परत-दर-परत : न्यूटन और डार्विन के सिद्धांत और वेद
धरती पर जीवन की रचना एक साथ हुई या उसका विकास धीरे-धीरे हुआ, यह अब विवाद का विषय नहीं रहा.
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चार्ल्स डार्विन ने जब 1859 में उद्विकास का सिद्धांत पेश किया, तब सारी दुनिया चौंक उठी थी. क्या हम चिंपैंजी की संतान हैं? क्या बंदर हमारे पूर्वज हैं? क्या हमारा विकास अमीबा नाम के उस एककोशीय जीव से हुआ था, जो पानी में तैरता है? इस तरह के प्रश्न चारों ओर से उठने लगे. बाइबिल में लिखा हुआ है कि ईश्वर ने छह दिनों तक सृष्टि की रचना की थे. सातवें दिन आराम किया. यही रविवार है. अत: डार्विन पर चर्च का भी प्रहार होने लगा. माना गया कि वे दुनिया को गुमराह कर रहे हैं. आज भी तमाम धार्मिंक लोग डार्विन को खारिज करते हैं. अमेरिका के कई चर्च-संचालित स्कूलों में उद्विकासवाद नहीं पढ़ाया जाता. इस्लाम भी डार्विन के सिद्धांत को नहीं स्वीकारता क्योंकि यह कुरआन में वर्णित सृष्टि निर्माण प्रक्रिया का समर्थन नहीं करता.
डार्विन को स्वीकार करने की समस्या यह है कि इससे ईश्वर की एक प्रमुख भूमिका छंट जाती है. मोटे तौर पर मानें, तो विभिन्न सभ्यताओं में ईश्वर के तीन बड़े काम माने गए हैं. 1) उसने ब्रह्मांड की रचना की. अभी तक एक रहस्य ही है कि ब्रह्मांड की रचना कैसे हुई. 2) ईश्वर का दूसरा बड़ा काम यह है कि उसने जीव जगत की सृष्टि की. डार्विन ने पहली बार सिद्धांत दिया कि पदार्थ से जीवन का विकास हुआ. शुरू में जल ही जल था. फिर वनस्पतियां हुई. उसके बाद पूर्ण जीवन के विकास का सिलसिला अमीबा से हुआ, जो आज भी पाया जाता है. पहले पानी के जीव आए, उसके बाद धरती और आकाश के. इस सिद्धांत को मान लेने पर ईश्वर की यह भूमिका निरस्त हो जाती है यानी जीव जगत की सृष्टि करने के लिए हमें ईश्वर की कल्पना करने की जरूरत नहीं है. 3) ईश्वर का तीसरा काम है जीवन व्यवस्था का संचालन करना. डार्विन का सिद्धांत इस पर भी चोट करता है, क्योंकि उद्विकास के सिद्धांत में आत्मा के लिए कोई जगह नहीं है. जब आत्मा ही नहीं होती, तो जीवन जितना जी लिया जाता है, वह वहीं तक है. आगे भी जाने न तू, पीछे भी जाने न तू.
लेकिन केंद्रीय मानव संसाधन राज्य मंत्री सत्यपाल सिंह यह सब नहीं मानते. सिंह कोई अनपढ़ मंत्री नहीं हैं. उन्होंने दिल्ली विविद्यालय से रसायन विज्ञान में एमफिल किया है, ऑस्ट्रेलिया से एमबीए की डिग्री ली है, दो और विषयों में एमए किया है, और नक्सलवाद पर पीएचडी की है. विचारों से आर्य समाजी पर हैं, पर विभिन्न सामाजिक, राजनीतिक और आध्यात्मिक विषयों पर अपने विचार व्यक्त करते रहते हैं. ऐसे व्यक्ति के मुंह से एक महीना पहले सुन कर आश्चर्य हुआ कि डार्विन का सिद्धांत तथ्य की कसौटी पर खरा नहीं उतरता. सिंह औरंगाबाद में अखिल भारतीय वैदिक सम्मेलन में शिरकत करने पहुंचे थे. सम्मेलन में उन्होंने कहा कि वेद डार्विन के सिद्धांत का समर्थन नहीं करते. हमारे पूर्वजों ने कहीं भी लिखित या मौखिक तौर पर जिक्र नहीं किया है कि उन्होंने किसी बंदर को मनुष्य में बदलते देखा. यह भी कहा कि हमने जो भी किताबें पढ़ी हैं, या अपने दादा-नाना से कहानियां सुनी हैं, उनमें कहीं भी इसका जिक्र नहीं है. इसी सीमित आधार पर उनका दावा था कि मानव के क्रमिक विकास का चाल्र्स डार्विन का सिद्धांत वैज्ञानिक रूप से गलत है. उन्होंने स्कूलों और कॉलेजों के पाठय़क्रम में बदलाव की भी हिमायत की.
बाद में सत्यपाल सिंह ने न्यूटन पर भी आक्रमण किया. केंद्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड की बैठक में उन्होंने यह तो नहीं कहा कि न्यूटन ने गति के जिन चार नियमों का आविष्कार किया था, वे अवैज्ञानिक थे, लेकिन दावा जरूर किया कि हमारे ऋषि-मुनियों द्वारा कहे गए मंत्रों में ये नियम पहले से मौजूद थे. उचित था कि वे इन मंत्रों का उल्लेख भी करते या कम से कम उनकी ओर इशारा ही. औरंगाबाद में तो वे डार्विन से प्रमाण मांग रहे थे कि बताओ किसी ने बंदर को मनुष्य में बदलते देखा है, पर यहां उन्होंने बताना उचित नहीं समझा कि वे कौन-से मंत्र हैं, जिनमें कही गई बातों को न्यूटन ने दुहराया था.
मंत्री जी को मुंह की खानी पड़ी विज्ञान दिवस (28 फरवरी) पर भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी के कार्यक्रम में. वहां आयोजन का विषय ही था-‘क्यों उद्विकास, जीव विज्ञान और हमारे जीवन के लिए केंद्रीय है’. यह उचित अवसर था, जब सिंह उपस्थित वैज्ञानिकों की खबर लेते कि क्यों आप लोग अभी भी डार्विन के उद्विकास सिद्धांत पर फिदा हैं. किसी और कोण से क्यों नहीं सोचते. कार्यक्रम का उद्घाटन सत्यपाल सिंह को ही करना था पर इस विषय पर उन्होंने एक शब्द भी नहीं कहा. बाद में जब पत्रकारों ने इस विषय पर प्रश्न किया, तब भी वे कुछ नहीं बोले. उद्घाटन भाषण में उन्होंने जरूर इस बात पर जोर दिया कि हमें वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाना चाहिए तथा दूसरों से ही नहीं, अपने आप से भी प्रश्न करना चाहिए. केंद्रीय राज्य मंत्री की यह सलाह शायद दूसरों के लिए थी, अपने लिए नहीं. नहीं तो वैज्ञानिकों के बीच अपने को पा कर वे न्यूटन और डार्विन पर अपने वक्तव्यों के लिए जरूर क्षमा मांगते. वेद मानव सभ्यता के आदि ग्रंथ हैं. उनमें बहुत कुछ है, जो मूल्यवान है. वे इतिहास के संकेत भी देते हैं. लेकिन यह दावा करके कि जो वेदों में नहीं है, वह असत्य है, या जो वेदों में है, उसके अलावा कुछ भी प्रामाणिक नहीं है, हम ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में कहां पहुंचेंगे?
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