बीच समय में : संस्कृति की विभाजक रेखाएं

Last Updated 04 Nov 2018 06:33:33 AM IST

हम एक ऐसे दौर के गवाह बन रहे हैं, जहां भारत की ‘विविधता में एकता’ पर अस्मिता की राजनीति हावी होती जा रही है।


बीच समय में : संस्कृति की विभाजक रेखाएं

भारत के बारे में होने वाली वैचारिक बहसें किसी भी विचारधारा से क्यों न उत्पन्न हों, इस शर्त पर अवश्य सहमत होती हैं कि यहां सांस्कृतिक रीति-रिवाजों, आचार-व्यवहारों और प्रतीकों की विविधता है। इस विशेषता को विरासत मानते हुए हम अपनी ‘परंपरा’ से जोड़ते हैं। एक ऐसी आदर्श स्थिति की कल्पना करते हैं, जहां विभिन्न सांस्कृतिक समूहों में कोई संघर्ष या द्वंद नहीं है, जबकि यथार्थ में यह परिकल्पना साकार होती नजर नहीं आती।

‘विविधता में एकता’ भारतीय समाज के जिन सांस्कृतिक प्रतीकों पर निर्मिंत है, वे इन समूहों के सामाजिक-आर्थिक संबंध को ऐतिहासिक ढंग से नहीं प्रस्तुत करते। भारत की परिकल्पना करने वालों का एक धड़ा ऐसा है, जो एक धर्म, एक विश्वास, एक भाषा और एक निष्ठा के नाम पर हर विविधता को एकरूपता में बदल कर ‘वृहद् भारत’ की रचना करना चाहता है। स्वाभाविक है कि यह तरीका प्रतिरोध को जन्म देगा। विडंबना यह है कि ये दोनों धाराएं हर सांस्कृतिक समूह को अपनी तरफ से प्रमाणपत्र देने को उत्सुक हैं।

एक तीसरी धारा ‘निरपेक्षता’ की पैरोकार है। यह संविधान सम्मत है लेकिन इसकी उतनी स्वीकृति नहीं बन पा रही है क्योंकि अन्य दो धाराओं ने मीडिया जैसे साधनों के प्रयोग द्वारा ऐसी संकटकालीन स्थिति का प्रोपोगंडा किया है, जहां बिना मजबूत समूह की पहचान के अस्तित्व का संकट दिखाया जा रहा है। इसे ही स्टेन कोहेने ने ‘मोरल पैनिक’ की संज्ञा दी है। प्रत्येक समूह अपनी पहचान को कानूनी वैधता दिलाना चाह रहा है। दरअसल, ऐसा करके वे देश के हिस्से में अपना हक बढ़ाना चाहते हैं, जिसके लिए वे अपनी विशिष्ट स्थिति को न्यूनतम शर्त मान रहे हैं। इस सबके बीच देश हित का सवाल परे धकेला जा चुका है।

‘अस्मिता की राजनीति’ का एक ऐसा माहौल बन चुका है कि हर सांस्कृतिक समूह ने समुदाय के कल्याण के सापेक्ष अपने लोगों को लामबंद कर लिया है। ऐसे बहुत से क्षेत्रीय, जातीय, भाषायी समूहों को आप अपने आसपास देख सकते हैं। वे अपनी सामुदायिक पहचान को सबसे ऊपर रखते हैं। कहना न होगा कि अस्मिता की राजनीति के रास्ते सत्ता पर नियंत्रण की लालसा हमारे समय का एक बड़ा संकट है। हाल के दिनों की जिन घटनाओं को आप देश के लिए खतरा मान रहे हैं, उन्हें सांस्कृतिक समूहों के बीच टकराव के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है जबकि ये घटनाएं राजनीतिक-आर्थिक नियंत्रण के प्रयास हैं। हमारी राजनीतिक रणनीतियां क्षेत्रीय-धार्मिंक-जातीय-भाषायी अस्मिताओं को पुष्ट करना चाहती हैं।

हर सांस्कृतिक समूह में यह राजनीतिक चेतना विकसित हो चुकी है कि शक्ति के केंद्रीकरण और अवसरों की असमानता की खाई को राजनीतिक व्यवस्था पर कब्जा करके ही पाटा जा सकता है। उनके लिए सत्ता पर कब्जा राज्य के हस्तक्षेप के रास्ते उत्पादन के साधनों पर कब्जा करना है। विडंबना यह है कि समूह विशेष में शक्ति का केंद्रीकरण ‘अन्य’ के लिए अवसरों की असमानता और शोषण के रूप में प्रकट होता है। वे इस असमानता के लिए राज्य की व्यवस्था को उत्तरदायी मानने लगते हैं।

इस तरह जिस व्यवस्था को सकारात्मक भेदभाव करते हुए उपेक्षितों और शोषितों का पक्ष लेना था, वह उनके विरुद्ध खड़ी हो जाती है। एक तरह से हमारी राजनीतिक चेतना प्रतिशोधात्मक बनती जा रही है। हर समूह सत्ता के प्रतिष्ठानों पर वैसे ही नियंत्रण करना चाह रहा है, जैसे उसके पूर्ववर्तियों ने किया था। तो फिर राजनीतिक चेतना के प्रसार द्वारा लोकतंत्रात्मक मूल्य व्यवस्था- स्वतंत्रता, उदारता, सहिष्णुता और बंधुत्व का क्या? गरीबी, असमानता, विस्थापन, शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं की चुनौतियों के समाधान का रास्ता कैसा हो? क्या ये चुनौतियां विविधता के आयाम-धर्म, क्षेत्र, भाषा और जाति के सापेक्ष केवल एक राजनीतिक मुद्दे हैं?

क्या इन आयामों पर किसी समूह के पीछे रहने का कारण उसकी सांस्कृतिक अस्मिता है, या वे सामाजिक-ऐतिहासिक कारण जो आर्थिक असमानता और राजनैतिक वर्चस्व के लिए उत्तरादायी हैं? ऐसी स्थिति में संभावित और सबसे सरल उत्तर है कि इनका समाधान राज्य द्वारा किया जा सकता है, लेकिन हमारे रोजमर्रा के आपसी संबंध, जो अपने समूह से भिन्न समूहों से या तो दूरी बनाए हुए हैं, या उनके साथ अन्त:क्रिया के दौरान संदेह का भाव रखते हैं, उसका क्या?

हमें एक नागरिक बोध विकसित करने की आवश्यकता है, जिसके अनुसार साथ रहने की आवश्यकता केवल एक संप्रभु लोकतंत्रात्मक गणराज्य के नागरिक होने की मजबूरी नहीं है, बल्कि एक भाव, एक अभिवृत्ति है, जो ‘भारतीय’ होने के कारण स्वाभाविक रूप से हमें एकजुट रखती है। ध्यान रखना होगा कि न तो हमारा संविधान और न ही हमारी परंपरा किसी प्रतीक या संस्कृति विशेष के चयन द्वारा एकरूपता का पक्ष लेती है। हम ‘अस्मिताओं’ वाले भारत की कल्पना करते हैं, और इसी अर्थ में भारतीय संज्ञा का प्रयोग करते हैं। ‘अस्मिताओं’ का स्वीकार भारतीय संस्कृति को संवर्धित करना है। हमें मानना होगा कि हर सांस्कृतिक अस्मिता की प्रतिबद्धता भारत के साथ है। फर्क इतना है कि वे इस देश के वृहद् चित्र में अपनी अस्मिता का भी रंग चाहते हैं।

ऋषभ कुमार मिश्र


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