प्रसंगवश : थोड़ी जगह औरों को भी दें

Last Updated 04 Mar 2018 04:52:55 AM IST

आम तौर पर यही माना जाता है कि जिंदगी में सफलता पाने वाले लोगों में बड़ा जोश होता है, योग्यता भी होती है, और उन्हें मौका भी मिल जाता है.


गिरीश्वर मिश्र

दूसरे शब्दों में, सफलता व्यक्ति की प्रतिभा, परिश्रम और भाग्य का खेल है. यह समीकरण इस अर्थ में अधूरा है कि इसमें व्यक्ति ही केंद्र में है, और उसका सामाजिक दायरा छूट गया है. इसमें इस बात पर कोई ध्यान नहीं दिया गया है कि हम दूसरों के साथ कैसा बर्ताव करते हैं. पर जीवन चलता रहे इसमें परिजनों, मित्रों, सहकर्मिंयों और विभिन्न भूमिकाओं में औपचारिक रूप से मिलने वाले लोगों की खास भूमिका होती है. दूसरों के साथ रिश्ते या पारस्परिकता ही जीवन-व्यापार की डोर है.
वस्तुत: पारस्परिकता किस आधार पर हो इसके लिए लोगों के अपने अपने सूत्र होते हैं. कितना लें और कितना दें, इसका अपना-अपना गणित होता है. पारस्परिकता के एक छोर पर यदि (सिर्फ) लेने (में विश्वास रखने) वाले हैं, तो दूसरी छोर पर (स्वयं को पूरी तरह न्योछावर कर) देने वाले भी हैं. लेने वाले चाहते हैं कि वे जितना भी दे रहे हैं, उससे कई गुना ज्यादा वापस पा सकें. इसके सिवा उन्हें कुछ और नहीं दिखता. वे हर तरह से पारस्परिकता का अपने लिए फायदा उठाना चाहते हैं. उनकी अपनी जरूरत दूसरों की जरूरत से सदैव  आगे ही होती है. वे मानते हैं कि यह दुनिया प्रतिस्पर्धा की है, और सफलता पाने के लिए किसी भी तरह दूसरों को पछाड़ना जरूरी है. अपनी योग्यता प्रमाणित करने के लिए वे अपना (झूठा!) प्रचार करते नहीं थकते और राह चलते अधिकाधिक गौरव बटोरते चलते हैं. 

दूसरी और दाता श्रेणी के लोग होते हैं, जो देने में विश्वास रखते हैं. जहां लेने वाले आत्मकेंद्रित रहते हैं, देने वाले दूसरों पर भी ध्यान देते हैं. लेने और देने वाले कई अथरे में भिन्न होते हैं. यदि कोई व्यक्ति लेने वाला है, तो वह दूसरों की मदद बड़े तरीके से करता है. सुनिश्चित करता चलता है कि उसे मिलने वाला लाभ हर हाल में लागत से ज्यादा हो. इसके विपरीत देने की प्रवृत्ति वाला दूसरे ही ढंग से नफा-नुकसान के बारे में सोचता है. वह अपनी लागत के बारे में बिल्कुल ही नहीं सोचता और बिना किसी आशा के सहायता करने के लिए तत्पर रहता है. 
वस्तुत: ‘देना’ किसी बड़े बलिदान की मांग नहीं करता. दूसरों के हित को ध्यान में रख कर व्यवहार करना ही काफी होता है. देने के कई रूप होते हैं. दूसरे व्यक्ति को सहायता देना, सिखाना, सम्मान देना दूसरों के साथ संपर्क बढ़ाना भी इसमें शामिल होता है. निकट रिश्तों में हम सब प्राय: देने वाले की ही भूमिका में परिजनों और मित्रों की सहायता करते हैं पर नौकरी-पेशे में शायद ही कोई शुद्ध देने वाला या लेने वाला होता है. हम अक्सर बराबरी के सिद्धांत का पालन करते हुए एक दूसरे को टक्कर देते हैं यानी लेने और देने में बराबरी रखते हैं. कोई मित्रता करता है, तो मित्रता अन्यथा दुश्मनी करे तो दुश्मनी: शठे शाठ्यं समाचरेत यानी जैसे को तैसा. अधिक उत्पादन करने वाले और सर्जनशील व्यक्ति देने वालों की श्रेणी में ही आते हैं. वे जितना पाते हैं, उससे ज्यादा देते हैं. लेने वाले और बराबरी करने वाले लोग उनसे नीचे ही रहते हैं. देने वालों में परिश्रम, साहस और संवेदना तीनों ही मिलते हैं. लेने वाला तो दूसरे व्यक्ति का मात्र लाभ के लिए उपयोग करता है. जब हम दूसरों से कुछ पाते हैं, तो सहायता स्वीकर करने के साथ मन में प्रतिदान की भावना भी रहती है. ऐसे देने वाले लोग भी दूसरों से सहायता पाने को इच्छुक रहते हैं. वे भी महत्त्वाकांक्षा रखते हैं पर लक्ष्यों को पाने का उनका नजरिया अलग होता है.
सफलता सभी पाते हैं पर देने वालों की सफलता की खुशबू अलग किस्म की होती है. लेने वाले जीतते हैं, तो कोई हारता है. वे अपने प्रतिद्वंद्वी को कहीं का नहीं छोड़ते, उसे उखाड़ फेंकते हैं. पर देने वाले का असर संक्रामक होता है. उसका पास-पड़ोस सकारात्मकता से ओत-प्रोत हो उठता है. उनकी सफलता की संभावना बढ़ जाती है. देने वाले की सफलता से सिर्फ  उसका अपना दावा ही नहीं पुरता है, गुणात्मक रूप से सभी पक्ष समृद्ध होते हैं.
आज जब तकनीकी प्रगति का अछोर विस्तार हो रहा है, देने के लाभ भी बढ़ रहे हैं. आज टीम में काम होता है. टीम काम करे इसके लिए जरूरी है कि लाोग एक दूसरे की मदद करने को आगे आवें. अल्प अवधि में देने की युक्ति शायद ठीक न लगे पर लंबी दौड़ में तो निश्चय ही कारगर है, और लाभकर भी. देने वालों व्यक्तियों में सहायता, दायित्व-बोध, सामाजिक न्याय व दया की विशेषताओं की प्रमुखता होती है. समाज के लिए इसी की जरूरत है.



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