है, उससे कहीं अधिक उन दिनों फील-गुड और इंडिया- शाइनिंग का जोर था। हम नहीं कह सकते कि हिंदुत्व का नारा आज की तुलना में कुछ कमजोर था। विपक्ष के पास कोई सर्वसम्मत नेता तब भी नहीं था। सोनिया गांधी पर विदेशी मूल के होने संबंधी हमले भाजपा की तुलना में जार्ज-अमर सिंह जैसे सोशलिस्ट अधिक कर रहे थे। नरेन्द्र  मोदी  की तुलना में वाजपेयी का चेहरा कई गुना अधिक राष्ट्रीय, जनतांत्रिक और बहुस्वीकृत था; सौम्य भी। लेकिन नतीजा क्या आया था, सब को मालूम है। भाजपा 138 पर सिमट गई और कांग्रेस उससे 7 अधिक 145 थी। भाजपा के हाथ से सत्ता दूर चली गई थी। चुनावी नतीजे आ जाने के बाद जब कांग्रेस अन्य विपक्षी दलों के साथ मिल कर सरकार बनाने में पूरी तरह सक्षम थी, तब लोगों का यह सोचना जायज था कि सोनिया प्रधानमंत्री बनेंगी। लेकिन सोनिया ने सब को चौंका दिया, जब उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष की हैसियत से प्रधानमंत्री के रूप में एक अराजनीतिक व्यक्ति मनमोहन सिंह के चयन की घोषणा कर दी।

