मीडिया : ‘टीजर’ की राजनीति

Last Updated 04 Mar 2018 04:56:40 AM IST

लोग मोदी जी से लाख ‘परेशान’ हों, उनकी लाख ‘आलोचना’ करें, उनकी ‘डिसरप्टिव’ नीतियों से लाख हलकान हों, आज के मीडिया में ‘डिसरप्टर’ की छवि मूल्यवान होती है.


मीडिया : ‘टीजर’ की राजनीति

आज के मीडिया की भाषा किसी ‘डिसरप्टर’ की भाषा से ही मेल खाती है. जब लोग लंबे अरसे तक एक ही जीवनशैली में रहते हैं,  और एक दिन ऊबने लगते हैं, तब उनको ‘तंग’ करने वाला, उनकी जीवनशैली को ‘डिसरप्ट’ करने वाला ही उनको भाता है. आज के मीडिया में विज्ञापन भी ‘टीजर’ कहलाते हैं. रजनीकांत की नई फिल्म ‘काला’ का प्रोमो एक ‘टीजर’ ही है. टीजर यानी ‘चिढ़ाने वाला’. ‘टीजर’ प्रार्थना की भाषा नहीं जानता कि सर जी आइए, हम आपकी चंपी करेंगे. टीजर आपको चिढ़ाता हुआ, तंग करता हुआ आता है. आप तंग होते हैं, लेकिन ऐसे कि रोने की जगह आनंदित होने लगते हैं. ‘टीजर’ आपको मनोरंजक तरीके से ‘डिस्टर्ब’ करता है, और इसी कारण ‘मजेदार’ लगता है. आप सोचते हैं कि अब तक एक ही स्वाद चखा, एक बार इसे भी आजमा लें.

 टीजर विज्ञापन की नई भाषा है, हमारे चैनलों की भाषा, हमारे ‘सोशल’ मीडिया की भाषा. चिढ़ाने की भाषा है. वह टीजर की तरह काम करती है. ‘तंग’ करने वाले की तरह काम करती है. यह एक ‘मनोवैज्ञानिक जबर्दस्ती’ है. मीडिया में आए विज्ञापनों का इतिहास देखिए. मीडिया की भाषा का बदलता मुहावरा देखिए. समझ जाएंगे कि नये ब्रांड की ‘पोजीशनिंग’ के लिए  टीजर की जरूरत क्यों होती है? एक भाषा वह थी, जब विज्ञापन या प्रोमो प्रार्थना की भाषा का उपयोग करते थे कि अगर आपको सर में दर्द है, तो ये गोली लीजिए. जैसे ‘विक्स की गोली लो सिर दर्द दूर करो’. अब जो विज्ञापन आते हैं, उनका मुहावरा प्रार्थना का नहीं, दर्शक को गुदगुदाने, तिकतिकाने और हकबकाने  और झटका देने का है. हमें झटका देने वाला याद रहता है. प्रार्थना की भाषा में रिरियाने वाला नहीं. जिस प्रोडक्ट का विक्रेता उसे प्रार्थना की भाषा में बेचता है, वह बिकता नहीं. लोग सोचते हैं: जब बेचने वाले में ही दम नहीं तो बिकने वाली चीज भी बेकार होगी. आज की राजनीति में भाजपा की ताकत और निर्णयात्मक भाषा लोगों को ‘टीज’ कर आकृष्ट करती है. 
दिन-रात सकरुलेट करती भाजपा की उन साउंड बाइटों को, उन चिह्नों को देखिए जो पिछले साढ़े तीन साल के दौरान टीवी और सोशल मीडिया में बड़ी जगह बनाए हुए हैं. त्रिपुरा एक दिन में साढ़े तीन साल में जीता गया है. नेशन, नेशनलिज्म, राष्ट्र, राष्ट्रप्रेम, देश, देशप्रेम, इंडिया फस्र्ट, नेशन फस्र्ट, लुक ईस्ट, हिन्दू धर्म, मंदिर, हिन्दुत्व, संघ, गोमाता, गोरक्षक, लव जिहाद, ‘मुसलमान बाहर जाएं’, ‘ताजमहल तेजोमहल है’ आदि आदि ऐसे अनेक ‘चिह्न’ हैं, जो अपने ‘हाइपर रीयल’ तरीके से  लोगों पर असर डालते हैं. जब ऐसे अनेक चिह्न मीडिया में सकरुलेट होते है, तो एक ऐसा  सांस्कृतिक वातावरण बनाते हैं,  जिसमें अब तक इस्तेमाल की जाती सेक्युलर भाषा प्रवेश ही नहीं कर पाती. ‘तेज विकास’ के साथ ‘हिन्दुत्व’ के दावे, नेहरूवादी कांग्रेसी भाषा के बीच सबसे बड़े ‘डिसरपन’ और ‘टीजर’ का काम करते हैं.
एक ओर तेज विकास के नारे और जमीन पर हिन्दुत्ववादी नेताओं और तरह-तरह के संगठनों द्वारा देश, देशप्रेम, राष्ट्र, राष्ट्रवाद, एक राष्ट्र, एक देश, एक बाजार, एक कानून, एक नेता, एक चुनाव आदि के नारे मीडिया में दिन-रात बजते हुए ‘एकत्व’ को, ‘एकता’ को, देश और राष्ट्र के विचार को सघनीकृत करते रहते हैं. साथ ही ये सब मिलकर ‘कांग्रेस’ या ‘वाम’ के सेक्युलरिज्म और ‘माइनोरिटिज्म’ के चले आते विचारों को पहली ही टक्कर में ‘डिसरप्ट’ कर देते हैं. इनकी सघनता में ‘मेजोरिटेरियनिज्म’ की आलोचना तक ‘बूमरेंग’ करती है. यही चिह्न जब दिन-रात मीडिया में सकरुलेशन करते हैं, तो एक ऐसा ‘हाइपर रीयल’ जगत बनाते हैं, जो नई पीढ़ी को जमीनी हकीकत  से अधिक ‘अपना’, ‘सच्चा’ और ‘निर्णायक’ प्रतीत होता है. हर एक के पास का मोबाइल उसे दिन-रात  ‘हाइपर रीयल’ जगत में जिंदा रखता है. आज हम जमीन से अधिक वर्चुअल जगत में रहते हैं, हाइपर में रहते हैं, और ‘हाइपर रीयल’ वो रीयल होता है, जो जमीनी हकीकत की ‘जगह’  स्वयं को ‘स्थापित’ कर लेता है. हमारे अनुभव सीधे व्हाट्सएप और फेसबुक से बनते हैं. जमाना टीजर का है, उनकी पोजीशनिंग का है, उनको बेचने का है. यह एक बहुत बड़ी ‘पैराडाइम शिफ्ट’ है. राजनीति में नया प्रस्थापना परिवर्तन है. त्रिपुरा का चुनाव केरल के मार्क्‍सवादियों के लिए एक प्रकार का ‘टीजर’ ही है. 2019 का सुपर ‘डिसरपन’ यहीं से शुरू होता है.

सुधीश पचौरी


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