सोनिया ने कांग्रेस और नेहरू परिवार के बारे में इस अवधारणा को तोड़ा कि वह किसी अन्य की राजनीतिक सत्ता को स्थिर नहीं रहने देती, जैसा कि चरण सिंह और चंद्रशेखर के मामलों में किया था। अब जब चुनाव समाप्ति की ओर है और पूरे मुल्क में नतीजों का अटकलों के साथ इंतजार हो रहा है, तब यह स्वाभाविक है कि प्रतीक्षित प्रधानमंत्रियों पर भी चरगट्टों और चाय की चुस्कियों के बीच चर्चा हो। आज मुल्क के जो राजनैतिक हालात हैं, उसमें वाम पक्ष की कोई खास उपस्थिति नहीं है। इलाकाई पार्टयिां हैं और कांग्रेस है। सब को मालूम है मौजूदा कांग्रेस अपने सब से बुरे दौर में है। कांग्रेस अध्यक्ष का पद सोनिया से खिसक कर राहुल पर आ गया। ़मगर राहुल को जितने तंज सुनने पड़े, शायद ही किसी को सुनने पड़े होंगे। लेकिन इन सब की अनदेखी करता हुआ यह आदमी लगा रहा। चुपचाप लगे राहुल ने जब राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के प्रांतीय असेम्बली के चुनावों में  अच्छा किया, तब उन्हें गंभीरता से लिया जाने लगा। निश्चित ही इस सफलता ने उन्हें आत्मबल दिया होगा। इससे यह भी सिद्ध होता है कि अवसर और परिश्रम से भी योग्यता निखर सकती है। जिन लोगों ने गांधी, नेहरू, आंबेडकर  की बायोग्राफी पढ़ी है, वे जानते हैं कि उपरोक्त सभी के अकादमिक कॅरियर तो बहुत बुलंद नहीं ही रहे। सभी अपने आरंभिक जीवन में भीषण संकोची भी रहे।
सुभाष बोस जैसे व्यक्ति, जिन्होंने आइसीएस करके अपनी बौद्धिक मेधा का भी परिचय दिया था, आरम्भ में बहुत संकोची थे। उनके जीवनीकार ने इस संबंध में एक घटना का उल्लेख किया है। कोलकाता  नगर निगम के चेयरमैन के रूप में जब वह कार्य कर रहे थे, तब एक दफा ‘अमृत बाजार पत्रिका’ के संपादक उनसे मिलने आए। बोस संपादक को एक लेख देना चाहते  थे। लेकिन उनका संकोच ऐसा था कि उसे वह  टेबल के ऊपर से नहीं नीचे से बढ़ा  रहे थे। इस बचपने पर किसे तरस नहीं आएगा। हां, कुछ लोग जन्मजात प्रतिभाशाली मुंहफट होते हैं, जो कहीं, किसी भी विषय पर निसंकोच कुछ भी; पूरी नाटकीयता के साथ बोल लेते हैं। निसंदेह यह भी मनुष्य जाति का एक गुण है। कवि तुलसीदास ने ‘गाल बजाने’ वाले ऐसे पंडितों की ‘महिमा’ रेखांकित की है। राहुल अपनी पार्टी  में निसंदेह इसलिए ऊंचे ओहदे पर पहुंचे कि वह उस खास परिवार से थे, जिससे  जवाहरलाल और इंदिरा जुड़ी थीं। और यदि यह वंशवादी राजनीतिक परंपरा है, जिसे मैं भी बहुत खराब मानता हूं, तो यह कई दलों में है। इसके लिए वह परिवार नहीं, बल्कि इस देश का मनोविज्ञान भी जवाबदेह है। लेकिन इतना तो सोचना ही पड़ेगा  कि यह कांग्रेस राजीव की मौत और सोनिया के आगमन के बीच जब नेहरू परिवार से अलग रहा, तब उसने कुछ अच्छा क्यों नहीं किया?
संभवत: इसलिए यह रूढ़ि विकसित हुई कि कांग्रेस इसी परिवार के बूते बढ़  सकती है। फिलहाल मुझे तो उस राहुल की कहानी कहनी है, जिसे ‘पप्पू’ कहा जा रहा था, या  है। और क्या इस छवि के साथ वह प्रधानमंत्री बन सकता है? पूरक प्रश्न यह भी है कि इस राहुल को सबसे अधिक रेखांकित किसने किया? मोदी लगातार कांग्रेस और राहुल पर आक्रामक रहे। उनकी इस आक्रामकता ने लोगों का ध्यान  इनकी  तरफ खींचा। इस मनोविज्ञान को मोदी शायद नहीं समझ सके कि वह किस हद तक उन्हें लाभ पहुंचा रहे हैं? 1978 में पराजित और निस्तेज पड़ी इंदिरा गांधी को लगातार छेड़ कर और अंतत: गिरफ्तार कर चरण सिंह ने फायदा पहुंचाया था। मोदी ने चरण सिंह वाली ही गलती दुहराई। इस बीच राहुल ने अत्यंत साधारण तरीके से अपने को आहिस्ता-आहिस्ता  बदला। मोदी जहां नियमित अपने ‘मन की बात’ दूसरों को सुनाते रहे, राहुल ने दूसरों की सुनने में दिलचस्पी दिखलाई। अभी एक इंटरव्यू में उन्होंने जब यह कहा कि वह सबसे सीखना चाहते हैं, यहां तक कि मोदीजी से भी, तब लोग उत्सुक हुए। यह कह  कर कि मोदीजी से उन्होंने यह सीखा कि देश कैसे नहीं चलाना चाहिए, राहुल ने लोगों को चौंकाया कि पप्पू अब बारीक व्यंग्य भी कर सकता  है।
पूरे पांच साल में इतना दुरुस्त व्यंग्य मोदी के मुंह से नहीं आया। दरअसल, मोदी के लगातार वाचाल होने ने राहुल की मदद की। जनता को निरंतर की वाचालता से राहुल का कम बोलना अच्छा लगा। हालांकि ‘चौकीदार चोर है’ के नारे ने राहुल की छवि कमजोर की है। इस तरह की स्तरहीनता न कांग्रेस की, न ही नेहरू परिवार की परंपरा रही है। सौम्य-संयमित रूप को जनता हमेशा पसंद करती है। लोकतांत्रिक जीवन में भी लोग पारम्परिक मर्यादा को पसंद करते हैं। ट्रेड यूनियन वाली जुबान संसदीय जुबान के रूप में पसंद नहीं की जाती। मोदी ने यही गलती की। राहुल को इससे बचना चाहिए।

प्रेमकुमार मणि


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